भिखमंगों की समस्या

May 1951

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पिछली जनगणना के अनुसार भारत में भिखमंगों की संख्या करीब साठ लाख है। यह संख्या इतनी बड़ी है कि इसकी सम्मिलित शक्ति का अन्दाज लगाने में सिर चकराने लगता है। गत महायुद्ध में रूस ने इतना बड़ा पराक्रम दिखाया था जिसे देखकर दुनिया दंग रह गई यह पराक्रम दिखाने वाले, भारत के भिखमंगों से संख्या में कम ही थे, अधिक नहीं। इतनी बंडी जनशक्ति का निरर्थक होना, उसके भरण पोषण का भार गरीब जनता पर पड़ना, एक दुर्भाग्य की बात है। इसमें राष्ट्र-शक्ति का बड़ा अपव्यय होता है।

हम देखते हैं कि नाना प्रकार की वेषभूषा, नाना प्रकार के आडम्बर बनाये, नाना प्रकार के बहाने बनाकर एक बड़ा भारी जन समूह भिक्षा को अपना व्यवसाय बनाये हुए है। जैसे दुकानदारों में से किसी को कम किसी को अधिक मुनाफा होता है वैसे ही इन भिक्षा व्यवसाइयों में किसी को कम किसी को अधिक पैसा तथा सम्मान प्राप्त होता है, फिर भी जिस प्रकार हर एक दुकानदार अपना खर्च अपने व्यापार से चला लेता है उसी प्रकार यह भिक्षुक भी अपनी जीविका भीख माँग कर कमा लेते है। कहने का तात्पर्य यह है कि भिक्षा व्यवसाय के मार्ग में ऐसी कोई बाधा नहीं है जिससे भिक्षुकों को किसी प्रकार की कठिनाई अनुभव हो और वे उसके कारण कोई दूसरा मार्ग चुनने की बात सोचें। ऐसे निरापद व्यवसाय में अधिक व्यवसाइयों का प्रवेश करना बिल्कुल स्वभाविक है। यही कारण है कि सरकारी जनगणना के अनुसार भिक्षुकों की संख्या निरंतर बढ़ती ही जाती है। एक हिसाब लगाने वाले ने बताया है कि जिस तेजी से आजकल भिक्षुक बढ़ रहे हैं यदि यही क्रम जारी रहा तो तीन सौ वर्ष में पूरा भारत भिक्षुक हो जायेगा, हर एक नर-नारी, तूँवी, लोटा, कमंडल, मृगछाला लिए एक दूसरे से भिक्षा की याचना करता दृष्टिगोचर होगा।

भिक्षुकों की समस्या हमारे देश की एक बड़ी ही गंभीर और महत्वपूर्ण समस्या है। यह दिन दिन और अधिक उलझती एवं पेचीदा होती जाती है तथा ऐसा रूप धारण करती जाती है जिसे देखकर हर एक विचारशील व्यक्ति को चिन्तित होना पड़ता है। भिक्षा व्यवसाय के फलने फूलने से देश की असाधारण क्षति हो रही है। एक प्रकार से नहीं अनेकों प्रकार से यह घृणित व्यवसाय बड़े-बड़े भयानक परिणामों की सृष्टि करता है। आर्थिक दृष्टि से लीजिए-साठ लाख भिक्षुकों में से हर एक का खाने पहनने व्यसन तथा आडम्बर रचने का खर्च आठ आना प्रतिदिन प्रति भिक्षुक मान लिया जाय तो प्रतिदिन यह खर्च तीस लाख रुपया होता है अर्थात् एक अरब साढ़े नौ करोड़ रुपया प्रतिवर्ष यह लोग फूँक देते हैं। इतना बड़ा बोझ भारत जैसे गरीब देश के लिए उठाना बहुत ही कठिन है। इतनी रकम निरर्थक रीति से खर्च हो जाने में उसकी नाड़ियों का मूल्यवान रक्त बेकार चला जाता है। देश के जर्जर शरीर में इतना फालतू रक्त नहीं है कि वह एक अरब साढ़े नौ करोड़ रुपया प्रतिवर्ष लगातार बेकार खर्च करता रहे। यह रकम इतनी बड़ी है कि यदि शिक्षा में इसे खर्च किया जाय तो हिन्दुस्तान भर के सोलह वर्ष से कम आयु के बालकों में से आधे बालकों की पढ़ाई का खर्च चल सकता है। अगर इतना रुपया उद्योग धंधों के विकास में लगाया जाय तो एक करोड़ आदमियों को धन्धा मिल सकता है। इतने पैसे से देश की चौथाई जमीन की सिंचाई कर सकने वाली नहरें चल सकती हैं, जबकि संसार का हर एक देश अपनी राष्ट्रीय सम्पत्ति की एक-एक पाई का सदुपयोग करने की बात सोच रहा है तब हम भारतीय अपनी इतनी बड़ी सम्पत्ति के अपव्यय की ओर से आँख बन्द करके उपेक्षा भाव से नहीं बैठ सकते।

