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May 1951

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हे भगवान! मरे जीवन के शेष दिन किसी पवित्र वन में शिव-शिव-शिव जपते हुए बीते। साँप और फूलों का हार, बलवान बैरी और मित्र कोमल पुष्प शय्या और पत्थर की शिला, रत्न और पत्थर तिनका और सुन्दर कामिनी-इन सब में मेरी सम दृष्टि हो जाय। -भर्तृहरि,

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जो व्यक्ति निर्मल, चित्त, मात्सर्यहित, प्रशान्त, शुद्ध चरित्र, समस्त जीवों का सुहृद और हित वादी तथा अभिमान एवं माया से रहित होता है उसके हृदय में भगवान वासुदेव सर्वदा विराजमान रहते हैं। -विष्णुपुराण,

ब्रह्म मुहूर्त में ही जागना चाहिए!

(श्री श्रीकण्ड जी शास्त्री)

प्रातःकाल,- जिसको कि हम आगे चल कर ब्रह्मा मुहूर्त कहेंगे- जब कि प्रकृति माँ अपने दोनों हाथों से स्वास्थ्य, बुद्धि, मेधा, प्रसन्नता और सौंदर्य के अमित वरदानों को लुटा रही होती है, जब कि जीवन और प्राण शक्ति का अपूर्व भण्डार प्राणि मात्र के लिए खुला हुआ होता है, तब हम बिस्तरों में पड़े निद्रा पूरी हो जाने पर भी आलस्य वश करवटें बदल-2 कर अपने शरीर में विद्यमान इन सम्पूर्ण वस्तुओं का नाश कर रहे होते हैं। हमें यह ज्ञान भी नहीं होता कि प्रभात के उस पुण्य काल में पड़े पड़े हम प्रकृति के कितने वरदानों से वंचित हो रहे हैं।

प्रातःकाल का वह समय जिस समय मनुष्य को निद्रा को छोड़ देना चाहिए ब्रह्म मुहूर्त कहलाता है। ब्रह्म मुहूर्त का लक्षण धर्म शास्त्रों में इस प्रकार वर्णन किया है। यथाः-

रात्रेः पश्चिमयामस्य मुहूर्तो यस्तृतीयकः।

स ब्रह्म इति विज्ञेयो विहितः स प्रबोधन॥

अर्थात्- रात्रि के अन्तिम पहर का जो तीसरा भाग है उसको ब्रह्म मुहूर्त कहते है। निद्रा त्याग के लिए यही समय शास्त्र विहित है।

आधुनिक सभ्यता का मूर्तिमान प्रतीक रेडियो यद्यपि सूर्योदय के बाद 9 बजे सुरम्य शब्दों में-

“जागा सब संसार, उठो अब भोर भई!”

गा गा कर प्रातःकाल हो जाने की सूचना देकर आधुनिक काल को जगाता है, किन्तु वह वास्तव में प्रातःकाल तो उससे बहुत पहले हो चुका होता है।

भगवान् मनु के आदेशानुसार तो,

ब्रह्म मुहूर्ते बुध्येत

अर्थात्- उपरिलिखित ब्रह्म मुहूर्त में ही उठना चाहिए।

यदि मनुस्मृति को हम उस काल के कानून और आर्डिनैन्सों की पुस्तक स्वीकार करें जैसा कि आधुनिक गवेषक मानते हैं तो हमें मानना पड़ेगा कि मनु के समय से प्रज्ञा के लिए उपर्युक्त आदेश कानून-मानना अनिवार्य होता था और इसके विपरीत आचरण वाले के लिए दण्ड का विधान था। यथा-

ब्रह्म मुहूर्ते या निन्द्रा सा पुण्यक्षयकारिणी।

ताँ करोति द्विजो मोहात् पाद कृच्छे्रणा शुद्धयति॥

अर्थात्- चूँकि प्रातःकाल की निद्रा पुण्यों-सत्कर्मों का नाश करने वाली है इसलिए आलस्य वश जो द्विज प्रातः न उठे उसे “पाद कृच्छ” नामक व्रत करके उसका प्रायश्चित करता चाहिए।

मनु के इस नियम का उस समय सर्वत्र ही आदर के साथ पालन होता था। सभ्य मानव से राक्षस सभी इस नियम को मानते थे। भारतीय साहित्य के सबसे पुराने ऐतिहासिक ग्रन्थ श्री बाल्मीकि रामायण में हमें इस संबन्ध का बड़ा सुन्दर वर्णन प्राप्त होता है।

हनुमान जी जग जननी श्री जनक नन्दिनी की खोज में अशोकवाटिका में पहुँचे हैं, रात्रि का अन्तिम प्रहर हैं। श्री बाल्मीकि जी ने लिखा हैः-

विचिन्वतश्च वैदेहीं किंचिच्छेषा निशाभवत्।

षडंग वेदविदुषाँ क्रतुप्रवरयाजिनाम्॥

शुश्राव ब्रह्म घोषान् स विरात्रे ब्रह्मरक्षसाम्॥

(बा.रा. सुन्दर सर्ग 18,-1,2 श्लोक)

अर्थात्- इस प्रकार सीता की खोज करते करते रात्रि थोड़ी शेष रह गई और तब हनुमान जी ने ब्रह्म मुहूर्त में वेदज्ञ और याज्ञिक पुरुषों द्वारा किये जाने वाले वेद पाठ को सुना।

