सच्चा-सुख कहाँ है?

May 1951

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(श्री प्रभुदत्त जी ब्रह्मचारी)

यदि हमें खाने पीने की सभी सामग्रियाँ मिल जाती हैं, चढ़ने को सवारी, रहने को मकान और देखने को सिनेमा नाटक मिल जाते है, तब हम भगवत् चर्चा के चक्कर में क्यों पड़ें? इसका उत्तर हमें स्वयं ही सोचना चाहिये। यदि खाना-पीना, इन्द्रियों का सुख भोगना ही जीवन का उद्देश्य होता इतने से ही शांति मिल जाती तो लोग इतना प्रयास क्यों करते? जिनके पास खाने-पीने की सभी सामग्रियाँ है, रहने को कोठी चढ़ने को मोटर और खर्च करने के लिये रुपये हैं, वे भी एकदम सुखी नहीं वे भी शान्ति के साथ बैठ नहीं सकते। संसार में बहुत से लखपती हैं, करोड़पति भी है क्या वे सभी सुखी है? क्या उन्हें आन्तरिक शान्ति है? क्या वे कुछ भी काम नहीं करते है? उन्हें हमारी तरह दुख नहीं होता है? वे भी हमारी तरह चिन्तित रहते हैं, उन्हें भी बीमारी होती है, संबंधियों के मरने पर वो भी हमारी तरह रोते हैं। वे भी किसी तरह पेट भरते हैं। हम भी किसी तरह पेट भरते हैं। हमें अपने चार आने रोज की चिन्ता है उन्हें चार लाख की चिंता हैं बीमार होने पर उन्हें भी कष्ट होता है, हमें भी कष्ट होता है। हमारे चार आने गिर पड़ते है। हमें जितना दुःख होता है। उतना ही उन्हें हजारों का घाटा होने पर दुःख होता है। यही नहीं वे हम से भी अधिक चिन्तित है वे हम से भी अधिक अशान्त हैं। वे हम से भी अधिक दुखी हैं।

इससे यही सिद्ध हुआ कि बहुत धन से बहुत से इन्द्रियों के भोगों से सुख नहीं मिलता। अधिक सामग्रियों की बहुलता से शान्ति नहीं मिलती। राजा ययाति बूढ़े हो गये थे शुक्राचार्य जी के वरदान से उन्होंने अपने पुत्र से जवानी लेकर एक हजार वर्ष फिर संसार भोगों को भोगा। पूरे एक हजार वर्ष सुख भोगने पर उन्होंने अत्यन्त ही दुख के साथ कहा था-

न जातु कोमः कामानामुपभोगेन शाम्यति

हविष कृष्ण वर्त्मव भूय एवाभिवर्धते॥

“इन्द्रियों के सुखों के उपभोग से उनकी शान्ति नहीं होती। यही नहीं, बल्कि भोगो से तो वासना और बढ़ती ही जाती है। जैसे जलती हुई अग्नि में उसे शान्त करने के लिये घी डाले तो वह और भी बढ़ती है।”

बात यह है कि जितना ही सामग्री बढ़ती जाती है उतनी ही वासना भी बढ़ती जाती है। जो हजार पति है वह लखपति होना चाहता है। जो लखपति है वह करोड़पति होना चाहता है और करोड़पति, अरबपति बनने की इच्छा करता है। संसारी वैभवों से आज तक कोई भी तृप्त नहीं हुआ। तीनों लोकों के स्वामी इन्द्र भी जब किसी को तपस्या करते देखते है,तो वे भी चिन्तित हो जाते हैं। कि ये हमारे पद को छीन न ले एक भी कोई आदमी आज तक ऐसा नहीं हुआ जिसने इन विषय भोगों से शान्ति लाभ किया हो इसीलिये महाराज ययाति ने कहा है-

यतपृथिव्याँ ब्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।

न दुह्यान्ति मनः प्रीति इति मत्वा शमे व्रजेत्॥

पृथ्वी भर में जितने अन्न हैं, सुवर्ण आदि धातुएँ है, जितने पशु हैं, जितनी स्त्रियाँ हैं ये सब किसी एक ही आदमी को दे दिये जायं तो ये संसार भर की सभी सामग्रियाँ एक ही आदमी को तृप्त नहीं कर सकती। एक भी आदमी के मन को शान्ति प्रदान नहीं कर सकती । जब ऐसी बात है तो हमें इन से हट कर भगवान शरण में जाना चाहिये ।

