साधनामय जीवन

March 1951

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(श्री पं. द्वारका प्रसाद शर्मा, करेरा)

मनुष्य और पशु-पक्षी सभी जीवनयापन करते हैं। इच्छा और परिस्थिति से प्रेरित होकर विविध प्रकार के शुभ-अशुभ कर्म करते हैं और उनके भले बुरे परिणाम भोगते हैं। किसी प्रोत्साहन एवं आशा से एक काम करते हैं, उस काम में विघ्न, अड़चन, बाधा उत्पन्न होने या सफलता में देर होते देख कर उसे छोड़ देते हैं और फिर कोई और नया कार्य आरम्भ करते हैं।

इस प्रकार बीसियों कार्य आरम्भ किये जाते हैं और अधूरे छोड़ दिये जाते हैं। बीसियों कार्यक्रम बनाये और रद्द किये जाते हैं। अनेकों सिद्धाँत आदर्श एवं विचार आवेश और उत्साह पूर्वक ग्रहण किये जाते हैं और थोड़े ही समय में उनकी ओर अश्रद्धा एवं अशक्ति होने लगती है तो हाथ खींच लिया जाता है। इस प्रकार लोग अनेकों असफल योजनाओं को अधूरी पड़ी छोड़कर कूच कर देते हैं। उनका जीवन असफल ही रह जाता है।

निरुद्देश्य जीवन सदा असफल रहता है। जिस चिट्ठी पर कोई पता नहीं लिखा गया है वह कहाँ पहुँचेगी? अनेक डाक खानों की मुहर खाती हुई रद्दी के टोकरे में पड़कर नष्ट हो जायगी। जिस तीर को किसी लक्ष्य पर नहीं योंही शून्य आकाश में फेंका गया है वह कोई प्रयोजन ‘सिद्ध करना तो दूर’ स्वयं भी कहीं अज्ञात् प्रदेश में गिर कर नष्ट हो जायगा। जो मोटर निरुद्देश्य के सड़क पर दौड़ रही है वह अपनी शक्ति गँवाने के अतिरिक्त और क्या फल उत्पन्न करेगी?

आज अधिकाँश व्यक्ति निरुद्देश्य जीवन जीते हैं। खाना-पीना और मौज करना उनका कार्यक्रम होता है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन तो प्राणी की जन्मजात शारीरिक आवश्यकताएँ हैं, इनमें बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता एवं मनुष्यता का कोई लक्षण नहीं है। इन आवश्यकताओं को तो कीट पतंग भी पूरा कर लेते हैं। परमात्मा ने मानव प्राणी को सृष्टि का मुकुटमणि इसलिए बनाया है, उसे बुद्धितत्त्व इसलिए दिया है कि वह अपनी विशेषता प्रकट करे, विशेष कार्य सम्पादन करे।

मानव जीवन जैसे अलभ्य अवसर का कोई लक्ष्य होना चाहिए। इसे किसी ऐसी सफलता के लिए उत्सर्ग किया जाना चाहिए जिसका महत्व जीवन जैसे अमूल्य पदार्थ की तुलना में कम न हों। इसलिए हमारा प्रथम कर्तव्य यह है कि निरुद्देश्य दिन पूरे न करते रह कर जीवन का कोई निश्चित लक्ष्य निर्धारित करें। और जो लक्ष्य निर्धारित हो जाय उसे पूरा करने के लिए दृढ़ता एवं तत्परतापूर्वक जुट जावें। निश्चित लक्ष्य की ओर दृढ़तापूर्वक जो प्रवृत्ति होती है, उसे ही ‘साधना’ कहते हैं।

साधारणतया लोग छोटी-छोटी कामनाएँ करते हैं। उनकी इच्छा, अभिलाषा और महत्वाकाँक्षा छोटे दर्जे की, इन्द्रिय सुख या धन वैभव के संकुचित क्षेत्र की होती है। मकान बनाना, मोटर खरीदना, अमुक परीक्षा पास करना आदि कामनाएँ जीवन लक्ष्य नहीं कही जा सकती क्योंकि वे जब पूरी हो जाती हैं तो फिर नयी योजना बनानी पड़ती है। मकान खरीदना लक्ष्य है तो जब मकान खरीद लिया जायगा तब या तो निष्क्रिय बैठना पड़ेगा या कोई दूसरा लक्ष्य चुनना पड़ेगा। ऐसे छोटे छोटे आयोजन लक्ष्य नहीं होते, लक्ष्य वही है जिसके लिए कम से कम वर्तमान जीवन लगाना तो आवश्यक ही हो।

