साधना मेरी नहीं,
मैं ही तुम्हारी साधना हूँ।
क्यों पहुंच पाऊँ न तुम तक ,
आप ही की आराधना हूँ॥
इस जगत के किस सरल ने था विरल का गान गाया,
क्यों न अपना प्राणधन उन्मत्त हो उर में बसायों,
कामना मैं क्या करूं,
मैं ही निरन्तर कामना हूँ।
जग प्रफुल्लित हो उठा, जागी कमी यदि भावनायें,
मन मयूर प्रमत्त होकर देखता नव कल्पनायें,
जागती विर भवानी,
मैं ही अकल्पित कल्पना हूँ ।
अजर हो तुम अमर हो प्रिय, किन्तु मै प्रतिफल बदलती
रीझती, खिझती, उलझती, रूठती, हँसती , मचलती,
एक तुम मेरे रहो, मैं ही अनेकों जन्मना हूँ।
साधना मेरी नहीं, मैं ही तुम्हारी साधना हूँ॥
(श्री तोरन देवी शुक्ल ‘लली’)