सफलता का मनोवैज्ञानिक मार्ग

March 1951

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(प्रो॰ रामचरण महेन्द्र, एम. ए.)

समाज के मनोविज्ञान की जानकारी पर आपकी सामाजिक सफलता बहुत अंशों में निर्भर है। क्या आप दूसरों की कमजोरियाँ खुले आम बतलाते हैं? क्या उनकी आलोचना खराबियाँ, दोष, दिखलाते हैं? यदि ऐसा है, तो आप अपने पाँव में कुल्हाड़ा मार रहे हैं।

मनुष्य का “अहं” गर्व, अभिमान एक बड़ी महत्वपूर्ण भावना है। चाहे किसी ने भारी भूल ही क्यों न की हो, चाहे वह जेल खाने का अपराधी ही क्यों न हो, वह अपने आपको दोषी मानने को कदापि तैयार नहीं होता। आलोचना भयावह मानसिक व्यंग्य हैं, गर्व और अभिमान पर चोट है। वह जनता के क्रोध और अंतर्जगत में बद्धमूल गर्व पर आक्रमण करती है। यही कारण है कि अपराधी अपने सिवा और सबको दोष देता है। हम सबमें से कोई भी आलोचना पसन्द नहीं करते।

समाज में वह जीतता है, जो हँसमुख चेहरे द्वारा सर्वत्र प्रसन्नता बखेरता है। सच्चे हृदय से लोगों को उत्साहित करता है। उन्हें सत्पथ पर जाते देख प्रशंसा, प्रेरणा, उपहार, निष्कपट मैत्री द्वारा आगे बढ़ाता है।

संसार में मनुष्य आश्चर्य का पिटारा है। बिल्कुल नई चीज है, जिसमें निजी इच्छाएं, अनुभव, मानसिक आवेग भरे पड़े हैं। ये सब पृथक-2 हैं। आप सहानुभूति तथा उत्साह के यंत्रों से उन्हें खोलिये और समझिये। उनकी विगत समस्याओं और आपबीतियों को कान देकर दिलचस्पी के साथ सुनिये। और उन पर सहानुभूतिपूर्वक विचार कीजिए। हमें यह जानने का उद्योग करना चाहिए कि जो कुछ वे कहते हैं, या करते हैं, वह किस आकाँक्षा या गुप्त भाव से संतुलित होता है। आलोचना के स्थान पर मनुष्य को स्टडी करना, समझना, कहीं अधिक लाभदायक और गुप्त प्रभाव रखता है। इससे सहानुभूति, सहिष्णुता, और दयालुता उत्पन्न होती है, आत्मा का विस्तार होता है। दूसरों को समझाना ही हमारे जीवन का दृष्टिकोण होना चाहिए।

समाज में प्रसिद्धि के लिए आपको अपने मत, विचारधारा, एवं योजनाओं का आरोप दूसरों के मन, बुद्धि पर करना होता है। अर्थात् आपको दूसरों को अपनी विचारधारा के अनुकूल बनाना होता है। उनकी पुरानी रूढ़ियां, अंधविश्वास परिवर्तित कर नई अपनी विचार धार को उनके मन मंदिर में प्रतिष्ठित करना होता है।

साधारण व्यक्ति इस कार्य के निमित्त बुद्धि व, अर्थात् तर्क-वितर्क का आश्रय ग्रहण करते हैं लम्बी-लम्बी दलीलों पर उतर आते हैं। बहस लम्बी चलती है। और उसका निष्कर्ष यह होता है कि दूसरा व्यक्ति अपनी धारणाएं नहीं बदल सकता। एक खोज तथा ईर्ष्या का भाव लेकर वह पृथक हो जाता है।

मानव-मन में अनुभूतियों, भावना के तत्व, हृदय एवं आकाँक्षाओं का महत्वपूर्ण स्थान है। मान-वमन अनुभूतियों के सरस धरातल पर ऐसी ऐसी कठिन और अप्रासंगिक बातों पर विश्वास कर जाता है, जिन्हें कदाचित वह शुष्क तर्क के द्वारा कदापि विश्वास नहीं कर सकता। वे व्यक्ति कुछ सामाजिक लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सकते, तर्क-वितर्क के शुष्क धरातल से उठ कर अनुभूति और भावना के सरस धरातल पर नहीं आ सकते। मनुष्य भावना से परिचालित होता है, जो उसके हृदय को स्पर्श करता है, उसी पर अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है।

