(श्री अगरचन्द नाहटा बीकानेर)
विश्व अशान्ति के दो प्रधान कारण हैं-एक तो अभाव, दूसरा तृष्णा। हमें अपने जीवनोपयोगी वस्तुओं के प्राप्त न होने या कम प्राप्त होने के कारण चित्त में अशाँति का अनुभव होता रहता है। विशेषकर जबकि दूसरों के पास उनकी आवश्यकता से अधिक विद्यमानता देखते हैं तो मन में एक संघर्ष सा छिड़ता है कि हमें भी वैसी ही सुविधाएँ और वस्तुएँ मिलनी चाहिए और जहाँ तक उनका अभाव रहेगा, अशाँति मिट नहीं सकती। उसका सच्चा उपाय तो यही है कि हम अपनी आवश्यकताओं को यथा संभव कम करें उनकी पूर्ति स्वयं कर सकें वैसा श्रम करते रहें एवं जो साधन सामग्री प्राप्त है, उसमें संतोष की भावना पन पायें। भारतीय प्राचीन संस्कृति इस पर जोर देती आ रही है। पर मानव-स्वभाव की कमजोरी समझें या संस्कार दोष हमें प्राप्त वस्तुओं में सन्तोष नहीं होता। हमारी तृष्णा बढ़ती ही रहती है। एक दूसरे अनुकरण में हमारी आवश्यकताएं बढ़ती ही चली जाती है। ऐसी परिस्थिति में शाँति कैसे प्राप्त हो?
हमारे प्राचीन मनीषियों ने बहुत प्रकार से इस अशाँति का विश्लेषण करके मानव को अंतर्मुखी बनने को आकर्षित किया है। उन्होंने देखा कि यह जीवन क्षण भँगुर है, थोड़े-से समय में ही इस देह से नाता छूट जानेवाला है। हम जियेंगे तो पचास-साठ वर्ष और सोचते रहते हैं सैंकड़ों वर्षों की बातें! हमारा मन अन्त समय तक संग्रह-वृत्ति में ही लगा रहता है। जो भी यहाँ से भौतिक शरीर को छोड़ जाते हैं कोई शरीर, धनादि पदार्थ साथ नहीं ले जा सकता। तब इनकी इतनी तृष्णा भ्रम का चक्कर ही प्रतीत होता है। इसीलिए मनीषियों ने भोग को छोड़ त्याग को स्वीकार किया व उसे ही शाँति का मार्ग समझा।
विश्व के सारे पदार्थ परिवर्तनशील हैं। कोई भी पदार्थ सदा एक-सा नहीं रहता। इससे हमें बोध ग्रहण करना चाहिये। हमारे मनीषियों ने ऐसा ही किया था, जिसके सैकड़ों दृष्टान्त भारतीय साहित्य में भरे पड़े हैं। हम इस परम सत्य की उपेक्षा न कर इधर-उधर, बाहर ही बाहर भूले भटक रहें हैं। इससे शान्ति मिलने की नहीं। यह सही है कि सभी व्यक्ति ऐसी भावना व यह सही है किन्हीं बन सकते, पर जितने अधिक परिमाण में हमारी आध्यात्मिक संस्कृति का प्रचार होगा, शान्ति उतनी ही अधिक सुलभ होगा।
बहुत से व्यक्तियों का कहना है कि वस्तुओं की कमी है तब संघर्ष रुक कैसे सकता है? वास्तव में हमने अभी वस्तुओं के उपयोग की कला सीखी नहीं और न हमारा इस ओर तनिक भी ध्यान ही है। हम प्रतिदिन देखते है कि घरों में या सड़कों पर कूड़े करकट का ढेर पड़ा रहता है। उनमें जीवनोपयोगी कितनी ही वस्तु निकम्मी समझकर डाल दी जाती है। दफ्तरों में नित्य न मालूम कितने कागज फाड़-फाड़ कर रद्दी की टोकरी में डाल दिये जाते हैं जबकि उन्हीं को संग्रह कर उपयोग किया जाय तो बहुत काम आ सकते हैं। उन्हें पंसारियों, हलवाइयों, मोंचे वालों आदि को बेचा जाय तो पैसे मिल सकते हैं। महात्मा गाँधी का इन छोटी-छोटी बातों पर बड़ा ध्यान था। जहाँ तक जिस वस्तु का उपयोग हो सकता, वे उसे व्यर्थ नहीं गंवाते थे। वे जो भी लिफाफे आते या जो भी कागज काम के लायक होते, उन्हें उलटकर, लिफाफे बना कर, काम में ले लेते थे। पर हमें तो वस्तुओं को व्यर्थ बरबाद करने की आदत पड़ गई है। अतः इस ओर हम तनिक भी ध्यान नहीं देते। कोई चीज हमारे काम की न हो, पर हमारे अन्य भाई के काम की हो सकती हो तो हमें उनको दे देनी चाहिए, ताकि उसकी आवश्यकता की पूर्ति हो जाय। अपनी उपभोग्य वस्तुओं में से थोड़ी-थोड़ी बचत की जाय तो बहुत वस्तुएँ बच जायगी।