धन वैभव की तृष्णा उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती है। गरीब समझता है, लखपति सुखी है, लखपति समझता है कि करोड़पति आनन्द में है, किन्तु वास्तव में सुखी कोई नहीं हैं। मैंने एक कहानी पढ़ी थी।

एक भिखारी किसी किसान के घर भीख माँगने गया, किसान की स्त्री घर में थी उसने चने की रोटी बना रखी थी किसान आया उसने अपने बच्चों का मुख चूमा, स्त्री ने उनके हाथ पैर धुलाये । वह रोटी खाने बैठ गया। स्त्री ने एक मुट्ठी चना भिखारी को डाल दिया। भिखारी चना लेकर चल दिया। रास्ते में वह सोचने लगा “हमारा भी कोई जीवन है? दिन भर कुत्ते की तरह माँगते फिरते हैं? फिर स्वयं बनाना पड़ता है। इस किसान को देखो कैसा सुन्दर घर है। घर में स्त्री हैं, बच्चे हैं। अपने आप पैदा करता है, बच्चों के साथ प्रेम से भोजन करता है वास्तव में सुखी तो यह किसान है।

वह किसान रोटी खाते खाते अपनी स्त्री से कहने लगा- “नीला बैल बहुत बुड्ढा हो गया है, अब वह किसी तरह काम नहीं देता यदि 50) का इन्तजाम हो जाय तो इस साल काम चले। साधोराम महाजन के पास जाऊँगा। वह ब्याज पर 50) दे देगा।” भोजन करके वह साधोराम महाजन के पास गया। बहुत देर चिरौरी बिनती करने पर 1) सैकड़ा सूद पर साधों ने 50) देना स्वीकार किया। एक लोहे की तिजोरी में से साधोराम ने एक थैली निकाली और गिन कर 50) किसान को दिये। रुपये लेकर किसान अपने घर को चला। वह रास्ते में सोचने लगा-”हम भी कोई आदमी हैं। घर में 5)भी नकद नहीं। कितनी चिरौरी विनती करने पर उसने रुपये दिये। साधो कितना धनी है। उस पर सैकड़ों रुपये है। “वास्तव में सुखी तो यह साधोराम ही है।

साधोराम छोटी सी दुकान करता था। यह एक बड़ी दुकान से कपड़े ले आता था दूसरे दिन साधोराम कपड़े लेने गया वहाँ सेठ पृथ्वीचन्द की दुकान से कपड़ा लिया। वह वहाँ बैठा ही था, कि इतनी देर में कई तार आए कोई बम्बई का था कोई कलकत्ते का। किसी में लिखा था 5 लाख मुनाफा हुआ। किसी में एक लाख का। साधो महाजन यह सब देखता रहा। कपड़ा लेकर वह चला। रास्ते में सोचने लगा “हम भी कोई आदमी हैं, सौ दो सौ जुड़ गये महाजन कहलाने लगे। पृथ्वीचन्द कैसे हैं। एक दिन में लाखों का फायदा। “वास्तव में सुखी तो यह है।”