साठ लाख व्यक्तियों को मुफ्त भोजन देने का भार बहुत अधिक है। इतने लोगों की शक्तियाँ यदि अन्न, वस्त्र आदि के उत्पादन में लगें तो यह लोग तीन चार करोड़ आदमियों की आवश्यकता पूर्ण करने योग्य सामग्री और तैयार कर सकते हैं। यदि इतनी शक्तियों का सदुपयोग हुआ होता तो अन्न वस्त्र का जो अभाव आज दिख रहा है न हुआ होता। लाखों मनुष्य को भूख से तड़प-तड़प कर मरने और करोड़ों को अधनंगा रहने की नौबत न आती। यदि हमारे एक हाथ को लकवा मार जाय, वह निकम्मा हो जाय तो सारे शरीर की कठिनाई बढ़ जाती है, उस एक हाथ की निष्क्रियता के फलस्वरूप सारे शरीर को कष्ट भोगना पड़ता है, इसी प्रकार साठ लाख व्यक्तियों की उत्पादन शक्ति से वंचित रहना और उलटे उन्हें मुफ्त में भोजन तथा आडम्बरों का खर्च देना यह देश के लिये दुहरी हानि है।

उपरोक्त दो हानियाँ ही इन भिक्षा व्यवसाइयों द्वारा हुई होती तो भी उनका भार उठाना कठिन था। पर बात यहीं तक सीमित नहीं रहती उनके द्वारा जो अन्य हानियाँ होती है वे इनसे भी अधिक भयानक और असह्य हैं। इन भिक्षुकों में से अधिकाँश ऐसे हैं जो न तो अपाहिज हैं और न लोक सेवा में दिन रात जुटे हुए ब्रह्मनिष्ठ महात्मा हैं। यह तो निट्ठले, कामचोर, अयोग्य और हरामखोर मात्र हैं। भिक्षा माँगने के दो ही कारण हैं- (1) आपत्तिग्रस्त होना (2) लोक सेवा का ठोस कार्य करना। इन दोनों में से एक भी बात जिनके पास नहीं उसे माँगने के लिए कुछ न कुछ बहाना चाहिए। बेकार दिमाग शैतान की दुकान कहा जाता है उसमें बहानेबाजी की बातें आसानी से सूझ जाती हैं। धर्म की आड लेकर ऐसे-ऐसे अन्धविश्वास, आडम्बर, मायाचार, रचते हैं जो उन्हें अधिक धन भले ही प्राप्त करा दें, पर जनसाधारण के लिए वे सब प्रकार अहितकर ही होते हैं।

मुफ्तखोरी एक भारी अभिशाप है। यह जहाँ निवास करती है वहाँ अनैतिकता का पूरा साम्राज्य छा जाता है। मुफ्त का पैसा नशेबाजी, व्यभिचार, आलस्य, प्रमाद, कलह, ईर्ष्या, द्वेष, संकीर्णता, छल, दंभ, निष्ठुरता, क्रूरता, मिथ्या, भाषण, धोखा, चोरी, जुआ आदि नाना प्रकार के दुर्गुणों की सृष्टि करता है, जो लोग मुफ्त का पैसा पाते हैं उनमें यह या ऐसे ही अन्य दुर्गुण अपने आप पैदा होने लगते हैं। दुर्गुण एक प्रकार से छूत के रोग हें जो एक से दूसरे को लगते है। एक सत्पुरुष के लिए दूसरों को सत्पुरुष बनाना कठिन है पर एक दुर्जन के लिए यह आसान है कि वह अपने दुर्गुणों को पड़ौस के अनेक आदमियों में फैला दे। यह भिखमंगे जहाँ भी रहते और आते जाते हैं वहीं छछूंदर की तरह दुर्गुणों की दुर्गन्ध बखेरते है वहीं अशान्ति, अनाचार और घृणा का वातावरण उत्पन्न करते हैं।

