सर्वत्र अपना ही प्राण बिखरा पड़ा है।

March 1951

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भूर्वै प्राण इति ब्रुवन्ति मुनयो वेदान्ति पारंगता।

प्राणः सर्व विचेतनेषु प्रसृतः सामान्य रुपेण च॥

एतेनैब धिसिद्धयते हि सकलं नूनं समानं जगत्।

दृष्टव्यं सकलेषु जन्तुषु जनै नित्यंह्यतश्चात्मवत्॥

अर्थ-मनन करने वाले मुनि लोग प्राण को भूः कहते हैं। यह प्राण सर्वत्र समष्टि रूप से फैला हुआ है। इस से सिद्ध है कि यहाँ सब समान हैं। अतएव सब मनुष्यों और प्राणियों को अपने समान ही समझना चाहिए।

हम शरीर हैं इस भावना से भावित होकर लोग वही कार्य करते हैं जो शरीर को सुख देने वाले हैं, आत्मा के आनन्द की प्रायः सर्वदा उपेक्षा की जाती रहती है। यही माया, अविद्या, भ्रान्ति, बन्धन में बाँधने वाली है। मैं वस्तुतः कौन हूँ? मेरा स्वार्थ सुख और आनन्द कि बातों में निर्भर है ? मेरे जीवन का उद्देश्य एवं लक्ष्य क्या है? इन प्रधान प्रश्नों की लोग उपेक्षा करते हैं, और निरर्थक बाल-क्रीड़ाओं में उलझे रह कर मानव जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों को यों ही गवाँ देते हैं।

गायत्री के ‘भूः’ शब्द में बताया है कि हम शरीर नहीं प्राण हैं-आत्मा हैं। जब प्राण निकल जाता है तो शरीर इतना अस्पर्श्य एवं विषाक्त हो जाता है कि उसे जल्द से जल्द जलाने, गाढ़ने या किसी अन्य प्रकार से नष्ट करने की आवश्यकता अनुभव होती है। आत्मा के संसर्ग से ही यह हाड़, माँस, मल-मूत्र आदि घृणित वस्तुओं से बना हुआ शरीर सुख, यश, वैभव, प्रतिष्ठा का माध्यम रहता है जब वह संयोग बिछुड़ जाता है तो लाश, पशुओं के मृत शरीर के समान भी उपयोगी नहीं रहती।

हम प्राण हैं-आत्मा हैं। ज्ञान संचय करने से पूर्व हमें अपने आपको जानना चाहिए। सुख सामग्री इकट्ठी करने का प्रयत्न करने से पूर्व यह देखना चाहिए कि आत्मा को सुख शान्ति किन वस्तुओं से मिल सकती है। समृद्धि, यश, प्रतिष्ठा पद आदि संचित करने से पूर्व यह सोचना चाहिए कि आत्मगौरव, आत्म-सम्मान, आत्मोन्नति का केन्द्र कहाँ है? शरीर को प्रधानता देना और आत्मा की उपेक्षा करना यह भौतिकवाद है। आत्मा को प्रधानता देना और शरीर की उचित रक्षा करना, यह आत्म-वाद है। गायत्री कहती है कि हम आत्मा हैं इसलिए हमारा सर्वोपरि स्वार्थ आत्म-परायणता में है, हमें आत्मवादी बनना चाहिए और आत्म-कल्याण, आत्म-चिंतन, आत्मोन्नति, एवं आत्म-गौरव की सबसे अधिक चिन्ता करनी चाहिए।

जब हम आत्मवादी बनते हैं तो स्वभावतः भौतिकवाद को केवल उतना ही महत्व देना होता है जितना कि वह अनिवार्यतः आवश्यक है। शरीर की क्षुधाएं बुझाने के लिए भोजन कमाने, कुटुम्ब पोषण की वास्तविक आवश्यकताओं के लिए सीमित धन कमाने की इच्छा हो तो उसे ईमानदारी से कमाया जा सकता है। शेखी-खोरी और बड़प्पन की कामना से हम बहुत सी बेकार की जरूरतें, फैशन, अपव्यय, उत्सव, आदि के खर्चीले भार अपने सिर पर ओढ़ लेते हैं। वजन को बढ़ाते चलना और उसको उठाने के लिए धर्म और जीवन को बलिदान करते चलना, आज की यही जीवनचर्या है। यदि सादा जीवन बिताया जाय, अपने अपरिग्रही पूर्वजों की भाँति आवश्यकताओं को सीमित रखा जाय तो भौतिक आकर्षण के लोभ से सहज ही बचा जा सकता है। तब आत्म कल्याण के लिए कुछ सोचने और करने का अवकाश मिल सकता है। इसलिए आवश्यकताओं को कम करना और उच्च विचारों को हृदयंगम करना ही एकमात्र वह उपाय रह जाता है जिसके सहारे हम आत्मकल्याण की ओर चल सकते हैं। ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ यह आत्मवादी की’ प्रथम साधना है। इस साधना को अपनाये बिना कोई भी व्यक्ति आत्म-कल्याण की ओर अग्रसर नहीं हो सकता। वस्तुओं की अपेक्षा गुण का मूल्य एवं सम्मान जब समझ में आने लगे तब समझना चाहिए कि यह आत्मवाद का प्रकटीकरण हो रहा है।

