महा महिमामयी माता

March 1951

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(स्वर्गीय योगिराज अरविन्दघोष)

माता एक ही है, पर वह हमारे सामने विविध रूपों में आती है, उनकी अनेक शक्तियाँ और अभिव्यक्तियाँ हैं, अनेक स्फुल्लिंग और अनेक विभूतियाँ हैं जो इस विश्व में उनका कर्म करती हैं। जिनको हम पूजते हैं वह एक ही हैं और वही भगवान् की वह दिव्य चैतन्यमयी शक्ति हैं जो ‘सर्वमिंद’ के ऊपर खड़ी हैं, हैं एक, पर इतनी अनेक रूपा हैं कि उनकी गति को देखना या समझना तेज-से-तेज गति वाले मन और मुक्त-से-मुक्त तथा व्यापक-से-व्यापक बुद्धि के लिए भी असम्भव है। माता पुरुषोत्तम का चैतन्य हैं, पुरुषोत्तम की शक्ति हैं।

वह सारी दृष्टि करने वाली आदि शक्ति हैं और अपनी इस सारी सृष्टि से बहुत ऊँचे पर रहती हैं। पर उनकी यह विविध विलक्षण झाँकी देखी जा सकती है, समझी जा सकती है उन्हीं की प्रतिमाओं-उन्हीं के ऐसे रूपों को देखकर जो अपने स्वभाव ओर कर्म में मूल रूप से अधिक व्यक्त और मर्यादित होने के कारण अधिक हृदयंगम करने योग्य हैं और जिनके द्वारा माता अपनी संतानों के सामने प्रकट होने में अनुमत होती है।

माता की सत्ता के तीन रूप हैं जो तुम जान सकते हो जब तुम हम को और इस विश्व को धारण करने वाली चिन्मयी शक्ति के साथ अपनी एकता (अभिन्नता) का अनुभव करने लगोगे। लोकातीत परा आधी शक्ति के रूप में वह अनन्त कोटि ब्रह्मांडों के ऊपर खड़ी हैं और पुरुषोत्तम के नित्य अव्यक्त रहस्य तथा उनके इस विश्व ब्रह्माण्ड के बीच की लड़ी हैं। फिर हैं विश्व शक्ति विश्वव्यापिनी महाशक्ति जो इन सब का सृजन करती और इन अनन्त कोटि गतियों के क्रमों के तथा इन अनन्त कोटि शक्तियों को धारण करती है उन्हें धारे रहती और बुलाती है। इसके बाद है व्यक्ति-शक्ति जो माता की सत्ता की इन दो विराट् गतियों की शक्ति का व्यक्त रूप हैं जिनके द्वारा माता के वे दो विराट् स्वरूप हमारे लिये ज्वलन्त और निकटतर हो जाते हैं। और जो मनुष्य तथा दिव्य प्रकृति के बीच में मध्यवर्ती शक्ति के तौर पर हैं।

महाशक्ति, जगत् की जगन्माता वही सृजन करती हैं जिसका संकल्प परमेश्वर से उन्हीं के परम चैतन्य के द्वारा प्रेरित किया जाता है। महाशक्ति इस प्रकार सृष्टियों को रचकर उनके अन्दर प्रवेश करती हैं, इनकी सत्ता ही इन लोकों को भागवत भाव, सर्व प्रतिपालक भागवत-शक्ति और आनन्द से भर देती हैं जिनके होने से ही ये लोक ठहरे हुए हैं। जिसे हम प्रकृति कहते हैं वह इस महाशक्ति का केवल अत्यन्त बाह्य सर्ग (कर्म) रूप हैं, महाशक्ति ही अपनी शक्तियों और गतियों का संचालन और व्यवस्थापन करती हैं, वही प्रकृति से कर्म कराती हैं और उन सब कर्मों के अन्दर गुप्त अथवा प्रकट रूप से रहती हैं। जो कुछ हम देख सकते या अनुभव कर सकते या जिसे जीवन गति दे सकते हैं उन सबमें महाशक्ति की ही सत्ता है। प्रत्येक लोक और कुछ नहीं, एक विशेष लोक-समूह या जगत की महाशक्ति का एक विशेष खेल है और इन सब लोकों में वह महाशक्ति उन्हीं आद्या शक्ति भगवती माता की विश्वव्यापिनी चिच्छक्ति और विश्वव्यापिनी व्यक्ति हैं। प्रत्येक लोक का उन्हीं की दृष्टि में साक्षात्कार होता है, फिर उन्हीं के सौंदर्य और शक्तिमय हृदय में एकत्र धनी भूत होकर वह उनकी आनन्द-स्फुरण से सृष्टा होता है।

