जीवन की महानता की कसौटी।

March 1951

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(ले॰ श्री अगरचन्दजी नाहटा)

प्रत्येक धर्म में जीवन को बहुत दुर्लभ व अनमोल बताया है। विचार करने पर उसका रहस्य समझ में भली भाँति आ जाता है। इतर प्राणियों से मानव की एक विशेषता है-विचारकता। और इसका फल है भोग से त्याग की ओर अधिकाधिक अग्रसर होना। इस सिद्धान्त से हमें मानव जीवन की महानता का मापक मन्त्र मिल जाता है। विवेक पूर्वक जिसके जीवन में जितना अधिक त्याग है, उसका जीवन उतना ही आदर्श व महान है।

शास्त्रों में देवों से भी अधिक मानव जीवन को उच्च बताया है। क्योंकि देवों का जीवन भोग प्रधान है। वे शुभ प्रवृत्तियाँ तो कर सकते हैं, पर इच्छा व विवेक पूर्वक त्याग नहीं कर सकते। इसलिए उन्हें अविरसि (त्याग रहित) की संज्ञा दी गई है। जगत के समस्त प्राणियों में मानव ही एक ऐसा प्राणी है जो जीवन का चरमोत्कर्ष मोक्ष प्राप्त कर सकता है। मानव के सिवाय कोई भी प्राणी मोक्ष-मुक्ति का अधिकारी नहीं। मुक्त शब्द स्वयं ही हमें त्याग की महत्ता इंगित करता नजर आता है।

मुक्ति किससे? बन्धन से! बन्धन का त्याग ही तो मोक्ष है और बन्धन भोग के द्वारा होता है। अतः जितने-जितने अंश में हम त्याग को अपनाते हैं उतने-उतने अंश में हम मोक्ष के समीप पहुँचते हैं। और भोग के द्वारा बन्धन को बढ़ा कर संसार में परिभ्रमण करते हैं। मानवेत्तर समस्त प्राणियों के जीवन पर दृष्टिपात करने पर वे निरन्तर भोग के पंक में ही फँसे हुए नजर आते हैं। अतः उनकी भव परम्परा समाप्त नहीं होती। विचारक मानव मस्तिष्क ने बन्धन एवं मोक्ष के कारण की मीमाँसा की, तो उसे जीवन धारा बहिर्मुखी प्रवाहित होती हुई नजर आई। अतः उसके धारा-प्रवाह के बदलने की आवश्यकता प्रतीत हुई। और वह भोग के दल-दल से हट कर अंतर्मुखी बना, पर पुदगलों के भोग से वृत्ति हटाकर त्यागी बना।

जैन धर्म के मान्य तीर्थंकरों व ऋषियों के जीवन एवं उपदेशों पर नजर डालते ही हमें इस दर्शन की निवृत्ति प्रधानता का पता चल जाता है। समस्त तीर्थंकरों ने त्याग धर्म को अपनाया। कुटुम्ब, परिवार, धन-माल, राज्य वैभव, सत्ता, ऐश आराम को छोड़ कर वे अंगार संन्यासी बने, गृह हीन बने। जीवन में अनेक भावों के परिपोषित आशक्ति के तन्तुओं पर उन्होंने विजय पाई। यावत् शरीर पर की ममता को भी त्याग भोगों पर पूर्ण विजय प्राप्त हो गई तो उन्हें आत्मदर्शन रूप केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। और उन्होंने अपने अनुभूति के बल पर प्राणियों को आत्म दर्शन का रास्ता बतलाया।

हजारों व्यक्तियों ने पूर्णतः एवं अंशतः योग्यतानुसार त्याग को स्वीकार किया। सर्व विरति धारक सर्वस्व त्यागी को साधु, एवं देश विरति धारक अंशतः त्यागी को श्रावक या महात्मा कहा जाता है। इनमें जिनका त्याग जितना अधिक उसका दर्जा उतना ही उच्च माना जाता है, मूलतः त्याग में पौद्गलिक आसक्ति का त्याग ही प्रधान है। पर हमारी आसक्ति विविध प्रकार की है। अतः उनके अनेक भेद किये जा सकते हैं। धनादि परिग्रह आशक्ति का प्रधान करण है। अतः गृहस्थों के लिए उससे स्वामित्व हटाने रूप दान धर्म को भी त्याग का एक प्रकार माना गया है। “ज्ञान का सार विरति” बतलाया गया है। जो चरित्र (व्रत ग्रहण) एवं तप (देहादि आसक्ति का त्याग) रूप है। जैन दर्शन में इन सब गुणों को आत्म धर्म माना है। अतः त्याग हमारा सहज धर्म हो जाना चाहिए। प्रति समय हम त्याग की ओर अग्रसर होते रहें, यही प्रत्येक मानव को परम धर्म है। मनुष्य जन्मतः शरीर के सिवाय कुछ लाया न था। पीछे से अनेक वस्तुओं पर अपना पूरा-ममत्व आरोपित किया उसी से बन्धन बढ़ते गये जो त्याज्य, हैं।

त्याग के महत्व को जान लेने के बाद, वह किसका व कैसे किया जाय, यह प्रश्न रह जाता है। अतः संक्षेप में उसका भी यहाँ विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है।

हमारे प्राचीन महर्षियों ने हमारे दुःख के मूल कारणों पर गम्भीरता से विचार किया और वे इसी नतीजे पर पहुँचे कि बाहरी वस्तुओं को हमने सुख का साधन माना है वास्तव में वही हमारी सबसे बड़ी भूल है। सुख का स्रोत भीतर है, बाहर नहीं। अतः बाह्य पदार्थों पर सुख की कल्पना अज्ञानतावश हुई है। अनन्तकाल से हमने बाहरी साधनों को इकट्ठा किया व भोगों पर उससे तृप्ति नहीं मिली, शान्ति प्राप्त नहीं हुई। अतः वह रास्ता सही न था वह दीपक की भाँति अनुभव से स्पष्ट हो जाता है। जितने ही पाप, चाहें वे विचार कथन व वर्तन किसी भी प्रकार के हो, सारे भोग के कारण ही होते हैं।

