महात्मा गाँधी की अमर वाणी

October 1949

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-बाप की इज्जत पर लड़का जैसे बहुत समय तक नहीं जूझ सकता, उसी तरह प्रजा अकेले प्राचीन हिन्दुस्तान के गौरव पर हमेशा अपनी शान नहीं दिखा सकती।

-आत्मा अमर है, देह क्षण-भंगुर है। कोई प्रवृत्ति परिणाम प्राप्त किये बिना रहती नहीं, यह सब हम बचपन से सीखते हैं। फिर मौत से क्यों डरते हैं।

-आदर्श से हम जितने संलग्न रहेंगे उतना ही वह दूर होता दिखाई पड़ेगा। उतने ही अधिक वेग से उसका अनुसरण करना ही पुरुषार्थ है। जब हम गिर पड़ेंगे तभी हम खड़े भी होंगे, हमें सुस्ती करना या पीठ दिखानी नहीं चाहिए- इतना ही काफी है।

-जब तक मनुष्य में कोई भी भलाई रहे तब तक उसका सत्कार करना चाहिए, पर जब मनुष्य अपना मनुष्यत्व त्याग देने का हठ करे, तब उसका त्याग करना मनुष्य मात्र का कर्त्तव्य हो जाता है।

-निश्चय समझ रखिये कि अगर हमारा जीवन संयममय हो जायगा तो हम जो चाहेंगे प्राप्त कर सकते हैं।

-प्राचीन काल में जीवन का आधार संयम था, पर आज-कल उसका आधार आनन्द-मंगल है। इसका फल यह हुआ है कि हम लोग बलहीन होकर कायर हो गये हैं।

-शिक्षा को जीविका का साधन बनाना मेरे विचार से तुच्छ वृत्ति है। जीविका उपार्जन का साधन शरीर है, फिर आत्मा पर यह बोझा क्यों लादा जाय।

-मस्तिष्क में भरे हुए ज्ञान का जितना अंश काम में लाया जाय उतने ही का कुछ मूल्य है, बाकी सब व्यर्थ बोझा है।

-भारतवर्ष के ऋषि-मुनियों का कथन है कि वेदादि सम्पूर्ण शास्त्रों का अध्ययन करके भी यदि मनुष्य ने आत्मा को न पहचाना, यदि समस्त बंधनों से मुक्त होने की पात्रता सम्पादित नहीं की तो उसका सारा ज्ञान व्यर्थ है। इससे तो श्रेष्ठ मत यह है कि जिसने आत्मा को जाना, उसने सब कुछ जान लिया। वर्णाज्ञान के बिना भी आत्म-ज्ञान होना सर्वथा संभव है।

-बालक के लिए लिखना-पढ़ना सीखने और साँसारिक ज्ञान प्राप्त करने के पहले इस बात का ज्ञात प्राप्त करना आवश्यक है कि आत्मा क्या है, सत्य क्या है, प्रेम क्या है और आत्मा के अन्दर कौन-कौन सी शक्तियाँ छिपी हुई हैं।

-वास्तविक शिक्षा का यह एक आवश्यक अंग होना चाहिए कि बालक इस बात का ज्ञान प्राप्त करे कि जीवन-संग्राम में वह प्रेम के द्वारा घृणा पर सत्य के द्वारा असत्य पर और कष्ट सहन के द्वारा बल प्रयोग पर बहुत सहज में विजय प्राप्त कर सकता है।

-यदि कोई मनुष्य तुम्हें जल पिलावे और उसके बदले में तुम भी उसे जल पिलाओ, तो तुम्हारा यह काम कुछ भी नहीं है। शोभा इसी में है कि अपकार करने वाले के साथ तुम उपकार करो।

-वास्तव में शोभा इसी में है कि अपकार के बदले में उपकार किया जाय।

-अहिंसा का, शान्ति का अर्थ नामर्दी नहीं है। उसका अर्थ शुद्ध मर्दानगी है। अहिंसा-अमन-का अर्थ पराधीनता-दुर्बलता नहीं। शौर्य हो वहीं क्षमा हो सकती है।

-मर कर जीने का मंत्र सीखना है। इस मंत्र का अनुसरण करके जगत जीता है। बीज मरता है तभी धान पकता है। माँ मरने के समान कष्ट भोगती है तभी बच्चा जीता है। यज्ञ बिना खाना, चोरी का धन है।


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