आवेश और उद्वेग से बचिए

May 1951

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री स्वामी शिवानंद जी सरस्वती )

विनोद-हास्य की आदत प्रकृति की अमूल्य देन है। साधकों को आध्यात्मिक मार्ग में आगे बढ़ने में यह सहायता करती है, यह मन की खिन्नता को दूर करती है और मनुष्य को प्रसन्न रखती है। यह दूसरों को भी प्रफुलित और आनन्दित करती है। परन्तु आपको ऐसा हास्य कभी नहीं करना चाहिए जिससे दूसरों को दुःख हो। आपका हास्य ऐसा होना चाहिए। जिससे दूसरों को शिक्षा और सुधार का अवसर मिले। आपका हास्य आध्यात्मिक उपदेश का भी काम करे। मनुष्य को हल्की मधुर हँसी हँसना चाहिए। उजड्डेपन की ठेकेदार असभ्य हँसी से बचना चाहिये । इस से साधक की आध्यात्मिक उन्नति रुक जाती हैं। मन की गम्भीरता नष्ट हो जाती है। महात्मा अपने नेत्रों में ही मुस्कराते और हंसते है जो वास्तव में महत्वपूर्ण आकर्षक होता है। बुद्धिमान साधक ही इसको समझ सकते है। बालकों जैसे छिछोरे और मूर्ख मत बनो।

थोड़ी सी भी उद्विग्नता और चिड़चिड़ेपन का मन पर और सूक्ष्म शरीर पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। साधकों को अपने चित्त में इस प्रकार की कुवृत्तियाँ प्रकट नहीं होने देना चाहिए। यदि आप इनकी ओर से कुछ भी असावधान हुए तो फिर यही वृत्तियाँ भयंकर क्रोध का रूप किसी समय भी धारण कर ले सकती है। उन्हें अंकुरित होते ही क्षमा, प्रेम और सहानुभूति के द्वारा मसल डालना चाहिए। मन में तनिक भी अशान्ति नहीं होनी चाहिए। मन को बिल्कुल शान्त और स्थिर रहना चाहिये। तब ही ध्यान सम्भव है।

जिस प्रकार शैतान घोड़ा सवार को अपने ही साथ कुपथ की ओर ले जाता है उसी प्रकार क्रोध का वेग भी इस संयम रहित शुद्ध जीव को क्रोध वेश में पथ भ्रष्ट कर देता है। वह क्रोध का शिकार ही बन जाता है। जिस प्रकार कुशल घुड़सवार घोड़े काबू रखता हुआ निरापद अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच जाता है। उसी प्रकार आत्मसंयमी मनुष्य क्रोधावेश को दबाकर शान्ति प्राप्त करता है। और जीवन के लक्ष्य को पहुँच जाता है।

भयंकर क्रोध-वेश से स्थूल शरीर की नाड़ी मण्डलियाँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। और सूक्ष्म शरीर पर इसका बड़ा गहरा स्थायी प्रभाव पड़ता है। सूक्ष्म शरीर से काले-काले तीर के समान ये लहरे निकला करती हैं। जिन परमाणुओं ने स्पेन का फ्लू पैदा किया था वे भले नष्ट हो जायें परन्तु अनेक देशों में दीर्घ काल तक उनका कार्यरूप इन्फ्लुएंजा जारी रहेगा। इसी प्रकार मन में क्रोध का प्रभाव भले ही थोड़ी देर में शान्त हो जाये परन्तु लिंग शरीर में इसका असर कई दिनों बल्कि सप्ताहों तक बना रहता है। थोड़ा सा भी उद्वेग जो मन में पाँच मिनट रहे तो लिंग शरीर में दो तीन दिन के लिए उसका प्रभाव बना रहता है। भयंकर क्रोध का आक्रमण शरीर में अत्यधिक सूजन पैदा कर देगा। जिससे लिंग शरीर में एक जख्म पैदा हो जायगा जो कई महीनों में अच्छा होगा। क्या अब आपने क्रोध का विनाशकारी परिणाम समझ लिया। क्रोध के शिकार मत बनें। इसे क्षमा, प्रेम दया सहानुभूति, विचार और दूसरों के विचारों का आदर करके दमन करो।

चिन्ता, खेद, अपवित्र विचार, क्रोध या घृणा, मन या लिंग शरीर पर एक प्रकार की काली तह जमा देते हैं। यह काली तह का आवरण सद्गुणों का लाभकारी प्रभाव अन्दर प्रवेश नहीं होने देती और असद्गगुणों को अपना काम कराने में सहायक बनी रहती है। चिन्ता मन और सूक्ष्म शरीर को बड़ी हानि पहुँचाती है। चिन्ता करने से शक्ति क्षीण हो जाती है। और कुछ लाभ होता नहीं बड़ी कुशलतापूर्वक आत्म निरीक्षण द्वारा तथा मन को निरंतर ध्येय में संलग्न रखकर चिन्ता को निर्मूल करना चाहियें

अपने प्रयत्न में कमी मत करो। दिव्य ज्योति के दीप को जलने दो। अब आप ध्येय के समीप पहुँच गये हो। अब प्रकाश मिल गया है। अथवा धैर्य पूर्ण साधन की शक्ति से अध्यात्मिक मार्ग में आपने बहुत ऊँचे-ऊँचे पर्वत पार कर लिए हैं। यह बड़ी ही सराहनीय बात है। आपने बेशक बड़ी उन्नति की है। पर अभी आपको अभी एक और चोटी पर चढ़ना है। और एक तंग घाटी में से पार होना है इसके लिये और भी धैर्यपूर्ण प्रयत्न और शक्ति की आवश्यकता है। आपके सात्विक अहंकार को भी घुला डालना होगा। सविकल्प समाधि की आनन्द पूर्ण अवस्था को भी उल्लंघन कर जाना होगा। ब्रह्माकार वृत्ति को भी समाप्त करना होगा। तभी आप निश्चय पूर्वक भूमावस्था को प्राप्त करोगे जो कि जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118