गरीब देश की अमीर सरकार!

October 1949

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(श्री जे. सी. कुमारप्पा)

ऐशोआराम की प्रवृत्ति राष्ट्र के सड़ने की निशानी है। उत्पादन का प्रमाण और उसका दर्जा बढ़ने के साथ ही यदि राष्ट्र के जीवन का पैमाना ऊँचा नहीं उठता है, तो वह रोग की निशानी है। यदि केवल ऐशोआराम की चीजों की खपत बढ़ती जाती है और उत्पाद एवं उत्पादन का गला घोटा जाता है, तो वह हालत खतरनाक हैं। हमारे देश में यह आखिरी हालत बड़े जोरों से अपना सिर ऊपर उठा रही है। उसके असर हमारी राजधानी नई दिल्ली में नजर आने लगे हैं। पाकिस्तान से हिन्दुस्तान में कई लोगों के चले आने से यह हालत बदतर हो गई है, क्योंकि इस प्रकार आये हुए लोग उत्पादन तो कुछ नहीं करते, पर ऊँचे दर्जे के उपभोक्ता जरूर हैं।

फिलहाल दिल्ली शहर खुद गरीबों के बूते किये जाने वाले तड़क-भड़क के प्रदर्शन का एक खासा उदाहरण है। वहाँ की वाइसराय की कोठी पुराने जमाने के मुगलों के ऐश्वर्य को भी मात देने वाली है। उसमें कुल 86 रहने के आलीशान कमरे और 56 गुसलखाने हैं। ये कमरे इक्के-दुक्के नहीं, परन्तु बम्बई के फ्लैट जैसे हैं और उनमें हर एक मध्यवर्गीय कुटुम्ब बड़ी आसानी से रह सकता है। पुराने जमाने में जब दिल्ली में राजसी ठाठ वाले होटल नहीं थे, तब इंग्लैण्ड के अमीर-उमराव आदि मेहमानों के ठहराने के लिए वाइसराय की कोठी एक होटल का काम भी देती थी, पर आज वही रफ्तार गरीबों से वसूल किये टैक्सों के बूते पर चालू रखने की हमें कोई जरूरत नहीं दीखती।

इस कोठी में कुल 312 नौकर हैं और 90 फर्राश है, जिनका मासिक वेतन रु. 25,000 यानी सालाना तीन लाख रुपया होता है। उनके ‘अदना’ मालिक वाइसराय का वेतन भी इन्कमटैक्स और सुपरटैक्स (यदि लगता हो तो) मिलाकर मासिक रु. 25,000 के करीब होगा। नौकरों की भड़कीली पोशाकों के लिए सालाना रु. 40,000 खर्च होता है।

इस कोठी के बगीचे का क्षेत्रफल 290 एकड़ है और वह “तमाम दुनिया में अपनी सानी नहीं रखता” ऐसी कोठी के अधिकारी डींग मारते हैं पर यह सब सम्भव होने के लिए उस बगीचे के लिए 363 वनस्पति विशेषज्ञ और माली रखने पड़ते हैं। इनका सालाना खर्च रु. 3,00,000 से अधिक होता है। कोठी का तमाम घर खर्च रु. 450,000 से ऊपर जाता है। कोठी की मरम्मत के लिए हर साल करीब रु 12,00,000 और फर्नीचर दुरुस्ती या टूट-फूट के लिए हर साल रु. 1,00,000 खर्च होते हैं। पूरे सामान और फिटिंग की लागत रु. 50,00,000 है।

यह सब खर्च परम्परागत चले आये हों सो बात नहीं है। अंग्रेज वाइसरायों के जमाने में भी ये खर्च इतने अधिक नहीं बढ़े थे। सन् 1948 में बगीचे का खर्च रु. 77,000 से कुछ अधिक था, पर आज का खर्च तो इससे पाँच गुना है। उसी प्रकार 1938-309 में घर खर्च रु. 1,80,000 था और आज वह इससे 2॥ गुने से भी अधिक है। केवल मुद्रास्फीति की बदौलत इतना फर्क नहीं पड़ सकता।

