हमारी अभिलाषाएँ पूरी क्यों नहीं होती?

March 1951

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(पं. गोकुल प्रसाद भट्ट, सम्भलपुर)

बहुत से मनुष्य कहा करते हैं, कल्पना जगत में ही विचरण करते रहने से-इस प्रकार के स्वप्नों में रहने से-हम वास्तव में कुछ नहीं कर सकते। केवल मन के लड्डू ही हम खाते रहेंगे। किन्तु यह भ्रम है। कहने का आशय यह है कि हम सदैव कल्पना-जगत में ही विचरण करते रहें और विचार ही विचार में रह जायें और मन के लड्डू में ही सन्तुष्ट रहें। कहने का आशय यह है कि किसी काम को करने के पहले उस काम को करने की दृढ़ इच्छा मन में उत्पन्न होने दें और तब सारी शक्तियों को उस ओर झुका देंगे जिससे आपको अधिकाधिक सफलता प्राप्त हो। मन के विचार को मन में ही गाढ़ कर न रखें वरन् उसे व्यवहार रूप में लाना आवश्यक है। हम यह भी अवश्य कहेंगे कि ये शक्तियाँ बड़ी ही कार्य कुशल है-पवित्र है। ईश्वर ने दैवी उद्देश्य सिद्ध के लिए हमें ये शक्तियाँ दी हैं, जिससे हम सत्य की झलक देख सकें। इन्हीं की बदौलत हम उस समय भी अपने आदर्श पर कायम रह सकते हैं जब कि असुविधा पूर्ण एवं विपरीत परिस्थिति में कार्य करने को बाध्य किए गये हों।

हवाई किले बनाना सर्वथा निःसार नहीं है। हम पहले मन में ही अपने कार्यों का सृजन करते हैं-अभिलाषा सूत्र में उनका नक्शा तैयार करते हैं और फिर कार्य रूप में उसकी बुनियाद डालते हैं। कारीगर मकान का नक्शा पहले मन से ही तैयार कर लेता है और मकान बनाता है। सुन्दर और भव्य मकान बनाने के पूर्व ही वह मनश्चक्षु से निर्मित इमारत देख लेता है।

इसी प्रकार हम जो कार्य करते हैं पहले उसकी सृष्टि हमारे मन में होती है और फिर वह स्थूल रूप धारण करता है। हमारी कल्पनाएँ हमारी इमारतों के नक्शे हैं। किन्तु यदि हम कल्पनाओं को सत्य करने के लिए जी-जान से प्रयत्न न करेंगे तो उनका नक्शा मात्र ही रह जावेगा। कारीगर यदि बैठा नक्शा बनाता रहे और मकान बनाने के साधनों को न जुटाए तो फिर उसका नक्शा बेकार ही रहेगा और उसके प्रयास नक्शे तक ही समाप्त हो जायेंगे।

सभी महान पुरुष, जिन्होंने संसार में महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त की है पहले अपनी इच्छित वस्तुओं को स्वप्न में ही देख सकते थे। जितनी स्पष्टता से, जितने आग्रह से, जिस उत्साह से उन्होंने अपने सुख स्वप्न की-आदर्श की सिद्धि में प्रयत्न किया उतनी सिद्धि या सफलता उन्हें प्राप्त हुई।

अपने आदर्श को कभी इसलिए न त्याग दें कि उसे व्यवहृत करने का प्रत्यक्ष साधन आपको नहीं दिखलायी पड़ता। आप अपनी समस्त शक्तियों का प्रवाह अपने आदर्श पर लगा कर उस पर दृढ़ता से जमे रहें। आप सदैव उसे प्रज्वलित रखें। कभी भी अन्धकारमय या मन्द उसे न होने दें। सदैव आप नूतन एवं आनन्दप्रद अभिलाषा में उत्पन्न वायुमण्डल में भ्रमण करते रहें। आप वही ग्रन्थ पढ़ें जो आपके आदर्श की ओर आपको प्रोत्साहन दें-उन्हीं व्यक्तियों के संपर्क में रहे जिन्होंने ऐसे कार्य किए हैं जो आप करना चाहते हैं और जिसे सफल बनाने के लिए आप जी-जान से प्रयत्नशील हैं।

रात में सोने के पूर्व शान्त से आप एकाग्रचित्त हो अपने आदर्श पर चिन्तन करें-विचारों में आदर्श का व्यवहारिक रूप देखें और सफलता के आनन्द में विभोर हो उठें। आप भयभीत न हों-क्योंकि जो अपने आदर्श की असफलता के स्वप्न देखा करता है उसका निश्चय ही पतन होता हैं। स्वप्न-शक्ति या विचार-शक्ति आपको इसलिए नहीं दी गयी है कि वह आशंकाएँ उत्पन्न करें। उसके पीछे सत्य छिपा हुआ है। यह एक ईश्वर प्रदत्त गुण है जो दैवी कोष से दैवी धन देता है और आप साधारण व्यक्तियों की श्रेणी से उठकर असाधारण पुरुषों की श्रेणी में रहने लगते हैं-दुर्व्यवस्था से वह आपको दिव्य आदर्शों में निमग्न कर देता है।

