(श्री सच्चिदानन्द जी तिवारी, स्टेशन मास्टर, रीठी)
संसार में प्राणीमात्र जितने भी संकल्प अथवा कर्म करते हैं प्रायः उन सबसे किसी न किसी प्रकार की सुख प्राप्ति, अथवा दुःख से निवृत्ति की वासना अवश्य ही रहती है। यहाँ तक कि जो संकल्प स्वयं ही हमारे अन्दर उठते हैं अथवा जो कर्म इच्छा न रहते हुए भी हम से बन पड़ते हैं, उसकी जड़ में भी एक बहुत बड़ा अंश इसी वासना का अवश्य ही छुपा रहता है। कारण, कि जिन-जिन दशाओं में या जिन साधनों द्वारा हम सुख की प्राप्ति कर सकते हैं ऐसे कार्यों में हमारे अंतर्मन की स्वीकृति बनी रहती है, और इसके विपरीत स्थिति में हमारे अन्दर सूक्ष्म प्रतिद्वंद्विता के भाव क्रियाशील होने लगते हैं। उदाहरणार्थ, जो अंश हमारे भोजन में शरीर पोषण के लिए लाभदायक होता है वह अनिच्छा से खाने पर भी सुपाच्य है और पुष्टि कारक बन कर हमारे शरीर का अंग बन जाता है और इसके विपरीत या हानिकारक भोजन इच्छापूर्वक खाने पर भी हमारे शरीर का प्रत्येक अवयव उसे बाहर निकाल फेंकने की चेष्टा करने लगता है। हमारी इच्छा पूर्वक या अनिच्छा पूर्वक की हुई सभी क्रियाएं सुख प्राप्ति की कामना से सम्बद्ध होती हैं। इससे प्रकट होता है कि मनुष्य का जीवनोद्देश्य सुख की प्राप्ति है अब देखना यह है कि सुख-दुख का आधार क्या है। कई व्यक्ति सोचते हैं कि वस्तुओं की अधिकता या न्यूनता का सुख-दुख से साथ है पर वास्तव में ऐसी बात नहीं है। इच्छा की पूर्ति का नाम ही सुख है। यदि हम ऐसी इच्छाएं करें जो आसानी से पूरी हो सकें तो स्वल्प साधनों से भी सुखी रहा जा सकता है। इसके विपरीत यदि इच्छाएं ऐसी हों जिनको पूरा करना सुगम न हो तो समझिए कि सुख प्राप्ति से उतनी ही दूर तक वंचित रहना पड़ेगा।
जिस वस्तु की इच्छा होती है उस पर चित्त की एकाग्रता केन्द्रित हो जाती है, इसलिए वही सुख का केन्द्र बन जाती है। एकाग्रता एक ऐसी शक्ति है कि वह जहाँ भी होगी वहीं रस उत्पन्न हो जाएगा। चित्त की एकाग्रता से ही इन्द्रियाँ वासना जन्य सुखों का उपभोग करती हैं। यदि चित्त की उस वासना से घृणा या विरक्ति हो जाय तो इन्द्रियाँ स्वस्थ और पुष्ट होते हुए भी अपने विषय के लिए उत्सुक या इच्छुक न होगी।
हमको जो इन्द्रिय-ज्ञान प्राप्त होता है। वह चित्त की एकाग्रता द्वारा ही होता है। जैसे कि हम किसी सूक्ष्मदर्शी यंत्र द्वारा कोई वस्तु देखने में व्यस्त हैं और हमारे कमरे की घड़ी टनाटन 12 के घंटे बजा कर शान्त हो रही है, पर हम उन घंटों की आवाज न सुन सके कारण, कि उस समय सब तरफ से चित्त हटाकर उसकी एकाग्रता केवल चक्षु-इन्द्रिय पर ही एकत्र थी इसलिए कान सही सलामत होने पर भी श्रवणेन्द्रिय घड़ी के घन्टे सुन न सकी। ज्ञानेन्द्रिय का आकस्मिक परिवर्तन सुख को दुःख में और दुःख को सुख में परिवर्तित कर देता है, जैसे की आप किसी सुन्दर नर्तकी का रूप देखने में व्यस्त है कि आप को यह नहीं मालुम हुआ कि आपके पिता भी आपके बराबर खड़े होकर आपकी इस रूप रस पान रूपी निर्लज्जता का निरीक्षण कर रहे हैं और जैसे ही उन्होंने आपके सर पर अकस्मात चपत जमा कर आपका नाम लेकर आपको बुलाया तो तुरन्त आपका सुख, दुःख में परिवर्तित हो गया और वह सुन्दरी, राक्षसी प्रतीत होने लगी, इसी प्रकार समझ लीजिए कि आप नौकरी से निराश होकर विचार मग्न बैठे हुए भूखों मरने के कष्ट के दुःख का अनुभव कर रहे हैं और उसी समय पोस्टमैन आपको नौकरी मिलने का तार आपके हाथ में देता है तो अकस्मात ही आपका दुःख-सुख में बदल जावेगा।
अब आप समझ गये होंगे कि सुख और दुःख वास्तव में कोई वस्तु नहीं हैं- केवल हमारी इच्छा, प्रलोभन, आकर्षण, स्वार्थ, भय इत्यादि ही हमको सुख-दुःख प्राप्त कराते हैं पर जब हम उसको यथार्थता को समझ लेते हैं तो हमारे लिए सुख और दुःख दोनों ही कुछ नहीं के बराबर है। और जब हम सुख में आनन्द और दुःख में क्लेश का अनुभव ही नहीं करते तो हम को इनके प्राप्त करने या त्यागने की आवश्यकता या इच्छा नहीं होती और जब इच्छा ही नहीं होगी। तब संस्कार भी नहीं बनेंगे। जब संस्कार न होंगे तो फल भोगने की आवश्यकता ही नहीं। इतना सब हो जाने पर आप स्वयं उस परमानन्द रूपी सुख का अनुभव करेंगे जो किसी को प्राप्त नहीं होता और जो वास्तविक सुख है इसी को परम सुख कहते हैं और इसी का नाम परमानन्द की प्राप्ति है।
इस आनन्द को प्राप्त करने के लिए, स्वार्थ त्याग, संभावना, निस्वार्थ प्रेम, राग-द्वेष का परित्याग सर्व संसार को प्रभुमय देखना भगवान को कर्त्ता मान कर और अपने को अकर्त्ता मान सदैव कार्य करते रहना ही एकमात्र क्रिया जीव को बन्धन मुक्त करने वाली है। जो इस मार्ग को अपनाते हैं वे ही क्षणिक मिथ्यानन्दों में न उलझकर जीवन के चरमलक्ष-परमानन्द को प्राप्त करते हैं।