मानव जीवन की सफलता का प्रधान केन्द्र-प्रेम

May 1951

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री भीकम शाह “भारतीय” शिवगंज)

मनुष्य को सात्विक व न्याय प्रिय होने के अलावा प्रेम और मिलन सारी की आवश्यकता है। जिस मनुष्य का हृदय प्रेम पूर्ण न हो उसे बहुत अंशों में मनुष्य न मानना चाहिये। प्रेम मनुष्य के दुःख को घटाने और सुखों को बढ़ाने में बड़ा भारी सहायक होते हैं। जिस मनुष्य में प्रेम की जितनी अधिक मात्रा होगी वह संसार की विपत्तियों से उतना ही अधिक बचा रहेगा। इसके अतिरिक्त मन को सात्विक बनाने के लिये भी प्रेम की बड़ी आवश्यकता होती है। प्रेमपूर्ण व्यवहार का प्रभाव मनुष्य पर कठोर दंड की अपेक्षा कहीं अधिक होता है। प्रेम की सहायता से मनुष्य अपना मन भी पवित्र एवं प्रसन्न कर सकता है।

प्रेम से कोमलता, सुख-शान्ति ममता और सद्भाव आदि अनेक गुणों की उत्पत्ति होती है और इसी की सहायता से मनुष्य बुरी बातों का त्याग करके अच्छी बातें स्वीकार करता है। प्रेम हमारे सच्चे मित्रों और सहायकों की संख्या बढ़ाकर हमारे मार्ग के समस्त कंटकों को दूर करता है। केवल सुविचार से ही मनुष्य में सद्गुणों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। हमारा हृदय क्षेत्र है, सुविचार बीज है। प्रेम वह अमृत है, जिससे यह क्षेत्र सींचा जाता है। और सद्गुण उस क्षेत्र में होने वाले फल है। जब तक हमारा हृदय प्रेमामृत से सींचा न जायेगा, तब तक उसमें सद्गुण उत्पन्न न होगे। एक महापुरुष का उपदेश है “यदि हमें ईश्वर से कुछ माँगना हो तो सदा प्रेम की भिक्षा ही माँगनी चाहिये।”

प्रेम एक ऐसी अलौकिक शक्ति है जिससे मनुष्य को अनन्त लाभ होते हैं। प्रेम से मानसिक विकार दूर होते हैं। विचारो में कोमलता आती है, सद्गुणों की सृष्टि होती है। दुःखों का नाश और सुखों की वृद्धि होती है। यहाँ तक कि मनुष्य की आयु और सम्पदा भी बढ़ती है। जो मनुष्य अपने हृदय से प्रेम भाव निकाल देता है। वह मानो अपने जीवन का सर्वोत्तम अंश नष्ट कर देता है। प्रेम ही मनुष्य को साहसी वीर और सहनशील बनाता है। प्रेम ही के कारण माता अपने पुत्र के लिए अत्यंत कष्ट सहती और स्वयं सब प्रकार के दुःख भोग कर उसे सुख देती है। माताओं को बहुधा ऐसी अवस्थाओं में रहना पड़ता है, जिससे यदि उन्हें प्रेम का सहारा न हो तो, वे बहुत शीघ्र बीमार हो जाये । पर वह प्रेम उन्हें रोगी होने से बचाता है। उल्टे शुद्ध प्रेम बलिष्ठ और सुन्दर बनाता है। बिना प्रेम के अच्छी से अच्छी सुख सामग्री हमें तनिक भी प्रसन्न नहीं कर सकती पर प्रेम सहायता से हम बिना किसी सुख सामग्री के परम सुखी हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि प्रेम से संसार की समस्त उत्तम बातों की सृष्टि होती है और समस्त बुरी बातों का नाश होता है।

संसार में सुख और प्रतिष्ठापूर्वक रहने के लिये उदार, नम्र एवं शिष्ट होना चाहिए। इन गुणों वाला मनुष्य वही हो सकता है’- जिसका हृदय प्रेमपूर्ण है संसार में हमारे बहुत से काम केवल मिलन सारी से निकल सकते हैं। जिस मनुष्य का स्वभाव प्रेमपूर्ण और मिलनसार होता है उसे सब स्थानों पर सब अवस्थाओं में मित्र और सहायक मिल जाते हैं। हम नित्यप्रति यह देखते हैं कि मिलन सार मनुष्य के कठिन काम बहुत ही सहज में हो जाते है। और जिस मनुष्य का स्वभाव मिलनसार नहीं होता उसके साधारण काम भी रुक जाते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118