हम अपने हृदय के आनन्दमय भवन में आदर्श के जिस आभास को देखा करते हैं वह हमें असफलता और दुराशा के कारण हतोत्साह होने से रोकता है।

यहाँ स्वप्नों का तात्पर्य उन स्वप्नों से नहीं है जो तरंगों के समान क्षणिक हैं-वरन् तात्पर्य उस सच्ची एवं प्रकृत अभिलाषा-उस पवित्र आत्मिक आकाँक्षा से है जो हमें सदैव हृदय में इस विचार को बल देती रहती है कि हम अपने जीवन को दिव्य और महान बनाएँ, तथा जो हमें सदैव सावधान करती रहती है कि हम अवाँछनीय एवं दुर्व्यवस्था से उठकर उन आदर्शों को ग्रहण करें जिनकी कल्पना हम किया करते हैं।

हमारी प्रकृत अभिलाषा के पीछे ईश्वरत्व छिपा हुआ है।

दैवी और फलप्रद अभिलाषाओं के लिए हम यह नहीं कहते कि आप अपनी अभिलाषाओं को उन पदार्थों के लिये उपयोग करें जिनको आप चाहते तो हैं लेकिन जिनकी आवश्यकता आपको नहीं है। उन अभिलाषाओं की चर्चा यहाँ पर नहीं है जो मरुदेश के उस फल के समान है जो देखने में सुन्दर है किन्तु मुँह लगाते ही जिसकी जघन्यता प्रकट हो जाती है। हमारा आशय यहाँ पर उन प्रकृत अभिलाषाओं से है जो हमारे आदर्श की सिद्धि में सहायक होती है। मेरा आश्रय उन वास्तविक आकाँक्षाओं से है जो हमें पूर्ण बनाने में आत्म विकास करने में मदद करती हैं।

हमारी मानसिक प्रवृत्तियाँ-हमारी हार्दिक अभिलाषाएँ हमारी रोज की प्रार्थनाएँ हैं। इन प्रार्थनाओं को प्रकृत दैवी सुनती है और उनका यथोचित उत्तर देती है। वह इस बात को स्वीकार कर लेती है कि हम वही वस्तु चाहते हैं जिसकी सूचना हमारी अन्तरात्मा देती है और वह हमें उसकी प्राप्ति के लिए बल देती है। लोग यह बहुत कम समझते हैं कि हमारी नित्य की अभिलाषाएँ हमारी प्रार्थनाएँ हैं ये प्रार्थनाएँ नकली नहीं, बनावटी नहीं, किन्तु विमल हृदय से निकली हुई हैं-आत्मिक है और परमात्मा उनका सुफल हमें अवश्य देता है।

हम सभी इस बात को मानते और जानते हैं कि एक दिव्य पथ-प्रदर्शक हमारी आत्मा में आसीन है और वह सदैव हमारी रक्षा करता है, हमें उचित मार्ग दिखलाता है और हमारी आकाँक्षाओं का समाधान करता रहता है। जो व्यक्ति अपने मानसिक भाव को ठीक करके उत्साह एवं दृढ़ता से अपने लक्ष्य तक पहुँचना चाहती है वह अवश्य सफल होगा-पूर्णतया नहीं तो अंशतः अवश्य।

हमारी हार्दिक अभिलाषाएँ हमारे उत्पादक अर्न्तवल को जागृत करती हैं। वे हमारी शक्तियों को जोर देती रहती हैं हमारी योग्यता को बढ़ाती रहती हैं। प्रकृति देवी की ऐसी दुकान है कि वहाँ एक मूल्य निश्चित रहता है और मनुष्य वह मूल्य देकर प्रत्येक वस्तु खरीद सकता है। हमारे विचार उन जड़ों के समान हैं जो शक्ति रूपी अनन्त सागर में फैली हुई है और जिन्हें गति तथा स्पन्दन देने से वे हमारी आकाँक्षा एवं अभिलाषा का स्नेहाकर्षण कर देती है।

वनस्पति-संसार की प्रत्येक वस्तु क्या फल क्या फूल अपने निश्चित समय पर ही फूलते-फलते और पकते हैं। जब तक उन्हें पूर्ण रूप से फूलने-फलने का अवसर न मिले पतझड़ उन पर असर नहीं करता। बर्फ गिरने के पहले ही फल पक जाते हैं यही कारण है कि उनकी वृद्धि रुकती नहीं।


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