आत्म-कल्याण का अगला कदम सबमें अपनेपन का दर्शन करना है। विश्वव्यापी प्राण एक है, प्राणिमात्र में एक ही आत्मा निवास कर रही है, एक ही नाव में सब सवार हैं, एक ही नदी की सब तरंगें हैं, एक ही सूर्य के सब प्रतिबिम्ब हैं, एक ही जलाशय के सब बुलबुले हैं, एक ही माला के सब दाने हैं, सब में एक ही प्रकाश जगमगा रहा है। सम्पूर्ण समाज शरीर है हम उसके अंग मात्र हैं। आत्मा एक मनुष्य की होती है, सम्पूर्ण प्राणियों की विश्वव्यापी परम विस्तृत जो आत्मा है उसे परमात्मा या विश्वात्मा कहते हैं। नरनारायण, जनता जनार्दन, विराट पुरुष, विश्वनाथ, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, आदि शब्दों में यही भाव भरा हुआ है कि एक ही चैतन्य तत्व प्राणिमात्र में समाया हुआ है। इसीलिए सब आपस में संबंधित हैं, सब आपस में पूर्ण आत्मीय हैं, पूर्णतया एक है।

संसार की सब पंच भौतिक वस्तुएं निर्जीव हैं उन में सुख देने वाला कोई तत्व नहीं, जिस वस्तु को हम अपनी मान लेते हैं बड़ी प्रिय लगने लगती है। वस्तुओं में प्रिय-अप्रिय लगने लायक कोई विशेषता नहीं है। हमारी ‘अपने पन’ की भावना ही उस साधारण वस्तु को परम प्रिय, परम आकर्षक, परम आनन्द दायक बना देती है। अपने मकान व्यापार, परिवार, शरीर, वाहन आदि से हम बहुत प्रसन्न रहते हैं, वही प्रिय लगते हैं। पर उनसे भी अधिक अच्छी यह सब वस्तुएँ दूसरे की हों तो उनसे उतना आनन्द नहीं होता। इससे स्पष्ट है कि आनन्द का उद्गम हमारी आत्मा है। यह आत्मीयता की भावना यदि प्राणी मात्र में, समस्त सृष्टि में, आरोपित कर दी जाए तो विश्व का कण-कण स्वर्गीय आनन्द से, ओत-प्रोत हो जायगा। प्रत्येक प्राणी अपना भाई, भतीजा जैसा लगने लगेगा। अपने को विश्व, परिवार का सदस्य, समस्त सृष्टि का स्वामी, अनुभव करने पर जो अपार आनंद आता है, उसका गायत्री के शब्द का अर्थ समझने वाला ही रसास्वादन कर सकता है।

एक ही प्राण समस्त शरीर में व्याप्त है। हाथ, पाव, आँख, नाक, कंठ, छाती आदि अवयवों व चेतना एक ही केन्द्र पर आधारित है इसलिए पृथक-पृथक रंग रूप गुण स्वभाव योग्यता शक्ति के होते हुए भी एक ही शरीर के अंग हैं। सब अवयव जब परस्पर मिलजुल कर काम करते अपने संकुचित स्वार्थ का विचार न करके सामूहिक स्वार्थ को प्रधानता देते हैं तभी शरीर ठीक काम करता है यदि इनमें से हर एक अंग अपने लाभ, स्वार्थ, संचय, सुख, आराम, प्रतिष्ठा, बड़प्पन की बात सोचे तो समझना चाहिए की जीवन के लिये संकट उत्पन्न हुआ। फेफड़े अपने तक ही वायु को सीमित रखें, आमाशय भोजन को ? कर अपने में ही धरे रहे, हृदय सारा रक्त अपने पास जमा कर ले, पैर सब अंगों का भार ढोने से इनकार कर दें, हाथ दिन भर श्रम करके अन्य अंग के पोषण के लिए परिश्रम करने में आनाकानी करें तो शरीर की, सारी व्यवस्था बिगड़ जायगा और वह स्वार्थी अंग भी सुखपूर्वक न रह सकेगा।