यह तो एक नंगे और भूखे भिखारी के ऊँची कीमत की टोपी पहनने-जैसा नादानपने का ही काम हुआ। जो लोग ऐसी बेतुकी बातें करते हैं, उन्हें कभी अपना बेतुकापन महसूस होता है या नहीं, ईश्वर ही जाने। उनकी दृष्टि से शायद यह सब जीवन का पैमाना ऊँचा उठाने जैसा ही हो! हमारे प्रधान मन्त्री हमेशा जीवन का स्तर ऊँचा उठाने की बातें करते रहते हैं, इसलिए शायद उन्हें पार्क रोड़ पर की अपनी कोठी ठीक नहीं मालूम हुई। और वे कमाण्डर इन चीफ के आलीशान महल में रहने चले गये। तमाम मंत्री एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर पार्टियाँ देने में मशगूल हैं, पर आम जनता के लिए उन्होंने क्या किया इसका यदि लेखा-जोखा तैयार किया जाय तो ‘कुछ नहीं’ यही बड़े दुःख के साथ में कहना पड़ता है।

इधर ऊँचे ओहदे वाले लोग इस प्रकार अच्छे-अच्छे महलों का उपभोग करते हैं तो उधर मामूली क्लर्क आदि लोगों को रात को सिर रखने के लिए भी जगह नहीं मिलती। इससे शायद यह भी सिद्ध हो सकता है कि महकमों के क्लर्कों की संख्या बेहिसाब बढ़ा दी गई है, जिससे महकमों की कार्यक्षमता भी घट गई है। असिस्टेंट ऑफिसर की रिर्पोट से पता चलता है कि सन् 1939 में कुछ 6472 रहने के क्वाटर्स थे और पिछले साल उनकी संख्या 15404 हो गई थी। 1939 में रहने के मकानों के लिए कुल अर्जियाँ 10,000 थीं जो बढ़कर पिछले साल 70,000 हो गई। दफ्तरों के लिए सन् 1939 में 7,57,000 वर्ग फीट जगह काफी थी पर पिछले साल वह 56,34,00 वर्ग फुट लग गई। इससे क्या यह अनुमान लगायें कि सरकारी महकमों की कार्यक्षमता बढ़ गई है? या इन्हें कोई रोग हो गया है? हमें यह याद रखना चाहिए कि 1939 के बाद हिन्दुस्तान का एक तिहाई हिस्सा पाकिस्तान में चला गया है। उसके बावजूद सरकारी नौकरों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि और उसी अनुपात में कार्य-क्षमता के बारे में शिकायतों की वृद्धि में बातें किसी खराबी की निश्चित द्योतक है।

हमें तो ऐसा डर लगता है कि ये सब हालतें अखिरी जार के जमाने के रूस की हालातों जैसी हो रही हैं। हम चाहते हैं और प्रार्थना करते हैं कि सब बातें रशियन क्रान्ति जैसी क्रान्ति के पूर्व चिह्न साबित न हों। एक तरफ साम्राज्यशाही ठाट-बाट और दूसरी तरफ भयंकर गरीबी और सारी चीजों का अभाव ऐसी हालत जब पैदा हो जाती है तभी क्रान्ति की सम्भावना रहती है, और आज अपने देश में ये हालतें अधिकाधिक दृष्टिगोचर हो रही हैं। समाजवादी और कम्युनिस्ट लोगों की धर-पकड़ यानी इस मर्ज के ऊपर से मरहम-पट्टी-जैसी है। पर, इससे मर्ज ठीक न होगा। हमारी व्यवस्था में अमूमन बदलाहट हो यही इस मर्ज की दवा है। क्या हमारे नेता लोग समय रहते चेत जायेंगे? या हमें रशियन-क्रान्ति के अग्नि दिव्य में से गुजरना पड़ेगा।


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