ऋषियों ने तीन लक्ष्यों को वेधन करना, तीन शत्रुओं से संग्राम करना जीवन का आदर्श बताया है। (1) अज्ञान, (2) अशक्ति और (3) अभाव, यह तीन ही कारण ऐसे हैं जो नाना प्रकार के दुखों को उत्पन्न करते हैं। इन असुरों से लड़ते रहना ही जीवन का लक्ष्य है। गीता में भगवान ने जिस धर्म युद्ध के लिये प्रेरणा दी है, जिस युद्ध को निरन्तर जारी रखने का आदेश दिया है वह इन तीन असुरों के विरुद्ध ही है।

द्विजों के तीन वर्ण, इन तीन दुरितों से लड़ने के उद्देश्य से ही बने हैं। जो अज्ञान के विरुद्ध संग्राम करके ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं वे ब्राह्मण हैं। जो अशक्ति, अरक्षा, अनीति को परास्त करके बल, निर्भयता, सुरक्षा और नीति की स्थापना करते है वे क्षत्रिय हैं और जिनका कार्यक्रम जनता के अभावों को दूर करके उसे आवश्यक वस्तुएँ उपलब्ध कराना है वे वैश्य हैं। जीवन के इन तीन लक्ष्यों में से अपनी रुचि, शक्ति, इच्छा और योग्यतानुसार, जिसको चुना वे उसी वर्ण के बने। जिनमें लक्ष्य स्थिर करने में उदासीनता है जिनका कार्यक्रम स्वार्थपूर्ण, संकुचित एवं व्यक्तिगत लाभ की दृष्टि से है वे शूद्र कहलाये।

‘शूद्र’ शब्द तिरष्कृत इसलिए है कि मानव जीवन के महान लक्ष्यों के प्रति, महान उद्देश्यों के प्रति उनकी श्रद्धा नहीं है। आज व्यापक रूप से शूद्रता फैली हुई है। जीवन लक्ष्य की ओर किसी का ध्यान नहीं है। भौतिक कामनाओं से प्रेरित होकर नित नये कार्यक्रम बनाते बिगाड़ते रहते हैं अनेकों प्रकार की इच्छाएँ, अभिलाषाएँ, कामनायें मन में आती रहती हैं परन्तु प्राप्त करने योग्य दृढ़ता एवं मनोबल न होने से वे अधूरे पड़े रहते हैं। भोगवादी स्वार्थपरायण मनुष्यों में भी ऐसे व्यक्ति थोड़े से ही होंगे जो कामनाएँ तृप्त होने का सुख प्राप्त कर सके हों।

किसी कार्य को पूरा करने के लिए उस दशा में अविचल श्रद्धा अटूट साहस और दृढ़ प्रयत्न की आवश्यकता होती है। संसार में जिन लोगों ने कोई कहने लायक काम किये हैं, महापुरुष कहलाये हैं, आशाजनक सफलता पाई है उन्हें धैर्य, साहस, प्रयत्न की परीक्षा अग्नियों में होकर गुजरना पड़ा है, तब कहीं आशाजनक परिणाम निकला है। हथेली पर सरसों जमाने के लिए उतावली करने वाले, जरा-सी कठिनाई देखकर विचलित जो जाने वाले, थोड़े दिन उत्साह दिखाकर शिथिल हो जाने वाले लोग छोटे-छोटे कार्यों में भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकते। सफलता की आवश्यक शर्त है-दृढ़ता, एकनिष्ठा, साधना।

जिनने इतिहास के पृष्ठों में आपका उज्ज्वल स्थान बनाया है उन्हें अपने कार्य के लिए ‘साधना’ करनी पड़ी है सब ओर से चित्त हटाकर लक्ष्य में तन्मय हो जाना, लक्ष्य का ही ध्यान रखना और अटूट धैर्य एवं दृढ़ता के साथ उसी कार्य में लगे रहना और कठिनाइयाँ आने पर भी चित्त में उदास न होना साधक का प्रधान चिन्ह है। साधना ही सफलता की जननी है। जो भी सफल हुआ है साधना द्वारा हुआ है।

जीवन को असफलता में नष्ट न करके यदि उसे सफल बनाना है तो उसका एकमात्र उपाय साधक बनना ही है। जीवन की साधना यही है कि अपने को तथा दूसरों को नाना प्रकार के दुख देने वाले जो तीन महाअसुर हैं, उन अज्ञान, अशक्ति और अभाव को दूर करने के लिए द्विजत्व का व्रत लें। द्विजत्व का तात्पर्य है-ज्ञान, बल और सम्पत्ति का अभिवर्धन। यह अपने लिए ही नहीं वरन् सभी के लिए बढ़ाने योग्य है। कोई व्यक्ति, राष्ट्र या समाज इन तीनों के द्वारा ही सुखी हो सकता है, जहाँ इन तीनों की जितनी मात्रा होगी वहाँ उसी अनुपात से कष्ट और दुख कम उपस्थित रहेंगे।