अधिक विचार करने से यह प्रकट हो जाता है कि समस्या असाधारण है। इधर अधिक समय तक उपेक्षा वृत्ति जारी रखने से भयंकर परिणाम उत्पन्न होने की संभावना है। (1) साठ लाख व्यक्तियों की शक्ति का निष्क्रिय पड़ा रहना, (2) मुफ्त भोजन पाने के कारण उन भिक्षुकों में नाना विधि उत्पन्न होने वाले दोष (3) उन दोषों की जनता में विस्तार (4) इतनी बड़ी पलटन के पालन पोषण का भारी खर्च (5) भिक्षुक अपनी उपयोगिता प्रकट करने के लिए जो नाना विधि पाखंड रचते हैं, उनसे बर्बादी (6) इन सब खुराफातों से उत्पन्न होने वाला, जातीय अनर्थ। इस प्रकार के और भी अन्य अनेक अनर्थ हैं जो भिक्षा व्यवसाय के सामूहिक विकास के कारण उत्पन्न होते हैं।

प्राचीन समय में ऋषि, मुनि, ब्राह्मण,त्यागी, तपस्वी, संन्यासी, भिक्षा माँगने थे। वे इसलिये माँगते थे, कि उन्हें माँगने का अधिकार था। उनका जीवन अपनी निज की सम्पत्ति नहीं रहता था, वे लोकसेवा में अपना सारा समय लगाते थे। ऋषियों के एक-एक आश्रम में हजारों छात्र शिक्षा पाते थे। चिकित्सा संबंधी अनेकानेक अनुसंधान होते थे, दुर्लभ औषधियों की खोज और निर्माण व्यवस्था जारी रहती थी। धर्म, राजनीति स्वास्थ्य, शिक्षा, साहित्य, न्याय, अर्थ, आदि विविध विषयों पर गंभीर मनन होते थे और महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे जाते थे। शास्त्र विद्या से लेकर शिल्प विद्या तक की वैज्ञानिक शिक्षा उन आश्रमों से प्रादुर्भूत होती थी। खगोल विद्या, भूगर्भ विद्या, आदि अनेकानेक विद्याओं की महत्वपूर्ण प्रयोगशालाएँ वहाँ रहती थीं। इतने महानतम राष्ट्रोपयोगी कार्य करते हुये भी वे ऋषि सर्वथा निस्पृह, त्यागी थे। ऐसे महाभाग तपस्वी अपनी शरीर रक्षा के लिए और अपने वैज्ञानिक कार्यों के लिए भिक्षा माँगने के अधिकारी थे। उनको श्रद्धा से नत मस्तक होकर लोग दान देते थे। जिनकी कमाई अपवित्र होती थी उनकी भिक्षा लेने से वे लोग इनकार कर देते थे। आज ऐसे भिक्षुक कहाँ है?

अपाहिज, अनाथ, असमर्थ एवं आपत्तिग्रस्त व्यक्ति भिक्षा के अधिकारी हैं। और जो लोक सेवा में अपने जीवन को सर्वतोभावेन लगाये हुए हैं, उन्हें भी भिक्षा पर निर्भर रहने का अधिकार है। इसके अतिरिक्त ऐसे भिक्षुक जो भिक्षा को एक पेशा बनाये हुए हैं, हाथ पाँव से स्वस्थ रहते हुए भी अकारण भीख माँगते हैं, वे अवाँछनीय हैं। ऐसे लोगों को दिया हुआ दान, एक प्रकार से अनीति की वृद्धि को महत्व देना है, इसलिए किसी भिक्षुक को दान देने से पूर्व यह विचार कर लेना आवश्यक है कि दान का दुरुपयोग तो न होगा?

एक समय था जब भिक्षु संस्था परम पुनीत श्रद्धा, सम्मान और अत्यन्त गौरव की चीज थी। भिक्षुकों को द्वार पर देख कर गृहस्थ अपने सौभाग्य पर नाचने लगता था। बलि, हरिश्चन्द्र, दशरथ, कर्ण, मोरध्वज जैसे अनेकों ने भिक्षुकों के हाथ पसारते ही उनके मन चाही चीजें दे डाली थीं पर आज तो यह भिक्षा-वृत्ति एक अभिशाप के रूप में हमारे सामने खड़ी है। और यह सोचने के लिए विवश कर रही है कि इस सामाजिक क्लेश से अपनी जाति का पिण्ड कैसे छुड़ाया जा सकता है।


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