जीवन विधिपूर्वक जीना चाहिए।

October 1949

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(श्री सोमाहुति भार्गव, पावटी)

‘संकल्पमयो ह्यय’ पुरुषः यो यन्संकल्पः स पव सः।’ उपनिषद् के इस वचन से प्रमाणित होता है कि मनुष्य की आत्मा संकल्प से बनती बिगड़ती है। ‘इंसान खयालात का पुतला है’ से भी यही जाहिर है।

अन्यत्र भी यही कहा गया है, ‘यन्यनसा मनुते तद् वाचादति, यद्वाचा वदति तत्कर्मणा करोति, यत्कर्मणा करोति तत्फलमभिसंपद्यते’।

लोक में भी देखा जाता है, अपना जीवन भी साक्षी है कि बचपन में वह या उसके अभिभावक जो उसके लिए सोचते हैं, वह ही बन जाता है। सी. बाई. चिंतामणि कहते हैं लड़कपन में शिक्षा सचिव के स्वप्न लिया करते थे। सिन्हा अपने नाम के साथ बार-बार गवर्नर (लार्ड) लिखकर अपनी मनोवृत्ति दर्शाते रहते थे। हम देखते हैं कि वे तथा अन्य महापुरुष वैसे बन कर रहे जैसे कि वे बचपन में सोचा करते थे।

संकल्प को ‘व्रत’ भी कहते हैं। व्रत से ही कोई दीक्षित अर्थात् कर्म करने का अधिकारी बनता है। संक्षेप से वर्णित संकल्प की महिमा को पाठक हृदयंगम कर अभ्यास में लाकर लाभ उठावें। व्रत की बार-बार रटन द्वारा या पूर्व अभ्यास के बल पर एक बार ही तीव्र इच्छा करना अभीप्सा कहलाती है। आधुनिक योगियों में प्रथम कोटि के श्री. अरविन्द ईश प्राप्ति में इसी अभीप्सा के गुण को अनिवार्य बताते हैं। उनका कहना है, अभीप्सा जितनी बलवती होगी, उतनी ही फल प्राप्ति शीघ्रता एवं निश्चय से होगी। हमें चाहिए कि ऐसी बात न करें, जिसकी हमें वास्तविक आवश्यकता न हो। हृदय से चाहना या बार-बार चाहते रहने से ही इच्छा में शक्ति भर जाती है। ऐसे अभ्यासी आगे जाकर ऐसी सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं कि जो सोचा शीघ्र पूरा हुआ। ऐसे सिद्ध को साँकल्पिक पुरुष-उपनिषदों में लिखा मिलता है। श्री अरविन्द के भक्त उन्हें उसी प्रकार में परिकलन करते हैं। अभीप्सा सत्य पर आश्रित होकर, परोपकार की भावना से परिपूर्ण हो, पुरुषार्थ का सहयोग पाये एवं आगे वर्णन किये जाने वाली विधि से संयुक्त हो तो सिद्धि सुनिश्चित तथा तीव्रता से होती देखी जा सकती है।

विधि की महिमा सर्वोपरि है। भक्तजनों के विश्वासनुसार गोविन्द से गुरु की गरिमा अधिक इसी से गिनी गई है कि यह भगवान की प्राप्ति की तरकीब जतलाता-बताता है। ध्येय की पवित्रता के साथ साधन की शुद्धि पर महात्मा गाँधी बहुत बल देते थे। इसमें उनका निहित प्रयोजन यही था कि लोग विधिज्ञ बनें। उत्साह, सम्पन्नता, अदीर्घ सूत्रता (अभीप्सा) के साथ क्रिया विधिज्ञता से ही किसी भी क्षेत्र में मनुष्य सफलता लाभ कर सकता है। अभ्युदय व निःश्रेयस्सिद्धि जिस धर्म नाम से कथन की गई है वह विधि के कथनोपकथन से परिपूर्ण है।

आप ध्येय या लक्ष्य में मतभेद संसार में बहुत कम पायेंगे किन्तु अभीष्ट फल न पाकर विधि विभिन्नता को ही इसमें कारण समझ सकेंगे। कहा जाता है संस्कारों से जड़ ही नहीं चेतन भी संस्कृत व उन्नत किये जाते हैं, परन्तु संस्कारों की सफलता उस जीवन विधि पर निर्भर करती है जो दो संस्कारों के बीच बितानी अति आवश्यक है।

विधिज्ञ को ही आधुनिक भाषा में वैज्ञानिक कह सकते हैं। प्राचीनतम काल में भी अथर्ववेद की महिमा इसी से अत्याधिक मानी गई थी कि वह ऋग्, यजु तथा साम में वर्णित ज्ञान, कर्म, उपासना के क्षेत्र में आई कठिनाइयों को सुलझाने में समर्थ है। हम विधिज्ञ भी उसे ही मानेंगे जो पग-पग पर आई कठिनाई को हटाने में सुलझा हो तथा सिद्धि की अंतिम सीढ़ी तक पहुँचा दे, क्योंकि चढ़ना गिरना, संभलना साधारण रूप के साधना क्षेत्र में नित्य ही देखने में आते हैं।

विधिज्ञ को ही आधुनिक भाषा में वैज्ञानिक कह सकते हैं। प्राचीनतम काल में भी अथर्ववेद की महिमा इसी से अत्याधिक मानी गई थी कि वह ऋग्, यजु तथा साम में वर्णित ज्ञान, कर्म, उपासना के क्षेत्र में आई कठिनाइयों को सुलझाने में समर्थ है। हम विधिज्ञ भी उसे ही मानेंगे जो पग-पग पर आई कठिनाई को हटाने में सुलझा हो तथा सिद्धि की अंतिम सीढ़ी तक पहुँचा दे, क्योंकि चढ़ना गिरना, संभलना साधारण रूप के साधना क्षेत्र में नित्य ही देखने में आते हैं।


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