जीवन अस्त-व्यस्त जीने के लिए, तुच्छ और क्षुद्र कार्यों में व्यतीत करने के लिए नहीं है। यह महान सम्पदा उन्हीं महान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए खर्च की जानी चाहिए जो व्यापक रूप से सुख शान्ति की वर्षा करने वाले हैं। हमारा लक्ष्य द्विजत्व की प्राप्ति, एवं कर्त्तव्य धर्म की पूर्ति होना चाहिए। यह कार्य छिछोरापन, उथलेपन तथा संकीर्ण दृष्टिकोण रख कर नहीं हो सकता, इसे पूरा करने के लिए साधनात्मक दृष्टि और कार्य पद्धति होनी चाहिए। हमारा जीवन साधनामय होना चाहिए क्योंकि मानव जन्म की सफलता, साधनात्मक गति विधि पर ही निर्भर है।

मातृ भावना का पुण्य विकास।

(श्री सरयू शरण जी गुप्त, नवाबगंज)

प्रत्येक व्यक्ति के मानस क्षेत्र में सभी प्रकार के सद्गुण एवं दुर्गुण, सदाचार एवं कुविचार, अव्यक्त बीज रूप से विद्यमान रहते हैं। वातावरण, परिस्थिति एवं संगति रूप से यह गुण एवं विचार घटते बढ़ते रहते हैं। अच्छे वातावरण में सद्चारों एवं सद्गुणों का विकास होता है और कुसंग एवं बुरी परिस्थितियों में रहने से कुविचार तथा दुर्गुण बढ़ जाते हैं।

संगति का काफी प्रभाव पड़ता है। जैसे लोगों के बीच मनुष्य का रहना होता है वह उसी ढाँचे में ढलने लगता है, साथियों के गुण दोषों की छाप अपने ऊपर सहज ही पड़ती रहती है परन्तु सबसे अधिक प्रभाव मानसिक संगति का पड़ता है। मन में जैसी स्थापना होती है उसका प्रभाव संगति से भी अनेक गुना अधिक पड़ता है।

कोई व्यक्ति विद्वानों के साथ रहे पर उसके मन में वेश्याओं की छवि भाव भंगी, कुचेष्टाएँ नाचती रहें, और विकार पूर्ण अंगों तथा चेष्टाओं का चिंतन करता रहे तो निश्चय ही विद्वानों की संगति का उतना प्रभाव न होगा जितना उन मानसिक काम विकारों का होगा। मन में जो भाव दृश्य, एवं आदर्श हर घड़ी भरे रहते हैं, जिधर आन्तरिक इच्छा अभिलाषा और अभिरुचि झुकी रहती है, उधर ही मस्तिष्क की समस्त शक्तियाँ झुक जाती हैं फलस्वरूप उसका जीवन तेजी से उसी रास्ते पर चलने लगता है। मानसिक चिन्तन के आधार पर मनुष्य के गुण, धर्म, स्वभाव बनते हैं, तद्नुसार वह अपने अनुकूल वातावरण में पहुँच जाता है, वैसी ही परिस्थितियाँ उसके सामने आ खड़ी होती हैं। जो प्रभाव बाह्य संगति से बहुत समय में पड़ता है वह मानसिक संगति से स्वल्प काल में ही परिस्थिति होने लगता है।

मनोविकारों में ‘काम विकार’ को बहुत बुरा बताया है। धर्म शास्त्रों ने पण्डित के तीन लक्षण बताये हैं उनमें सबसे पहला लक्षण ‘मातृवत्परदारेषु’ दूसरा ‘परद्रव्येषु लोष्टवत’ और तीसरा ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ है। मनुष्य की यह सर्वश्रेष्ठ तीन महानताएँ हैं। (1) नारी जाति के प्रति मातृ भावना, (2) पराये पैसे को ठीकरी समझना, (3) अपने समान सबको समझना। इन तीनों में सबसे प्रथम, सबसे महत्वपूर्ण-सबसे आवश्यक “मातृ भावना” को माना गया है। जिसके मन में नारी जाति के प्रति पवित्र भावनाएँ हैं, जो स्त्रियों के प्रति माता, बहिन और बेटी की दृष्टि रखता है वस्तुतः वही पंडित, धार्मिक या सच्चे अर्थों में मनुष्य कहा जाता है।