पृथ्वीचन्द बैठे थे कि इतने ही में तार आया कि 5 लाख का घाटा हुआ। वे बड़ी चिन्ता में थे कि नौकर ने कहा- “आज लाट साहब की रायबहादुर सेठ के यहाँ दावत है आपको जाना है मोटर तैयार है।” पृथ्वीचन्द मोटर पर चढ़ कर रायबहादुर की कोठी पर गया। वहाँ सोने चाँदी की कुर्सियाँ पड़ी थी रायबहादुर जी से कलक्टर कमिश्नर हाथ मिला रहे थे, बड़े-बड़े सेठ खड़े थे, वहाँ पृथ्वीचन्द सेठ को कौन पूछता वे भी एक कुर्सी पर जाकर बैठ गये। लाट साहब आये। रायबहादुर से हाथ मिलाया, उनके साथ चाय पी और चले गये। पृथ्वी अपनी मोटर में लौट रहें थे रास्ते में सोचते आते थे। हम भी कोई सेठ है-5 लाख के घाटे से ही घबड़ा गये। रायबहादुर का कैसा ठाठ है लाट साहब उनसे हाथ मिलाते हैं “वास्तव में सुखी तो ये ही है।” लाट साहब के चले जाने पर रायबहदुर के सिर में दर्द हो गया, बड़े-बड़े डॉक्टर आये एक कमरे वे पड़े थे। कई तार घाटे के एक साथ आ गये थे, उनकी भी चिन्ता थी, कारोबार की भी बात याद आ गई, वे चिन्ता में पड़े थे, खिड़की से उन्होंने झाँक कर देखा एक मोटा ताजा भिखारी नंगे बदन एक डंडा लिये जा रहा था रायबहदुर ने उसे देखा और बोले-”वास्तव में तो सुखी यही है, इसे न तो घाटे की चिन्ता न मुनाफे की फिक्र। इसे लाट साहब को पार्टी भी नहीं देनी पड़ती सुखी तो यही है।”

इसका कहने का मतलब इतना ही है, कि हम एक दूसरे को सुखी समझते हैं। वास्तव में सुखी कौन है इसे तो वही जानता है। जिसे आन्तरिक शान्ति है। एक विरक्त साधु ने एक राजा से कहा था- “महाराजा आप इतने बड़े राज के स्वामी है और मैं अपने फटे कपड़ों का स्वामी हूँ। अतः हम दोनों ही के पास स्वामित्व तो है ही अब हम में दरिद्र वही है, जिनकी तृष्णा बढ़ी हुई हो मैं तो इन फटे कपड़ों ही से सन्तुष्ट हूँ तुम इतने बड़े राज्य से भी संतुष्ट नहीं। इस लिए संतुष्टि राज्य वैभव में नहीं वह तो मन का धर्म है। मन सन्तुष्ट हुआ तो फिर चाहे लाख रुपये या एक पैसा भी न हो दोनों ही हालत में आनन्द है। इसलिये हम जो रुपये पैसे में आनन्द खोजते है। यह हमारी भूल है।

जीवन का उद्देश्य रुपये पैसे पैदा करना नहीं है। तेली के बैल की तरह दिन रात्रि रुपये पैसे पैदा करने में ही लगे रहना यही जीवन का चरम लक्ष्य नहीं है। जिनके लिये तुम इतना परिश्रम कर रहे हो ये चीजें तो सूकर कुकर योनि में भी प्राप्त हैं। अमीरों के कुत्ते भी मोटरों में चलते हैं। दूध जलेबी खाते हैं, अपनी कूकरी के साथ वे सुखोपभोग भी करते है, किन्तु उन्हें सच्चा सुख नहीं प्राप्त हो सकता। सच्चा सुख तो भगवान की प्राप्ति में ही है। ये संसारी सुख तो इच्छा न करने पर भी मिल जायेंगे। क्योंकि यह तो प्रारब्ध के ऊपर हैं। आप अपने परिश्रम से पेट पाल सकते हैं लखपति करोड़पति होना यह तो प्रारब्ध का खेल है। जैसे कोई भी दुख की इच्छा नहीं करता। कौन चाहता है कि हम बीमार हों, हमारे घर वालों की मृत्यु हो, व्यापारी कब चाहता है हमें घाटा हो, किन्तु न चाहने पर भी रोग, शोक, घाटा आदि होते ही हैं। न चाहने पर ये चीजें जिस प्रकार प्रारब्ध के अनुसार मिलती हैं, उसी प्रकार संसारी भोग भी आपको मिलेंगे उन्हीं की प्राप्ति के लिये दिन रात्रि लगे रहना इसे पुरुषार्थ नहीं कहते अरे, पुरुषार्थ तो यह है कि इस नश्वर शरीर से शाश्वत भगवान् को प्राप्त कर ले। इस विनाशी शरीर से अविनाशी भगवान की प्राप्ति हो।


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