हम हिंसा, मिथ्या भाषण, चोरी, अत्याचार करते हैं, सब भोग के लिए, ऐहिक स्वार्थ के लिए क्रोध, मान, माया, लोभ, कलह इत्यादि करते हैं इन सबके पीछे हमारी अहंकार शक्ति ही कार्य कर रही है। अतः त्याग योग्य इन दुर्गुणों व दुर्वासनाओं का हमें सहज पता चल जाता है। संक्षेप में हिंसा, असत्य, चोरी, आलस्य, वाचालता, कुसंस्कार व व्यसन, यश−कामना, अहंभाव, विषय, कषाय दुर्भावना आदि जिन-जिन भावों एवं कार्य को दुर्गुण व पाप माना जाता है, वे भी त्याग हैं और उनका त्याग ही धर्म हैं।

अन्तः निरीक्षण द्वारा हमें देखना है कि हमारा मन, वचन, काया की प्रवृत्ति में कहाँ-कहाँ क्या खराबी है? हममें कौन-कौन से बुरे विचार पैदा हुए? वचन का दुरुपयोग कहाँ-कहाँ किया गया। शारीरिक क्रिया से हिंसादि कौन से असद् कार्य हो गये? सूक्ष्म प्रज्ञा से हमें अपने दुर्गुणों को व दोषों को खोलना है, और यथाशक्य उनके त्याग करने में जुट जाना है। बाधक कारणों का त्याग व साधक कारणों को ग्रहण करके जीवन का सदुपयोग कर लेना है। स्वार्थ को छोड़ परमार्थ व सेवा में लग जाना है।

अब त्याग कैसे करें, उसका भी मार्ग बतलाया जाता है। सबसे पहले हमें निरर्थक पाप प्रवृत्तियों से हटना है, फिर आवश्यकताओं को कम करते जाना है। क्रमशः बाह्य पदार्थों के त्याग के साथ साथ आन्तरिक दोषों पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना होगा। आसक्ति के बाद क्रमशः इच्छा व अहंभाव का त्याग कर देना है। इस प्रकार त्याग को बढ़ाते ही चले जाना है।

साधारण व्यक्तियों का कहना है कि त्याग बहुत कठिन व कष्टप्रद है। पर वास्तव में जिसने त्याग के आनन्द का अनुभव नहीं किया, वे ही ऐसा कहा करते हैं। अन्यथा त्याग तो शान्ति, सुख व आनन्द का ही मार्ग है। जितनी बाह्य उपाधि बढ़ती है, आकुलता बढ़ती जाती है, अतः हम भारी बनते जाते हैं। जितना त्याग बढ़ता है, बोझ कम हो जाने से हलकेपन का व शान्ति का अनुभव होता है। इसीलिए चक्रवर्ती से भी मुनि एवं योगी को अधिक सुखी बताया गया है।

बाह्य दृष्टि से देखते हैं तो भी त्यागी के चरणों में भोगी झुकते हैं। भोगी त्यागी की महानता व अपनी दीनता का अनुभव करते हैं। त्यागी निस्पृह होते हैं, उन्हें भोगी से कुछ लेना नहीं होता। अतः स्वरूप में मस्त रहते हैं। जिन्होंने त्याग का वास्तविक अनुभव किया है उनके सामने भोग के साधन अनायास उपस्थित होते रहते हैं, पर उनकी ओर उनकी रुचि ही नहीं होती। त्याग हमें कठिन लगता है क्योंकि अनादिकाल के भोग के संस्कार हमें चक्कर में डाले हुए हैं।

कष्ट तो भोगों में भी अनेक उठाने पड़ते हैं, पर उनकी ओर हम दुर्लभ कर लेते हैं। सच्चे त्यागी को तो बाह्य कष्ट में आनन्द का ही अनुभव होता है, क्योंकि वे उसे कष्ट रूप अनुभव नहीं करते। मानसिक दुर्वासनाओं पर वे विजय प्राप्त कर लेते हैं। देह से भिन्न आत्मा के शुद्धावस्था की प्रतीति हो जाय तब कष्ट प्रतीत ही नहीं। कष्ट तो शारीरिक होते हैं, आत्मा को इससे अलग मानने पर त्यागी को दुःख कैसा? संक्षेप में पर भाव का त्याग कर स्व-स्वरूप में स्थित हो जाना ही मानव जीवन का पूर्ण साफल्य है।

हम अपने जीवन में त्याग को समुचित स्थान देकर बढ़ते चले जाना है, आखिर बाह्य वस्तुओं को त्याग करके जाना ही होगा पर बिना इच्छा के जबरन त्याग करना पड़ा उसमें कष्ट ही होगा। स्वयं इच्छापूर्वक जागृत विवेक से त्याग करेंगे तो शक्ति प्राप्त होगी। भोग में रहते हुए भी हमारा लक्ष्य त्याग की ओर होनी चाहिए। वर्णाश्रम धर्म में गृहस्थाश्रम के बाद वानप्रस्थ में स्वार्थ का त्याग होता है सेवामय जीवन की साधना होती है और अन्त में संन्यास आश्रम में पूर्णतः त्याग को स्थान दिया गया है। अतः आसक्ति रहित सेवा करना एवं त्यागमय जीवन का आदर्श कभी नहीं भूलना चाहिए। शान्ति का एकमात्र उपाय-विवेक पूर्वक त्याग ही है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118