माता ऊपर से सब का शासन करती है यह नहीं, बल्कि इस छोटे-से विविध संसार में वह उतर आती है। केवल दिव्य अक्षररूप की ओर दृष्टि निबद्ध करने से मालूम होगा कि यहाँ की सारी वस्तुएं, यहाँ तक कि अज्ञान की सारी गतियाँ भी अपनी शक्ति को प्रच्छन्न करती हुई स्वयं माता ही हैं। अपने सततत्व में अल्पीकृत (घटी हुई) उन्हीं की सृष्टियाँ हैं, उन्हीं की प्रकृति-शरीर और प्रकृति शक्ति हैं। और ये सब हैं इसी कारण से कि अनन्त की प्रभाव सम्भावनाओं में कुछ ऐसा था जिसे चुन कर प्रकृतरूप प्रदान करने का रहस्यमय आदेश परमेश्वर से पाकर वह इस महान् आत्मबलि के लिए समस्त हुई और उन्हीं ने छद्मवेश की तरह अज्ञान की आत्मा और रूपों को धारण कर लिया। पर व्यक्ति रूप में भी उन्होंने अपने को यहाँ तक नीचा कर दिया कि वह इस अन्धकार में उतर आयीं इसलिये कि इसे ज्योति की ओर ले जाऊँ, झूठ में और भ्रम में आ गयीं इसलिये कि इन्हें सत्य का रूप दे दूँ, इस मृत्यु में भी आ धमकी इसलिए कि इसे दिव्य जीवन दे दूँ, संसार के इस क्लेश में, इस हठी शोक और दुःख में पहुँच गयीं इसलिये कि इसके इस रूप का अन्त करके अपने महत् अत्युत आनन्द की दिव्य रूप प्रदान करने वाली प्रगाढ़ता में इसे परिणत कर दूँ।

अपनी सन्तानों के प्रति उनका मातृ प्रेम प्रगाढ़ और महान है। इसी से उन्होंने अन्धकार का यह आवरण ओढ़ना स्वीकार कर लिया है, तमस् और मिथ्या की शक्तियों के दारुण दुर्भाव और दुराक्रमण सह लेना मंजूर कर लिया है, जो जन्म-मृत्यु ही हैं, उसके तोरण द्वार के पार होने की वेदना को धार लिया है, सृष्टि की सारी व्यथा, सारा शोक और सारा कष्ट उठा लिया है, क्योंकि ऐसा मालूम हुआ कि यही एक उपाय है जिससे यह सृष्टि उठ कर आलोक, आनन्द, सत्य और सनातन जीवन को प्राप्त हो सकती है। यह महायज्ञ है जिसे कभी-कभी पुरुष का यज्ञ कहते हैं, पर जो इससे अधिक गंभीर अर्थ में, प्रकृति की ही पूर्ण आत्मबलि है, भगवती माता का ही महायज्ञ है।

जो ज्ञानी हैं। उन्हें वह अधिकाधिक एवं और भी विशद ज्ञान देती हैं, जिनमें दर्शन-शक्ति है उन्हें अपनी कल्पना और अभिप्राय में शरीक होने का अधिकार देती हैं, जो विरोधी हैं उन पर उस विरोध का परिणाम लादती हैं, जो अनजान और मूर्ख हैं उन्हें उन्हीं की अन्धता के अनुसार रास्ता दिखाती हैं। प्रत्येक मनुष्य के स्वभाव के भिन्न-भिन्न अंशों की आवश्यकता और प्रेरणा के अनुसार और जिस प्रतिदान के लिए वे आहुति देते हैं उसके अनुसार माता (महेश्वरी) प्रत्युत्तर देती हैं और उनका प्रयोग करती हैं, उन पर आवश्यक प्रभाव डालती हैं या उन्हें अपने प्रति स्वाधीनता के भरोसे छोड़ देती हैं जिसमें या तो अविधा के पथ पर समृद्धि लाभ करें या ध्वंस को प्राप्त हों। कारण वह सब के ऊपर हैं, जगत् के कोई किसी वचन से बँधी नहीं, किसी में आसक्त नहीं। तथापि उनका जो हृदय है वह विश्व जननी का हृदय है, ऐसा मातृ स्नेह इतना और किसी में नहीं है।

कारण, इनकी दया अनन्त और अक्षय है, उनकी दृष्टि में सभी उनकी सन्तान हैं, उसी एक के अनेक अंश है, असुर, राक्षस, पिशाच और जो उन से विद्रोह करते या शत्रुता करते हैं वे विद्रोही और शत्रु भी उनकी दृष्टि में अपनी सन्तान ही हैं। उनका प्रत्याख्यान केवल विलम्बन मात्र है, और उनका दण्ड विधान तो करुणा ही है।

ज्ञान और शक्ति, केवल ये ही दो रूप परमेश्वरी माता के नहीं हैं, उनकी प्रकृति में और भी सूक्ष्मतर एक रहस्य है और वह एक ऐसी चीज है कि जिसके बिना ज्ञान और शक्ति अपूर्ण ही रह जायेंगे और पूर्णत्व भी पूर्ण न होगा। इन ज्ञान और शक्ति के ऊपर सनातन सौंदर्य की अलौकिक चमत्कृति है, दैवी समन्वय का अगम्य रहस्य है, अप्रतिहत जगद्वयापिनी मनोहरता और आकर्षण का ऐसा वशीकरण है कि वह अपनी और सब वस्तुओं और शक्तियों और सत्ताओं को खींचता है, एकत्र बाँधे रहता है और उन्हें एक दूसरे के साथ मिलने और एक होने को विवश करता है जिनमें वह आनन्द जो परदे के के अन्दर छिपा हुआ है, वहाँ से अपना खेल खेले और उन्हें अपने स्वर और रूप बनावे। यह शक्ति है महालक्ष्मी की और कोई रूप इससे अधिक मोहक या आकर्षक नहीं है। महेश्वरी इस पार्थिव-प्रकृति की क्षुद्रता लिये इतनी अविचल और महान् और दूर मालूम हो सकती हैं कि यह वहाँ तक पहुँच न सके या उनका भाव धारण भी न कर सके, महाकाली भी इतनी द्रुतगति और प्रचण्ड हैं कि इस पार्थिव प्रकृति की दुर्बलता उनका भाव वहन न कर सके, पर महालक्ष्मी की ओर सभी बड़े आनन्द और लालसा के साथ दौड़ पड़ते हैं। कारण, वह भगवान के उन्मादक माधुर्य को मोहनास्त्र फेंक हैं, उनके समीप रहने में अगाध सुख होता है और अपने हृदय के अन्दर उन्हें मालूम करना जीव को आनंदोन्माद और कौतुकमय बना देना हैं, शोभा और मोहकता और मृदुता उनसे वैसे ही प्रवाहमान होती हैं जैसे सूर्य से ज्योति। जहाँ कही वह अपनी आश्चर्यमयी दृष्टि डालती हैं या अपनी स्मित कान्ति बरसाती हैं। वहाँ आत्मा अभिभूत हो जाता है, विमुग्ध होकर कैदी-सा बन जाता है और अथाह आनन्द की गंभीरता में निमग्न हो जाता है। उनके हाथों का स्पर्श चुम्बक के समान है और उनका रहस्यमय मृदु प्रभाव मन, प्राण और शरीर में लालित्यमय सूक्ष्मता ले आता है और जहाँ उनके चरण अवस्थित होते हैं वहाँ उन्मत्त कर देने वाले आनन्द के अपूर्व स्रोत बहने लगते हैं।


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