आज शुद्ध दृष्टि का बड़ा अभाव है। देखा गया है कि बाहर से नैतिकता पर जोर देने वाले, धार्मिक बनने वाले व्यक्ति भी कामुकता के कुविचारों से ग्रस्त रहते हैं और वयस्क नारियों के प्रति उनकी दृष्टि दूषित एवं भावना कुत्सित बनी रहती हैं। शारीरिक व्यभिचार के अवसर भले ही उनको न मिलें, पर मनोभावों को तो वे बहुधा पतित बनाये रहते हैं। यह मनसा पाप निरन्तर उनके ऊपर चढ़ता रहता है और अकारण पाप की गठरी भारी होती रहती है। भावना दूषित रहने से बाह्य जीवन में भी वैसी कुचेष्टाएं उनसे अनेक बार बन पड़ती हैं।

मनुष्यता के, पाण्डित्य के, सर्वश्रेष्ठ और सर्व प्रथम लक्षण ‘मातृ भावना’ का विकास करना, प्रत्येक आत्मकल्याण के इच्छुक मनुष्य के लिए आवश्यक है। क्योंकि इस पहली कक्षा को पास किये बिना, ‘पर द्रव्येषु लोष्टवत’ और ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की स्थिति प्राप्त नहीं हो सकती। जिसने मातृ दृष्टि प्राप्त कर ली है वही अन्य आध्यात्मिक पवित्रताओं का अधिकारी भी बन सकता है।

वर्तमान काल के दूषित वातावरण में, जबकि चारों और वासना, विलासिता, भोगवाद का आतंक फैला हुआ है, संयम, सदाचार और पवित्र दृष्टि रखने की बात कठिन मालूम होती है। कभी व्यक्ति इस ओर थोड़ा प्रयत्न करते भी हैं तो चारों ओर फैले हुए विकार उन्हें असफल कर देते हैं, ऐसी दशा में वे निराश होकर प्रयत्न छोड़ बैठते हैं और ऐसा सोचते हैं कि हमारा मन बड़ा निर्बल है, उसे फिसलने से रोकना बहुत कठिन है, यह सब हमसे न हो सकेगा।

ऐसे लोगों को अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर मेरी सलाह है कि ये ‘गायत्री उपासना’ ग्रहण करें। माता की सुन्दर छवि का परम पवित्र मातृ भावना के साथ ध्यान किया करें। धीरे-धीरे उनकी भावना समस्त नारी जाति में श्रद्धामयी एवं परम पवित्र रहने लगेगी। माता का ध्यान बहुत देर तक मन में करने से नारी रूप में भगवान की झाँकी होती है। भगवान के प्रति ईश्वरीय शक्ति के प्रति, स्वभावतः मातृ भावना होती है। यह मातृ भावना जब देर तक मन में ठहरती है तो चित्त का उसी का अभ्यास पड़ जाता है। जैसे विचार देर तक मन में रहते हैं वह आन्तरिक सत्संग के रूप में हमारे अन्तःकरण पर गहरा प्रभाव डालते हैं। बाह्य सत्संगों की अपेक्षा माता के सान्निध्य का यह आन्तरिक सत्संग अनेक गुना महत्वपूर्ण एवं आशु फल दायक होता है।

यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है। कुदृष्टि की दूषित भावना से छुटकारा पाने के लिये मैं व्याकुल था। श्री आचार्य जी से मैंने इसका उपाय पूछा उनने बताया कि “गायत्री उपासना द्वारा निश्चित रूप से मातृ भावना का विकास होता है और इस मार्ग का अवलम्बन करके कोई भी व्यक्ति अपने दृष्टिकोण को पवित्र कर सकता है।” मैंने वैसे ही किया अब मैं देखता हूँ कि माता की कृपा से कुदृष्टि का संतोषजनक शमन हो गया है और नारी मात्र को देखते ही माता, बहिन तथा बेटी के भाव उत्पन्न होते हैं। मातृ भावना को वृद्धि के साथ-साथ जिस आत्मिक विकास का प्रारम्भ हुआ है उसकी चर्चा करने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।

योगी अरविन्द, रामकृष्ण परमहंस, आदि सिद्ध पुरुषों ने माता की उपासना से सिद्धि पाई थी। अर्जुन का उर्वशी को माता कहना, छत्रपति शिवाजी का पवन राज कन्या को पुत्री मान कर उसके पास पहुँचा देना, लक्ष्मण को शूर्पणखा को तिरष्कृत करना आदि भारतीय इतिहास में ऐसे असंख्य उदाहरण हैं जिनमें मातृ भावना की दृढ़ता को प्रतिष्ठित किया गया है। यह भावना गायत्री की उपासना द्वारा आसानी से प्राप्त हो सकती है। मेरी दृष्टि में इस महान आत्मिक सफलता का इससे सरल उपाय और दूसरा नहीं हो सकता।


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