अनावश्यक वाद-विवाद त्याग कर दूसरों की मनोभावनाओं और अनुभूतियों को सहृदयता पूर्वक सुनिये, दूसरों के दृष्टिकोण की कटुआलोचना न कीजिए। जब वे अपनी बातें कह चुकें, तब अनुभूतियों और भावुकता से सरस बनाकर अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत कीजिये। अपने विचारों और योजनाओं की व्याख्या इस भावनात्मक दृष्टि कोण से प्रस्तुत कीजिये कि उनके हृदयतन्त्री के तार झंकृत हो उठें। उनका दिल यह गवाही दे दे कि बात वास्तव में ठीक है।

सार्वजनिक व्याख्यानदाता की सफलता का गुर यह है कि वह जनता की, आसपास के मनुष्यों की, भावना को झड़काना जानता है। वह चतुरता से इस बात को ध्यान रखता है कि दूसरों के आत्मसम्मान, और आत्मगौरव को ठेस न लग जाय। आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचने से द्वेष पूर्ण घृणा उत्पन्न हो जाती है।

श्री शिव कंठ लाल शुक्ल ने सत्य ही लिखा है, “मनुष्य अनुभूतियों और भावनाओं, विचारों, इच्छाओं और सम्मान का दास है वह तर्क शास्त्र से वशीभूत कभी नहीं हो सकता। हमें सदैव ध्यान रखना चाहिए कि वे लोग “मनुष्य” हैं देवता नहीं है। उनके विचार और भावनाएं शिलाखंड पर लिखे अक्षर नहीं हैं। इसमें से प्रत्येक अपने को बुद्धिमान, विचारवान, और तर्क शास्त्री होने का दावा करता है और उसी के अनुसार प्रयत्न भी करता है, परन्तु जब वही बात प्रत्यक्ष अनुभव में आती है, तो हमें ज्ञात होता है कि हमारी प्रदर्शन बुद्धि तत्व की अपेक्षा पूर्व निर्मित धाराएँ अधिक काम करती हैं। तर्क हमारे साथ कार्य करने में असमर्थ सिद्ध होता है तर्क की विजय बहुत कम होती है। तर्क अधिकतर व्यर्थ सिद्ध होकर विजय को भी पराजय में बदल देती है। मान लीजिये, कि हमने किसी को अपने तर्क बल से कोई बात मनवाली और उसने स्वीकार भी कर लिया, पर विश्वास रखना चाहिए कि यह मान्यता बाह्यय और अस्थायी है। उससे विचारों में कोई स्थायी परिवर्तन नहीं हो सकता। हृदय नहीं बदल सकता।”

मानव स्वभाव कुछ ऐसा है कि वह उन्हीं बातों पर विश्वास करता है, जो उस के घर में पहले से ही चले आ रहे हैं। मानव स्वभाव स्मृतियों से, पूर्व धाराओं से स्नेह करता है। अतः आप इस प्रकार बातचीत करें कि उनके प्रिय सुनिश्चित विचारों पर कम से कम प्रहार हो। प्रेम पूर्वक हृदय की भाषा में समझाइये। पूर्व उदाहरण भी ऐसे प्रस्तुत कीजिए जिससे उसके स्नेह को जीता जा सके, वह उत्साहित रहे, “हाँ, हाँ” उच्चारण करता चले। सच्ची मान्यता प्रेम पूर्ण सुहृदय व्यवहार से हो सकती है, तर्क-वितर्क खण्डन-मण्डन द्वारा नहीं। वास्तव में प्रेम, सुहृदयता, दूसरों के दृष्टिकोण को आदर, प्रशंसा ही वशीकरण के मूल मन्त्र हैं।

