सात्विक भोजन का सूक्ष्म प्रभाव।

March 1951

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(श्री पं॰ शिवकुमार जी शर्मा, मौरा)

शास्त्र कहते हैं-”मानएव मनुष्याणाँ कारणाँ मोक्ष बन्धयोः। बन्धाय विषयासक्त’ मुक्तौ निर्विषयं मनः॥” अर्थात्-’मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण है, क्योंकि विषयों में फँसा हुआ मन बन्धन में है और विषयों से छूटा हुआ मुक्त है।’ जब बन्धन और मोक्ष कारण मन ही है, तो मन पर ही क्यों न नियन्त्रण किया जाय? मन को नियन्त्रण करने की एक अमोध औषधि है, जिसकी महिमा का वर्णन, शास्त्रों में विशद रूप से किया गया है, वह है ‘सात्विक भोजन’।

भोजन तीन प्रकार के हैं-सात्विक, राजस तथा तामस। सात्विक भोजन सबसे उत्कृष्ट माना गया है, क्योंकि इससे मन पवित्र होता है, तथा आत्मिक शक्ति बढ़ती है। आत्मिक बल ही मनुष्य का सच्चा बल है। श्रुति कहती है- “नायमात्मा बलहीनेन लभ्य” अर्थात्-’इस आत्मा को बलहीन पुरुष प्राप्त नहीं कर सकता।’

सात्विक भोजन से निकृष्ट वृत्तियाँ तत्काल दब जाती है, विलासप्रियता का विनाश हो जाता है, सद्भाव जागृत होकर शान्ति का प्रादुर्भाव होता है, पापी से धर्मात्मा तथा व्यभिचारी से ब्रह्मचारी बन जाता है, आध्यात्मिक तथा नैतिक शक्तियों का विकास होता है। सात्विक भोजन रसायन है, सम्पूर्ण व्याधियों को नष्ट कर बुढ़ापा रोकने की शक्ति प्रदान करता है, असमय में बालों को पकने नहीं देता तथा वीर्य को उर्द्धगामी बनाता है, साँसारिक प्रपंच से उद्धार पाने की उत्कण्ठा जागृत होता है, विवेक और वैराग्य होता है। अतएव मनुष्य को ऐसा भोजन करना चाहिए जिससे मन प्रसन्न रहे, ब्रह्मचर्य की रक्षा हो, धार्मिक विचार तथा तीव्र बुद्धि हो, एवं अपनी पुरानी बुरी आदतों, कुविचारों, कुसंस्कारों तथा कुवासनाओं का उन्मूलन हो जाय।

जिन वस्तुओं में सरसता, सुवास, पुष्टि तथा तुष्टि होती है, जो पचने में तो हलकी और शक्ति देने में भारी होती हैं, उन्हीं को सात्विक आहार में ग्रहण करना चाहिए।

मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों पर भोजन का बड़ा प्रभाव पड़ता है। अप्राकृतिक भोजन करने वाले राष्ट्र के लिए घातक हैं, क्योंकि उनकी तमोगुणी वृत्तियाँ समाज तथा देश में अशान्ति फैलाती रहती हैं। आज का मानव-जगत् इसी आसुरी-भाव को प्राप्त है।

“देहो देवालयः प्रोक्तः” अर्थात्-देह को परमात्मा का मन्दिर कहा गया है। यह तो परम पवित्र स्थान है, इसमें किसी अपवित्र वस्तु को स्थान देना ठीक नहीं, इसे सर्वदा शुद्ध, पवित्र और शुचि रखना चाहिए। किसी बुरे विचार या किसी बुरी वासना को रखना ठीक नहीं। अशुद्ध भोजन से देह को किसी कुकर्म में प्रवृत्त कराना अनुचित है, क्योंकि यह शिवालय है। पवित्र भोजन से इस देवालय को शुद्ध रखना चाहिये, जिससे देहस्थ भगवान प्रसन्न होकर हमारी आर्तनाद भरी प्रार्थनायें सुन सकें।

हम जो कुछ भी भोजन करते हैं, वह तीन हिस्से में बँट जाता है, उसका जो अत्यन्त स्थूल भाग है, वह मल हो जाता है, जो मध्य भाग है, वह माँस हो जाता है और उससे भी जो अत्यन्त सूक्ष्म भाग है, वह मन हो जाता है। इसलिए मन को पवित्र तथा पारदर्शी बनाने के लिए नैसर्गिक भोजन पर ही बसर करना चाहिए। नैसर्गिक भोजन ऋषियों का भोजन है, हमारे मन को निर्मल धारा में बहा कर मोक्ष या स्वर्ग के दिव्य-द्वार पर पहुँचा सकता है। इसके द्वारा हम भारत को फिर से ऋषि भूमि बनाकर सत्य युग की रचना कर सकते हैं। दाम्पत्य जीवन व्यतीत करने वाले यदि सात्विक भोजन करते हुए गर्भाधान करें तो उनकी सन्तान मेधावी, धर्मात्मा तथा दीर्घायु हो सकती है।

प्राचीन तथा अर्वाचीन काल में जितने महापुरुष हुए हैं, सभों ने भोजन के शुभाशुभ तत्व को अनुभव करके विश्व को प्राकृतिक भोजन करने की शिक्षा दी है। कहा भी है-”याद्दशी भक्षयेच्चान्न’ बुद्धिर्भवति ताद्दशी। दीपास्तिमिर भक्षयतिकज्जलं च प्रसूयते॥” अर्थात्-मनुष्य जैसा अन्न भक्षण करता है, वैसी ही उसकी बुद्धि हो जाती है, जैसे-दीप अन्धकार भक्षण कर कालिख उत्पन्न किया करता है इसी प्रकार छान्दोग्योपनिषद् चिल्ला-चिल्लाकर कह रही है-”आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः सत्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः। स्मृति लब्धे सर्व ग्रन्थीना मोक्षः॥” अर्थात्-’आहार शुद्ध होने पर अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। अन्तःकरण शुद्ध होने पर बुद्धि निश्चयात्मक हो जाती है, निश्चयात्मक बुद्धि होने पर ग्रन्थियों का भेदन हो जाता है, ग्रंथियों का भेदन होने से अमरत्व की प्राप्ति होती है।’

यदि प्रत्येक भारतीय सात्विक भोजन पर निर्वाह करने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर ले तो विषमता की प्रज्वलिताग्नि से भारत फिर छुटकारा पाकर ऋषियों की भूमि बन जाय।


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