(श्री सर अकबर हैदरी)
आज संसार की आत्मा संकट में पड़ गयी है। मानव जाति साँस्कृतिक अथवा आध्यात्मिक दृष्टि से जिन बातों को महत्व देती आयी है, उन सब का अस्तित्व आज अधर में लटका हुआ है। प्रश्न यह है कि आज जैसी अराजकता हमारे बीच छाई हुई है, उससे संस्कृति के बचे रहने की क्या कुछ भी आशा है?
कोई राष्ट्र अपनी जनता में ज्ञान, विज्ञान तथा ललित-कलाओं का विकास भले ही कर ले, किन्तु यदि वह अपने साधारण दृष्टिकोण, अपनी विचारधारा और अपने दैनिक जीवन में ज्ञान, सत्य और सौंदर्य तथा जीवन के उच्च आदर्शों से प्रभावित होने के स्थान पर निम्न कोटि के व्यापारिक, धार्मिक तथा अन्य उद्देश्यों से प्रभावित होता है, तो साधारणतः उसे सभ्य भले ही कह लिया जाय, किन्तु वास्तविक अर्थ में उसे सुसंस्कृत नहीं कहा जा सकता।
श्री अरविन्द घोष ने संस्कृत तथा सुसंस्कृत मानव समाज की व्याख्या बड़े सारगर्भित शब्दों में की है। आपके शब्दों में उस व्यक्ति को संस्कृति के वास्तविक अर्थ में सुसंस्कृत कहा जा सकता है, “जो मन की इन्द्रिता (अस्थिर अवस्था) से ऊपर उठकर ज्ञान और विवेक को अपनाता है और जिसकी भावना जिज्ञासु के समान सदा ज्ञान की खोज में रहती है। सुसंस्कृत व्यक्ति के कर्म उसकी परिष्कृत अभिलाषा के परिणाम होते हैं और उन्हीं से चरित्र तथा अन्य नैतिक गुणों का निर्माण होता है। ऐसा व्यक्ति साधारण अथवा निम्नकोटि की मनोवृत्ति के वशीभूत होकर कार्य नहीं करता, बल्कि उसके कार्य सत्य और सौंदर्य के अभिमान तथा आत्मसंयम के आधार पर किये हुए संकल्प के परिणाम होते हैं।”
इस प्रकार सच्ची संस्कृति सत्यं, शिवं, सुन्दग्म् की खोज में एकनिष्ठ होकर लगा रहना है। इस कसौटी पर कसने पर हम आधुनिक सभ्यता को यूनान की प्राचीन संस्कृति या जागृत काल के इटली अथवा अशोक या विक्रमादित्य कालीन प्राचीन भारत अथवा अकबर और शाहजहाँ के मध्यकालीन भारत से भिन्न तर पाते हैं, क्योंकि आज संसार के सभ्य कहाने वाले राष्ट्रों ने अपनी बौद्धिक तथा वैज्ञानिक सफलताओं को अपने व्यापारिक उद्देश्यों, हृदय हीन अधार्मिकता तथा पशुबल बढ़ाने में उपयोग करने के सिवा और कुछ नहीं किया।
आज यूरोप का अधिकाँश मानव समाज जीवन का ध्येय अपनी शक्ति बढ़ाना ही समझता है। आधुनिकता का मतलब विज्ञान से ओत-प्रोत, कुत्सित और प्राणहीन जीवन है।
कला के सम्बन्ध में पूर्वीय और पश्चिमी दृष्टिकोण की विभिन्नता से भी इस विषय पर कम प्रकाश नहीं पड़ता। पूर्वीय कलाकार वस्तु के बाह्यरूप की अपेक्षा उसके अन्दर को सजाने में ही कला की सार्थकता समझता है। उसकी कला का उच्चतम ध्येय आत्मा अर्थात् मनुष्य के अन्तर की दैवीसत्ता का ज्ञान प्राप्त करना अथवा इस दैवीसत्ता और प्रकृति के परस्पर भेदों पर प्रकाश डालना है। पूर्वीय कलाकार आत्मा को इसकी अभिव्यक्ति द्वारा, असीम दैवी सत्ता को इसके सीमा प्रतिरूपों तथा सांसारिक उपकरणों द्वारा और ब्रह्म को इसकी अपरिमित तथा अपरिमेय शक्ति द्वारा समझता है।
अक्सर कहा जाता है, कि भारतीयों की आध्यात्मिकता ही उनके साँसारिक जीवन की असफलताओं तथा विदेशियों की अधीनता में पड़ने का कारण है। परन्तु दर्शन और साहित्य में भारत की महानता, चित्रकला तथा मूर्ति और गृह-निर्माण कलाओं में उसकी सफलता और उसके इतिहास में, महान साम्राज्यों का उत्थान तथा पतन-इन सबसे यही प्रकट होता है, कि भारतीय जनता संकल्प करने तथा शक्ति का प्रदर्शन करने में किसी से पीछे नहीं रही है।
भारत में राजनीतिक एकता न रहने का कारण देश की विशालता तथा यातायात के साधनों की कमी थी। यही कारण था, कि विदेशियों ने उस पर विजय पायी, यद्यपि विजयी होने के पूर्व उन्हें लम्बी और कठिन लड़ाइयां लड़नी पड़ती थीं। अब यातायात के आधुनिक साधनों का विकास होने के कारण देश के राजनीतिक जीवन में एकता आने लगी है। यदि बौद्धिक दृष्टि से भी भारत स्वाधीन हो जाय और अपनी आध्यात्मिक संस्कृति को पुनः प्राप्त कर ले, जैसा कि उसके करने का मुझे पूर्ण विश्वास है, तो वह मानव जाति के उत्थान के लिये एक भारी दृष्टि की सृष्टि कर देगा।
राष्ट्रों, जातियों, संस्कृतियों तथा धर्मों के बीच आज जो विरोध, शत्रुता तथा अविश्वास की भावना दिखायी दे रही है, यह हमारी प्राचीन अहंभावना के कारण है। यह दूसरे पर अपनी इच्छा लादने की हमारी प्रवृत्ति के कारण है। यह दूसरे घर को छीनकर उसे अपना घर बना लेना, उस पर अपनी प्रभुता स्थापित करने तथा एक के द्वारा दूसरे के व्यक्तित्व को मिटा देने के कारण है।
अब हमें एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करने की आवश्यकता है, जिसमें पारस्परिक सहन शीलता ही कानून हो, जिसमें एक साथ विभिन्न जातियाँ, राष्ट्र, संस्कृतियाँ और आध्यात्मिकता रहें और फले फूले। ऐसी व्यवस्था में-ऐसी सामूहिक एकता में ही आज दिखायी देने वाला विरोध, शत्रुता और अविश्वास की भावना मिटा सकती है।
मानव जाति की पूर्ण विकसित सभ्यता में हमारी यही स्थिति होगी और इसी को अपनी उन्नति का ध्येय मानकर हमें आगे बढ़ना चाहिए। भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का उद्देश्य मानवता के सर्वोच्च आदर्शों की प्राप्ति करना रहा है। इसीलिये संसार में नयी व्यवस्था होने पर भारत उसमें अपना उचित स्थान ही प्राप्त नहीं करेगा, वरन् मानव जाति के विकास में संसार को मार्ग दिखाने में समर्थ हो सकेगा। मनुष्य जाति को आध्यात्मिकता के रस में ओत-प्रोत करने के लिये भारत के पास आदर्शों की महत्ता है और उसकी जनता में उन्हें कार्यान्वित करने की सामर्थ्य भी है।