प्रातः जागरण में जिन लाभों का ऊपर वर्णन किया गया है वह कोरा वर्णन नहीं है बल्कि स्वास्थ्य शास्त्र सम्मत है, यथा-

वर्णों कीर्ति यशः लक्ष्मी, स्वास्थ्यमायुश्च विन्दति।

ब्रह्म मुहूर्ते संजाग्रच्छ्रियं वा पकजं यथा । ।

(भैषज्य सार -93)

अर्थ-ब्रह्म मुहूर्त में उठने वाला पुरुष सौंदर्य, लक्ष्मी, स्वास्थ्य, आयु आदि वस्तुओं को प्राप्त करता है। उसका शरीर कमल के सदृश सुन्दर हो जाता है।

प्रातः काल उठने से इतने लाभ क्यों हैं? इस प्रश्न का उत्तर प्रातःकाल की उस प्राणप्रद वायु में निहित है जो प्राकृतिक रूप से उस समय बहा करती है। जिसके एक-एक कण में संजीवनी शक्ति का अपूर्ण संमिश्रण रहता है। यह वायु रात्रि में चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी पर बरसाये हुए अमृत बिन्दुओं को अपने साथ लेकर बहती है। इसीलिये शास्त्रों में इसे वीर वायु के नाम से स्मरण किया गया है।

जो व्यक्ति इस समय निद्रा त्याग कर चैतन्य होकर इस वायु का सेवन करते हैं उनका स्वास्थ्य सौंदर्य, मेघा और स्मरण शक्ति बढ़ती है, मन प्रफुल्लित हो जाता है और आत्मा में नव चेतनता का अनुभव होने लगता है।

इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण रात्रि के पश्चात् प्रातः जब भगवान् सूर्य उदय होने वाले होते हैं तो उनका चैतन्यमय तेज आकाश मार्ग द्वारा विस्तृत होने लगता है यदि मनुष्य इससे पहले सजग होकर स्नानादि से निवृत हो, उपस्थान द्वारा उन प्राणाधि देव भगवान सूर्य की किरणों से अपने प्राणों में उनके अतुल तेज का आह्वान करने योग्य बन जाय तो वह पुरुष दीर्घजीवी बन जाता है।

आधुनिक विज्ञान के अनुसार समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त वायु का विभाग साधारणतया निमन क्रम से किया जाता है।

ऑक्सीजन वायु 21 प्रतिशत

कार्बनडाई आक्साइड वायु6 “

नाइट्रोजन वायु73 “

100 “

विज्ञान के अनुसार सम्पूर्ण दिन वायु का यही प्रवाहण क्रम रहता है किन्तु प्रातः और सायं जब सन्धिकाल होता है इस क्रम में कुछ परिवर्तन हो जाता है। सूर्यास्त होने के बाद मनुष्य की प्राणशक्ति इसीलिए क्षीण पड़ जाती है कि उस समय जगत्प्राण प्रेरक भगवान सूर्य के अस्त हो जाने के कारण ऑक्सीजन अर्थात् प्राणप्रद वायु भी अपने स्वाभाविक स्तर से निम्न हो जाती है और इसी प्रकार प्रातःकाल के समय उस वायु के अत्यधिक बढ़ जाने के कारण स्वास्थ्य सम्पादन में उसका समुचित उपयोग किया जाना चाहिए। यही इसका वैज्ञानिक रहस्य है।

संसार के सभी महापुरुषों ने प्रकृति के इस अलभ्य वरदान से बड़ा लाभ उठाया है।

विश्ववैद्य महात्मा गाँधी प्रतिदिन रात्रि में 3 बजे उठ कर ही अपने दैनिक कार्यों में लग जाया करते थे। पिछले पत्रों के उत्तर, समाचार पत्रों के लिए लेख तथा सन्देशादि वे इसी समय तैयार किया करते थे। लिखने-पढ़ने के लिए तो इससे उपयुक्त समय हो ही नहीं सकता। एकान्त और सर्वथा शान्त वायु मंडल में जब कि मस्तिष्क बिल्कुल उर्वर होता है ज्ञान तन्तु रात्रि के विश्राम के बाद नवशक्ति युक्त होते हैं, मनुष्य यदि कोई बौद्धिक कार्य करे तो वह उसे उसके लिए विशेष श्रम नहीं करना पड़ेगा। इसलिए हमें प्रकृति के इस अमूल्य वरदान से लाभ उठाना चाहिये और अभ्यास करना चाहिए कि हम प्रति दिन प्रातः उठ बैठे। इस अभ्यास के लिए एक साधारण सा उपाय कार्य में लाया जा सकता है। रात्रि को सोते समय ईश्वर स्मरण के अनन्तर हमें अपनी चैतन्य आत्मा से अपना प्रातः चार बजे उठने का संकल्प जलता देना चाहिए और कहना चाहिये “मुझे प्रातः चार बजे जगा देना”। यह शत-प्रतिशत अनुभव की बात है कि प्रातः चार बजे आपकी अवश्य ही नींद खुल जायगी और यदि फिर आलस्य में आप न पड़े रहे तो फिर बिना किसी घड़ी की सहायता के उठने लगेंगे।


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