घरों में देखते हैं, कोई कपड़ा थोड़ा-सा फट गया या मैला हो गया तो उसे व्यवहार के अनुपयुक्त समझ फाड़कर, झाड़न आदि में उनको काम में लेकर, फेंक देते हैं। यदि हम विवेक रखें तो जो काम किसी दूसरी साधारण वस्तु से हो जाय उसके लिए वस्त्र को न गन्दाकर उस वस्त्र को किसी गरीब भाई को उपयोग के लिए दिया जा सकता है। वह व्यक्ति उससे अपनी सर्दी-गर्मी और लज्जा का बचाव कर सुखी हो सकता है।
विद्यार्थी ज्यों-ज्यों आगे की कक्षा में जाता है, पहले की पाठ्य पुस्तक बेकार हो जाती है और उन्हें यों ही बरबाद किया जाता है। यदि उन्हें उस कक्षा के किसी गरीब विद्यार्थी को दे दिया जाय तो कितना सुन्दर हो।
विदेशों में जहाँ अशुचि और कूड़े करकट को भी खाद बनाने आदि के काम में ले लेते हैं, वहाँ हमारे यहाँ काम में आने योग्य वस्तु को भी व्यर्थ ही खोते हैं। यह बहुत ही खेद की बात है। वस्तुओं के उपयोग की कला सीखना भारतवासियों के लिए परमावश्यक है।
हमारे यहाँ गाय, भैंस आदि ढोर रहते हैं। उन्हें घास पत्तर आदि डालने में असावधानी रखने से इधर-उधर कितना ही घास और दाना जमीन में पड़ कर व्यर्थ जाता है। ढोर चरते समय कुछ घास और दाना इधर-उधर फैला देते हैं। वह पैरों के नीचे या भीगे स्थान में पड़ने से यों ही नष्ट हो जाता है तथा गन्दगी और बीमारी बढ़ाता है, जब कि जरा ध्यान रख के उसे तत्काल उठा लिया जाय तो बेचारे कितने ही भूखे ढोरों का इससे पेट भर सकता है।
हम खाने बैठते है तो कोई वस्तु अधिक ले लेते हैं या भाती नहीं है तो यों ही जूठन में छोड़ उसकी बरबादी करते हैं। यदि खाद्य पदार्थ लेते समय ध्यान रखा जाय जिससे जूठन न निकले तो रोज कितना ही खाद्य पदार्थ बचा सकते हैं। इसी प्रकार जल आदि का प्रयोग भी हम ठीक तरह नहीं करते और कितना ही जल व्यर्थ इधर-उधर बरबाद होता है, जिसे पौधों में डाला जाय तो सूखते हुए पौधे ताजे हरे हो सकते हैं। ऐसे अनेक दृष्टान्त दिये जा सकते हैं। वास्तव में रात दिन हम ऐसी अनेक बाते देखते हैं, पर उन पर विचार नहीं करते। यदि कोई विचार करते भी हैं तो उसे कार्य रूप में परिणत नहीं करते।
प्राचीन समय की बात जाने दें तो भी कुछ समय पूर्व तक और किसी अंश में अब भी हमारे ग्रामों में निरुपयोगी मानी जाने वाली वस्तुओं का प्रयोग होता नजर आता है। गाँव वाले फटे वस्त्रों के बिछौने बना लेते हैं। मट्टी आदि साधारण वस्तुओं के ठाठे बनते हैं। पुराने जमाने में रद्दी कागजों को कूट-काट कर अनेक उपयोगी वस्तुएँ बना लेते थे। ऐसी पेटडी, डब्बे, सिंहासन, कलमदान आदि हमारे कला भवन में हैं जिनकी मजबूती व सुन्दरता देखते ही बनती है। खाता बही के रद्दी कागजों के एक ओर के खाली पृष्ठ पर अनेक कलापूर्ण चित्र बनाये हुए हमारे संग्रह में हैं। इसी प्रकार ठाठे के सिंहासन आदि दर्शनीय हैं।
वस्तुओं की व्यर्थ बरबादी से जितना नुकसान होता है, उससे कहीं अधिक समय की बरबादी से होता है। मन, वचन और काया की शक्ति का अपव्यय भी हमारे सारे जीवन को व्यर्थ बना रहा है। अतः हमें अपने चारों ओर, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में होने वाली इस बरबादी से बचकर उसका विवेक पूर्वक सदुपयोग करने की कला का प्रतिदिन अभ्यास बढ़ाते रहना चाहिए। यही जीवन का सबसे अच्छा सद्व्यय है।