भक्ति प्राप्ति की सात साधनाएं?

October 1949

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(डा. गोपालप्रसाद ‘वंशी’ बेतिया)

सन्त श्री रामानुजाचार्य ने ‘भक्ति’ की प्राप्ति के लिए 7 साधनाएं बतलायी हैं-

1- विवेक (आहार मीमाँसा या खाद्यास्वाद्य विचार)

आहार के तीन दोष-

क- जाति विचार।

आहार के स्वाभाविक गुण या किस्म की ओर ध्यान देना चाहिए। सभी उत्तेजक वस्तुओं का परित्याग करना चाहिए।

ख- आश्रम विचार।

भोजन किस व्यक्ति के पास से मिला, इसका विचार। दुष्टता का प्रभाव भोजन द्वारा मिलता है।

ग- निमित्त विचार।

मैल और धूल इत्यादि चारों भोजन में न हों। किसी वस्तु का एक अंश किसी दूसरे ने खाकर छोड़ दिया हो तो उसे भी नहीं खाना चाहिए।

आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः

सत्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।

-छान्दोग्योपनिषद् 7-36

आहार की शुद्धि से मन की शुद्धि और मन की शुद्धि से परमात्मा का सतत और निरंतर स्मरण होता है।

जब इन्द्रियाँ बिना अत्यन्त आसक्ति के, ईर्ष्या द्वेष रहित और भय रहित होकर इस संसार में कार्य करती है, उसी कार्य का नाम है- ‘शुद्ध आहार’।

-शंकराचार्य

जब आहार शुद्ध है तभी मन पदार्थों को ग्रहण करने और उनके विषय में अनासक्त और द्वेष और भय से रहित होकर विचार करने में समर्थ हो सकता है, तब मन शुद्ध होता है और मन के शुद्ध होने पर ही इस मन में ईश्वर की सतत स्मृति-अव्याहत स्मृति निरन्तर जागृत रहती है।

2- विमोक्ष या स्वतंत्रता।

जो ईश्वर के प्रति प्रेम करना चाहता है उसे अपनी भौतिक उत्कृष्ट अभिलाषाओं का त्याग करना चाहिए। ईश्वर को छोड़ अन्य किसी बात की कामना नहीं करनी चाहिए।

3- अभ्यास।

मन सदा सत् तत्व की ही ओर जावे, कुविचारों और नीच वासनाओं का मनः क्षेत्र में स्थान न मिले। मन निरन्तर दिव्य विचारों में ही स्मरण करे। यह यद्यपि कठिन है, पर सतत अभ्यास से ऐसा हो सकता है।

4- क्रिया (कर्म)।

अपनी और दूसरों की भलाई करना। जितना ही हम अपना तथा दूसरों का उपकार करेंगे, उतना ही हमारे हृदय की शुद्धि होगी और उसमें परमात्मा का निवास होगा।

पाँच नित्यकर्म-

क- स्वाध्याय।

मनुष्य को प्रतिदिन कुछ पवित्र और सात्विक और प्रोत्साहन देने वाला अध्ययन करना चाहिए।

ख- देवयज्ञ।

ईश्वर देवता एवं सत्पुरुषों की उपासना।

ग- पितृयज्ञ।

अपने पितरों के प्रति कर्त्तव्य का पालन।

घ- मनुष्य यज्ञ।

मानव जाति के प्रति अपने कर्त्तव्य का ध्यान।

ड़- भूतयज्ञ।

मनुष्य की अपेक्षा नीची योनि वाले प्राणियों के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन।

5- कल्याण या पवित्रता।

इसके अंतर्गत पाँच बाते हैं-

क- सात्विकता या सत्यता।

विचार, प्राण और कार्य सभी पूर्णतया सात्विक एवं सत्य हों।

ख- आर्जव- निष्कपट भाव या सरलता। हृदय में कुटिलता या टेढ़ापन न होना।

ग- दया।

करुणा या सहानुभूति या सेवा भावना।

घ- अहिंसा।

मनसा, वाचा, कर्मणा किसी के साथ अन्याय न करना।

ड़- दान।

पीड़ितों, आपत्ति ग्रस्तों, असहायों को सामयिक सहायता देना तथा जनसमाज के आत्मिक विकास के लिए अपना समस्त, श्रम, धन और हृदय देते रहना।

6- अनवसाद।

हताश न होना- धैर्य और विवेक खोकर किंकर्त्तव्यविमूढ़ न होना। संपदा लाभ के समय अति दूषित या मदोन्मत्त न बनना। प्रत्येक भली-बुरी स्थिति में मन को शान्त एवं संतुलित रखना।

7- अनभिष्या।

दूसरों की वस्तु पर अनीति पूर्ण लोभ नहीं करना, व्यर्थ या अभिमान पूर्ण विचार न करना और दूसरों द्वारा अपनी जो हानि हुई हो, उसको सोचते न रहना। अपनी न्यायोपार्जित वस्तुओं से सन्तुष्ट रहना।

परम भागवत वैष्णव रत्न श्री रामानुजाचार्य जी महाराज ने भक्ति की साधना करने वाले भक्तों के लिए उपरोक्त सात साधनाएं बनाई हैं। जो इन साधनाओं को करता हुआ भगवद्भक्ति का उपासक है वही सच्चे रास्ते पर चलने वाला भक्त है। जो केवल नाम जप, कीर्तन, आदि कर्मकाण्डों तक सीमित रहते हैं और भक्ति प्राप्ति की उपरोक्त सात साधनाओं पर ध्यान नहीं देते वे अपने उद्देश्य में सफल हो सकेंगे इसमें भारी संदेह है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: