ब्रह्म की सर्वव्यापकता

October 1949

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(योगिराज अरविन्द)

ब्रह्म का न आदि है और न अन्त। वह अखण्ड है। उसके खण्ड-खण्ड नहीं किये जा सकते। इस पृथ्वी पर समस्त वस्तुओं की योजना इसी ब्रह्म से परिपूर्ण है। अनन्त ब्रह्माण्ड भी इसी के द्वारा प्रकाशित है। विश्व के समस्त तथा हर एक पदार्थ में व्याप्त रहने पर भी इसकी पूर्णता में किसी प्रकार की कमी नहीं आने पाती क्योंकि वह सदा ही पूर्ण है और पूर्णता ही इसका स्वभाव एवं प्राकृतिक गुण है।

यह ब्रह्म पूर्ण से भी पूर्ण है। इसलिए जिस वस्तु में यह पूर्ण ब्रह्म समाविष्ट रहेगा, वह वस्तु भी पूर्ण रहेगी। इसका अनुभव सिर्फ चैतन्य पदार्थों में ही नहीं करना है। ये तो संसार के जड़ पदार्थों में भी उसी प्रकार ओत-प्रोत है जिस प्रकार चेतन पदार्थों में। इसलिए जड़ और चेतन दोनों में ही उनकी पूर्णता का साक्षात्कार करना होगा। लेकिन हमारी ये स्थूल आँखें इस भूमण्डल के चप्पे-चप्पे को खोज डाले तब भी ब्रह्म का दर्शन नहीं कर पाती। तोते की तरह भगवान को रट लेने से तो किसी भी जन्म में भगवान का दर्शन नहीं हो सकता। स्वर्ग की पवित्र तेजोमय किरण से जिस दिन हमारी स्थूल आँखें प्रकाश प्राप्त कर लेंगी माया रूपी अन्धकार से निकल भागेंगी, जिस दिन ज्ञानरूपी सूर्य के प्रकाश से हमारे मन से शंकायें और भ्रम दूर हो जायेंगे। उसी दिन हम धन्य तथा कृतार्थ हो जायेंगे। उस दिन संसार को मोहित करने वाला भगवान का सत् चित् आनन्द मय रूप देखकर उसका दर्शन करके हम धन्य होंगे।

पर जब तक इस दिव्य चक्षु का उद्घाटन नहीं होता अर्थात् जब तक दिव्य नेत्र नहीं खुलते तब तक सारे साधन बेकार हैं। केवल दिखावा मात्र हैं। जिस दिन दिव्य चक्षु खुल जायेंगे उस दिन प्रतीत होगा कि इस संसार में कोई भी पदार्थ जड़ नहीं है। सबके भीतर प्राण, चेतना, मन और विज्ञान प्रतिष्ठित है। सब के भीतर लीलामय भगवान निवास करके अनन्त गुणों का आनन्द उपभोग कर रहे हैं। संसार में जितनी भी वस्तुएं हैं वह चाहे व्यक्त हों, अव्यक्त हों, या व्यक्तोन्मुखी हों प्रत्येक में भगवान अव्यक्त रूप से मौजूद हैं। दिव्य चक्षु प्राप्त हो जाने पर अव्यक्त रूप से स्थित भगवान की लीलाओं का दर्शन होना आरम्भ हो जाता है। प्रत्येक वस्तु के अन्तर में श्री भगवान चित रूप से विराजमान होकर भिन्न-भिन्न रसों का उपभोग करते हुए आनन्द लेते हैं। एक ही ब्रह्म अनन्त रूप से अनेक वस्तुओं में निवास कर रहा है लेकिन इससे यह नहीं सोच लेना चाहिए कि वह विभक्त होकर अंश रूप से व्याप्त है। भगवान विभक्त नहीं हो सकते। वे तो पूर्ण हैं और पूर्ण रहकर ही प्रत्येक में व्याप्त हैं। काल, स्थान तथा स्थिति का उनके ऊपर प्रभाव नहीं पड़ता। वे अभेद और अखण्ड होकर ही समभाव से विराजमान होकर अपनी लीला किया करते हैं। साधक को इस लीला को देख सकने की ही दृष्टि प्राप्त करनी है।


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