शास्त्र-मंथन का नवनीत

October 1949

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सा श्रीर्या न मदं कुर्यान्स सुखी तृष्ण योज्झित।

तन्मित्रं यत्र विश्वासः पुरुषः स जितेन्द्रियः॥1॥

लक्ष्मी वही श्रेष्ठ है जिसमें मद न हो, सुखी वहीं है जिसने तृष्णा को जीत लिया है, मित्र वहीं है जिसमें विश्वास और पुरुष वही है जो जितेन्द्रिय है।

क्वचिद्रुष्टः क्वचितुष्टो रुष्टस्त्तुष्टः क्षणे क्षणे।

अव्यवस्थितचित्तस्य प्रसादोऽपि भयंकरः॥2॥

कभी अप्रसन्न और कभी प्रसन्न, इस प्रकार जो मनुष्य क्षण-क्षण में असंतुष्ट और संतुष्ट होता रहता है, उसकी प्रसन्नता या कृपा भी भयानक है।

कष्टा वृत्तिः पराधीना कष्टो वासो निराश्रयः।

निर्धनो व्यवसायश्च सर्वकष्टा दरिद्रंता॥3॥

पराधीन जीविका से जीवन, आश्रय बिना निवास और धन बिना व्यवसाय बड़ा कष्टकारी होता है और दरिद्रता तो सब प्रकार से कष्ट देने वाली है।

आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म।

स्वाधीनता च पुँसाँ महदैर्श्वयं विनाप्यथैः॥4॥

धन न होने पर भी मनुष्य को आरोग्य, विद्वत्ता, सज्जनों के साथ मैत्री, श्रेष्ठ कुल में जन्म और स्वाधीन वृत्ति रखने से ऐश्वर्य प्राप्त होता है।

दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानमगर्वं क्षमान्वितं शौर्यम्।

वित्तं त्यागनियुक्तं दुर्लभमेतच्चतुर्भद्रम्॥5॥

मधुर वाणी के साथ दान, अहंकार रहित ज्ञान, क्षमा-युक्त वीरता और त्याग (दान) में नियुक्त धन ये चारों दुर्लभ हैं।

स जीवति यशो यस्य कीर्तिर्यस्य स जीवति।

अयशोऽकीर्ति सुयुक्तो जीवन्नपि मृपोपमः॥6॥

यशस्वी और कीर्ति वाले मनुष्य का ही जीवन है, कीर्तिहीन मनुष्य जीता हुआ भी मरे के समान है।

निन्दंतु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु।

लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्॥7॥

अद्यैव वा मरणमस्तु युगाँतरे वा।

न्यायात्पथः प्रविचलंति पदं न धीराः॥8॥

चाहे नीतिवान पुरुष निन्दा करें या स्तुति करें, लक्ष्मी रहे या जाय, मरण चाहे आज हो या युगाँतर में। परन्तु धीर पुरुष न्याय मार्ग से एक पद भी विचलित नहीं होते।

मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा-

स्त्रिभुवनमुपकारिश्रेणिभिः प्रीणयन्तः॥

परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं

निज हृदि विकसंतः संति संतः कियन्तः॥9॥

जिनका मन, वचन और शरीर पुण्य रूपी अमृत से पूर्ण है, जो अपने उपकारों से तीनों लोकों को प्रसन्न करते हैं, जो दूसरों के जरा से गुण को पर्वत के समान करके अपने हृदय को विकसित करते हैं, ऐसे सज्जन कितने हैं?

विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्।

पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनार्द्धमं ततः सुखम्॥10॥

विद्या नम्रता को देती है, नम्रता से योग्यता आती है। योग्य ही धन कमा सकता है और धन से धर्म और धर्म से सुख होता है।

अर्थागमो नित्यमरोगिता च

प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।

वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या

षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन्॥11॥

ये बातें सुख देने वाली होती हैं- नित्य धन, लाभ, नीरोगता, प्यारी और मीठा बोलने वाली स्त्री, आज्ञाकारी पुत्र और अर्थकारी विद्या।

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वर्ष-10 संपादक-श्रीराम शर्मा आचार्य अंक-10

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