समाज एक शरीर है व्यक्ति उसका अंग है यदि व्यक्ति अपने स्वार्थ को प्राथमिकता देता है और समाज के हित की अवहेलना करता है तो निश्चय ही न वह व्यक्ति सुखी रह सकेगा और समाज। सब के हित में अपना हित और सब की हानि में अपनी हानि है। मौहल्ले में प्लेग, चेचक, हैजा आदि कोई रोग फैले या पड़ौसी के घर आग लग जाय तो निश्चय ही हमारा घर भी सुरक्षित नहीं रह सकता अपने नगर में गुँडों का आतंक बढ़ जाय तो हम भी शान्तिपूर्वक नहीं रह सकते, शत्रु का हमला किसी नगर पर हो तो उसके प्रत्येक निवासी को समान रूप से खतरा है। इसी प्रकार जहाँ जलवायु उत्तम हो, सत्पुरुष रहते हों, सुशासन हो, सुख शान्ति का वातावरण हो, वहाँ सभी लोग सुखी रहते हैं। शास्त्रों में लिखा है कि पत्नी के पाप का भागी उसका पति और शिष्य के पाप का भागी उसका गुरु भी होता है। इसी प्रकार पत्नी को पति के पुण्य में से और शिष्य को गुरु के तप में से हिस्सा मिलता है। कारण स्पष्ट है कि परस्पर संबंधित होने के कारण एक दूसरे के प्रति उत्तरदायित्व से बंधे हुए हैं। फल स्वरूप एक दूसरे की बुराई भलाई एवं हानि लाभ के लिए भी जिम्मेदार हैं। निर्दोषों के साथ में अनीति हो रही हो तो उसे न रोकने वाले वहाँ के निवासी भी पापी होते हैं। सरकार ऐसे प्रदेशों पर सामूहिक जुर्माना करती है। क्योंकि बुराई को न रोकना भी एक जुर्म है। भूकम्प, महामारी, युद्ध अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष आदि सामूहिक आपत्तियों का कारण उस देश की जनता की सामूहिक अनैतिकता, गरीबी, अकर्मण्यता आदि बुराइयां हैं। इन्हें दूर करने के लिये वहाँ के लोगों में पुरुषार्थ जागृत करने के लिये ईश्वर इस प्रकार की आपत्तियाँ भेजता है। इन आपत्ति ग्रस्त क्षेत्रों में अनेकों सत्पुरुष भी दुख पाते हैं कारण स्पष्ट है अपने पड़ोसियों की हीनावस्था के लिए वे स्वयं भी उत्तरदायी हैं। समस्त मानव समाज एक सूत्र शृंखला में बँधा हुआ है।

जिसका हृदय संकुचित है, जिसकी बुद्धि संकीर्ण है, जिसकी भावना अनुदार हैं वे अविवेकी मनुष्य खुदगर्जी को प्रधानता देते हैं। परिणाम यह होता है कि लोकहित तो वे करते नहीं, अपना हित उनसे हो नहीं पाता। भारतीय धर्मशास्त्र में बताया है कि “उदार चरितानाँ तु वसुधैव कुटम्बकम” उदार मनुष्यों के लिए सारा संसार अपना कुटुम्ब है। भगवान बुद्ध ने यह कह कर मोक्ष को ठुकरा दिया कि “जब तक एक भी प्राणी बन्धन में है तब तक मुझे मोक्ष की आवश्यकता नहीं।” बादल अपने लिए नहीं बरसते, फूल अपने लिए नहीं खिलते, वृक्ष अपने फलों को आप नहीं खाते, सरोवर अपने लिये जल नहीं भरे रहते, मधु-मक्खी अपने लिये मधु संचय नहीं करती, सूर्य-चन्द्र अपने लिये भ्रमण नहीं करते। सृष्टि के समस्त जड़ चेतन पदार्थों पर दृष्टिपात कीजिये वे केवल आत्मसुख के लिये ही जीवन धारण नहीं किये हुए हैं वे प्रभु की इस पुण्य वाटिका, सृष्टि की शोभा बढ़ा रहे हैं, दूसरों की सुख सुविधा बढ़ाना उनका प्रधान प्रयोजन है। मनुष्य को मिली हुई विशेष शक्तियाँ तो ईश्वर की अमानत है जो इसलिये है कि उनके द्वारा कम बुद्धि वालों की सहायता करके उन्हें ऊँचा उठाया जाय, सुखी बनाया जाय। जो यह समझते हैं कि हमारे पास जो धनबल, बुद्धिबल, शरीरबल है वह केवल मात्र हमारे ही लाभ के लिए है वे भूल करते हैं। जन साधारण के लाभ के लिए दी हुई ईश्वर की अमानत का वे दुरुपयोग करते हैं। अमानत में खयानत का अपराधी उन्हें ठहराया जायगा।

