गायत्री शब्द का अर्थ

March 1951

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

ऐतरेय ब्राह्मण में गायत्री शब्द का अर्थ करते हुए कहा गया है-

गयान् प्राणान् त्रायते सा गायत्री।

अर्थात्-जो -’गय’ (प्राणों की) रक्षा करती है वह गायत्री है।

प्राण कहते हैं चैतन्यता एवं सजीवता को। हमारे भीतर जो गति, क्रिया, विचारशक्ति, विवेक एवं जीवन धारण करने वाला तत्व है प्राण कहलाता है। इस प्राण के कारण ही हम जीवित हैं, जब प्राण निकल गया तो जीवन का अन्त ही समझिए। प्राण होने के कारण ही जीव को प्राणी कहते है। बिना प्राण का पदार्थ तो जड़ होता है।

जब प्राण शक्ति निर्बल पड़ जाती है तो प्राण का बाहरी ढाँचा साधारण दिखाई पड़ते हुए भी वह भीतर ही भीतर खोखला हो जाता है। साहस श्रमशक्ति, आशा, उत्साह, दृढ़ता, कष्ट, सहिष्णुता निर्भयता, तेजस्विता, यह सब प्राणशक्ति की परिपूर्णता के चिन्ह हैं। जिसमें यह शक्ति न्यून या निर्बल पड़ जाती है वह निराश, निस्तेज, भयभीत आलसी, थका हुआ सा, स्वार्थी, मन्द बुद्धि, एवं चिन्तित रहता है। ऐसे मन्द प्राण या न्यून प्राण व्यक्ति एक प्रकार से अर्ध मृतक होते हैं। उनका जीवन कीट पतंगों के जीवन से किसी प्रकार उत्तम नहीं कहा जा सकता।

जीवन का सार प्राण है। क्योंकि सभी प्रकार की शक्तियाँ प्राण तत्व की अनुगामिनी होती हैं, जो निष्प्राण है, न्यून प्राण है, उसका वैभव धन, विद्या, पद आदि उसे कुछ विशेष आनन्द नहीं दे सकता। जिसका प्राण जितना ही सबल है, अधिक है, सुरक्षित है वह उतना ही पुरुषार्थी एवं शक्तिशाली होगा और उद्योग से वह सब चीजें प्राप्त कर लेगा जिनके द्वारा आन्तरिक और बाह्य सुख शाँति को प्राप्त किया जा सकता है।

यह प्राण परमात्मा ने हमें प्रचुर मात्रा में दिया है। पर लोग उसे दुर्बुद्धि के कारण कुमार्ग में खर्च कर देते हैं और फिर छूँछ बन कर दीन-हीन की तरह से जीवन पर रोते गिड़गिड़ाते रहते हैं। जिसमें सद्बुद्धि है वह अपने प्राण की रक्षा कर लेता है, शक्तियों का संचय करता है और उन्हें सन्मार्ग में संयमपूर्वक व्यय करता है फलस्वरूप वह तेजस्वी, दीर्घजीवी, बलिष्ठ, सुसम्पन्न एवं प्रति भावना जीवन का अधिकारी बन जाती है। सद्बुद्धि से ही प्राण की रक्षा हो सकती है। इसलिए सद्बुद्धि, ऋतम्भरा प्रज्ञा, धी, सरस्वती आदि नामों से पुकारी जाने वाली गायत्री को प्राणरक्षक कहा गया है।

भारद्वाज ऋषि कहते हैं-

प्राण गया इतिप्रोक्ता स्रायते तानथापिवा।

अर्थात्-गय, प्राणों को कहते हैं। जो प्राणों की रक्षा करती है वह गायत्री है।

वृहदारायक 5।144 में लिखा है-

तद्या त्प्राणंत्रायते तस्माद गायत्री।

अर्थात्-जिससे प्राणी की रक्षा होती है वह गायत्री है।

शंकराचार्य ने गायत्री भाष्य में लिखा है-

“गयान् त्रायते-गायत्री” अर्थात्-गायत्री प्राणों की रक्षा करती है। उन्होंने यह भी लिखा है कि “गीयते तत्व मनया गायत्रीति” अर्थात-जिससे तत्व (ब्रह्म) को जाना जाय वह (सद्बुद्धि ही) गायत्री है।

वशिष्ठ जी ने गायत्री की स्तुति की है-

गायतस्त्रायते देवि, तद् गायत्रीति गद्यसे।

गयःप्राण इति प्रोक्ततस्य त्राणादपीति वा॥

अर्थात् हे देवि! तुम उपासक की रक्षा करती हो इसलिए तुम्हारा नाम गायत्री है। गय नाम प्राणों की रक्षा करने से आपका नाम गायत्री हुआ है।

अग्नि पुराण 216-1, 2 में लिखा है-

गयाच्छिष्यान यतस्रयेत्कायं प्राणास्त्थैवच।

ततः स्मृतेयं गायत्री सावित्रीयं ततो यतः॥

प्रकाशनात्या सवितुर्वाग् रुपत्वात्सरस्वती।

अर्थात्-शरीर और प्राणों की रक्षा करने के कारण गायत्री नाम हुआ और प्रकाश स्वरूप होने से सावित्री तथा वाणी रूप होने से सरस्वती कहलाई। (गायत्री को सावित्री तथा सरस्वती भी कहते हैं)।

याज्ञवल्क्य जी का कहना है-

गायत्री प्रोच्यते तस्याद गायन्ती त्रायते यतः

अर्थात्-उसे गायत्री इसलिए कहा जाता है कि वह प्राणों की रक्षा करती है।

गायत्री के शब्दों में छिपी हुई शिक्षाओं को हृदयंगम करने, उन पर चलने तथा वेदमाता की उपासना करने वाला प्रत्येक व्यक्ति निश्चित रूप से प्राणवान बनता है और संसार के सब सुख सौभाग्यों को प्राप्त करता है क्योंकि वे प्राण वालों के लिए ही बनाये गये हैं। प्राणशक्ति प्रेरणा स्फूर्ति, साहस, शौर्य, पराक्रम एवं पुरुषार्थ की जननी है। जो गायत्री द्वारा अपनी प्राणशक्ति बढ़ाता है, अपने प्राण की रक्षा करता है, वह सफल एवं आनन्दमय जीवन का उपभोग करता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118