समाज से डरने वाला, सभा-सोसाइटी से भागने और जन समूह से पृथक रहने वाला असामाजिक हो जाता है। यदि आप बहुत जल्दी चिढ़ जाते हैं, झल्ला उठते हैं, अपनी बात दूसरों को बताने में शर्म आती है, तो आप आत्मलघुता की भावना से पीड़ित हैं। यह मानसिक बीमारी है। यदि आपको निम्नलक्षण अपने व्यक्तित्व में दिखाई दें, तो सावधान हो जाइए-झेंपना लड़कियों की तरह यकायक नेत्र नीचे कर लेना, दूसरे से आँखें न मिला सकना, यदि आप काम कर रहे हों और दूसरा आदमी मेज के पास आ जाय, तो मन में बेचैनी का भाव अनुभव करना, लड़कियों से डरना, अपनी आलोचना न सुन सकना, भविष्य के प्रति निराश रहना, नये लोगों से मित्रता स्थापित करने में कठिनाई का अनुभव करना, अपनी भावनाओं को आघात लग जाना समझने लगना, सभा-सोसाइटियों में लोगों में घुल मिल न सकना, प्रसिद्ध लोगों से परिचय होने के समय आपके मुँह से शब्दों का न निकलना, ये सभी बातें बतलाती हैं कि आप सामाजिक तत्वों में कमजोर हैं।

सामाजिक बनिये। आपका काम प्रत्येक सामाजिक प्राणी से पड़ने वाला है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि आपको लोगों से मिलने जुलने की आदत बढ़ानी चाहिए। सभा-सोसाइटियों में जाने से और वहाँ कुछ बोलने से मत चूकिए । यह सोचने की आदत डालिये कि कमजोरी और हीनताएँ तो सभा में होती हैं। उनसे इतना घबराने की आवश्यकता नहीं है।

आप किस प्रकार के समाज में रहना चाहते हैं, वह उच्चकोटि के चरित्रवान, सात्विक प्रकृति के निष्ठा त्याग और बलिदान के व्यक्तियों का होना चाहिए। यदि मनुष्य को अच्छा समाज प्राप्त हो जाय, तो उससे बड़ा उत्तम प्रभाव चरित्र पर पड़ता है। आत्म संस्कार का कार्य सहज हो जाता है।

पं॰ रामचन्द्र शुक्ल की राय है कि आत्म संस्कार वाले मुमुक्षों को चाहिए कि सात्विक समाज में प्रवेश करें। साहित्यिकों, विद्वानों, उच्च कर्म मार्गियों से पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करने से जानकारी में अभिवृद्धि होती है। इस उच्च समाज में प्रवेश करने से हमें अपना यथार्थ मूल्य विदित हो जाता है। हम देखते हैं कि हम उतने चतुर नहीं हैं जितने एक कौने में बैठकर अपने आपको समझा करते थे। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न गुण स्वभाव चारित्रयक विशेषताएँ होती है। यदि कोई एक बात में निपुण है तो दूसरा दूसरी बात से। समाज में प्रवेश करने पर हम देखते हैं कि इस बात की कितनी आवश्यकता है कि लोग हमारी भूलों को क्षमा करें। अतः हम दूसरों की भूलों को क्षमा करना सीखते हैं, नम्रता और आधीनता का पाठ सीखते हैं, हमारी समझ में बुद्धि में वृद्धि होती है, विवेक तीव्र होता है, वस्तुओं, घटनाओं तथा व्यक्तियों के विषय में हमारी धारणा विस्तृत होती है, हमारी सहानुभूति गहन होती है, हमें अपनी शक्तियों के उपयोग का अभ्यास होता है।

“समाज एक परेड है, जहाँ हम चढ़ाई करना सीखते हैं, इसमें भी साथियों के साथ-साथ मिल कर आगे बढ़ना और आज्ञा पालन सीखते हैं, इससे भी बढ़ कर और बातें हम सीखते हैं। हम दूसरों का ध्यान रखना, उनके लिए कुछ स्वार्थ त्याग करना, सद्गुणों का आदर करना और सुन्दर चाल ढाल की प्रशंसा करना सीखते हैं। बड़ों के प्रति सम्मान और सरलता का व्यवहार बराबर वालों से प्रसन्नता का व्यवहार और छोटों के प्रति कोमलता का व्यवहार-भले मनुष्यों के लक्षण हैं।”

अधिक से अधिक समाज के शिष्ट व्यक्तियों से मित्रता स्थापित कीजिए, अपना संपर्क उत्तरोत्तर बढ़ाते रहिए। जितना अधिक मेल होगा, उतनी ही प्रतिष्ठा, सहायता, पारस्परिक सद्भाव, सहयोग, प्रेम और मान बढ़ता जायेगा।


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