गायत्री की शिक्षा है कि अपनी आत्मा को सब में और सबकी आत्मा को अपने में समाई हुई देखो। अपना वह लाभ स्वीकार करो जो समाज के लोभ का एक भाग है। अपने जिस कार्य से औरों की हानि होती है, बहुसंख्यक नागरिकों पर जिसका बुरा प्रभाव पड़ता है ऐसा लाभ सर्वथा त्याज्य है। इसलिए दूसरों के दुख को अपना दुख समझना चाहिए। जिस व्यवहार को हम अपने लिए उचित नहीं समझते उसे दूसरों के लिये नहीं करना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि मेरे साथ दूसरे लोग दुर्व्यवहार न करें, चोरी, ठगी, विश्वासघात, छल, उद्दंडता, निष्ठुरता, बेईमानी, अनुदारता का व्यवहार उसके साथ न हो, वरन् मधुरता, नम्रता, उदारता, सचाई एवं सहायता की नीति बरती जाय।

स्मरण रखना चाहिए कि जब हम दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार करेंगे तो हमें भी ऐसा प्रतिफल मिलेगा। जो बोयेंगे वहीं काटेंगे। यदि वैसा ही व्यवहार हमारे साथ दूसरे न भी करें तो भी विश्व-व्यापी आत्मा को हमारे सद्व्यवहार से जो सुख मिलेगा वह आँशिक और अप्रत्यक्ष रूप से अपने को ही तो मिला क्योंकि अनन्तः सभी आत्माएं एक दूसरे से संबंधित हैं।

किसी को छोटा या नीच समझना अनात्मवाद है। गीता ने पंडित की परिभाषा करते हुए कहा है कि ‘विद्या विनय सम्पन्न ब्राह्मण, गौ, हाथी, कुत्ता, चाण्डाल आदि सब छोटे बड़े, नीच ऊँच, को जो समता की दृष्टि से देखता है वह पंडित है।” किसी को जाति वंश कुल देश वर्ण लिंग की दृष्टि से ऊँचा या नीचा गिनना अपंडित पन है। परमात्मा के सभी पुत्र एक मानव जाति के हैं चाहे वे स्त्री हों या पुरुष चाहे शूद्र हों या ब्राह्मण। सबका अधिकार, पद, कर्त्तव्य और गौरव समान है। अपनी योग्यता, विद्या, पुरुषार्थ, पुण्य, सेवा आदि गुणों के बल पर लोग ऊँचे उठते हैं, महात्मा, महापुरुष, ब्राह्मण पूजनीय बनते हैं और अपने ही दोष दुर्गुणों के कारण नीच बनते हैं। यह गुण, कर्म, स्वभाव ही नीचता और महानता के आधार हैं अन्यथा प्राणिमात्र में प्रकाशवान ईश्वरीय ज्योति, आत्मा एक ही जाति की है। किसी को स्त्री या पुरुष होने के कारण, शूद्र या ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण छोटा या बड़ा मानना, अधिकार को न्यूनाधिक मानना अज्ञान मूलक है।

गायत्री का भूः शब्द बराबर हमारे लिए आदेश करता है कि हम शरीर नहीं आत्मा है। इसलिए आत्म-कल्याण के लिए, आत्मोन्नति के लिए, आत्म गौरव के लिए, प्रयत्नशील रहें और समाज सेवा द्वारा विराट पुरुष, विश्व-मानव, परमात्मा की पूजा करें।


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