(प्रो. रामचरण महेन्द्र, एम. ए.)
जीवन के जिस मूल तत्व पर मैं विश्वास करता हूँ वह प्रगति है। मनुष्य का जीवन निरन्तर अग्रसर हो रहा है। वह आर्थिक, सामाजिक, आध्यात्मिक प्रत्येक दृष्टि से निरन्तर संघर्ष करता हुआ आगे बढ़ रहा है।
“आगे बढ़ना”- यही हमारा इष्ट है। आधुनिक विज्ञानवेत्ताओं का विश्वास है कि यदि मनुष्य इसी गति से बढ़ता रहा तो एक दिन वह परमेश्वर से सान्निध्य प्राप्त कर लेगा। उसमें उन सभी ईश्वरीय तत्वों का प्रचुर मात्रा में विकास हो जाएगा जिनका उल्लेख गीता के 16 वें अध्याय में किया गया है।
अनुभव हमारी सबसे बड़ी सम्पत्ति है, जो हम भाँति-2 के झंझटों, संघर्षों, हानि के पश्चात् प्राप्त करते हैं। अनुभव खरीदा नहीं जा सकता। एक कण अनुभव के लिए कभी-कभी भारी मूल्य चुकाना पड़ता है। अनुभव से हमें ज्ञात होता है कब, किस प्रकार हमें अग्रसर होना उचित है। औचित्य तथा अनौचित्य का निर्णय हम अनुभव के बल पर किया करते हैं।
अनुभव हमें बताता है कि संसार के कार्य कोरी स्कीमें या योजनाएँ बनाने से नहीं होते। जो जितना ही कागजी कार्यवाही करता है, वह उतना ही घाटे में रहता है, उसकी शक्ति का बहुत सा अपव्यय केवल कोरी बातों में ही हो जाता है। अतः जब ठोस कार्य करने का अवसर आता है तो उसे मुँह की खानी पड़ती है। वह वहीं का वहीं रह जाता है।
अनुभव हमें बताता है जब आप शंकित अवस्था में हों, मार्ग स्पष्ट न सूझता हो, तो ठहरिये। जब हमें कोई पथ-प्रदर्शन न हो, तो थोड़ी देर ठहर कर पथ-प्रदर्शन के लिए कोशिश करनी चाहिए। यह पथ-प्रदर्शन दैवी एजेंसी से हमें प्राप्त होता है। यदि हमारी अन्तरात्मा खुली रहे और बुद्धि निर्विकार रहे, तो वास्तव में यह पथ-प्रदर्शन आपको प्राप्त हो जायेगा। एक समय होता है, जब हमें ठहर कर चिन्तन करना उचित है किन्तु एक बार न्यायोचित योजना बना कर उससे पीछे सरकना उचित नहीं है।
किंतु हमें निरन्तर अपनी गति पर ध्यान रखना चाहिए। हम चाहे ठहर कर विश्राम कर लें, पर प्रगति तो चलनी ही चाहिए। शैथिल्य जीवन का सबसे बड़ा दुश्मन है, इससे सावधान रहें। लोहा जंग लग कर काम में आकर घिसने से पहले नष्ट होता है।
प्रकृति के विकास का नियम सब जगह कार्य करता है। उदाहरणार्थ यह देखा गया है कि पौधे बिना ठहरे (Pause) हुए विकसित नहीं होते। उनके विकास के क्रम हैं। वे एक स्थिति प्राप्त करने के पश्चात् कुछ ठहरते हैं, फिर विकसित होते हैं। एक बार ठहर कर वे नव-वेग से अग्रसर होते हैं, किंतु इन रुकावटों के बावजूद पौधे का विकास-क्रम नहीं टूटता। वह स्थिर नहीं होते, पीछे नहीं लौटते, निरन्तर आगे ही बढ़ते हैं, थोड़ी देर के लिए ठहरना उनके विकास की एक दशा मात्र है।
यही नियम हमारे आध्यात्मिक जीवन पर लागू होता है। कभी-कभी हम थक कर क्लाँत हो उठते हैं, मन प्रार्थना, चिंतन, मनन इत्यादि पर केन्द्रित नहीं होता, सब कुछ झंझट सा प्रतीत होता है। सब कुछ नियंत्रण तोड़ डालने को मन करता है। असंयम की ओर प्रवृत्ति होती है, मादक दृव्य हमें अपनी ओर खींचते हैं। साधक के लिए यह परीक्षा की घड़ी होती है। यहाँ उसके धैर्य और संयम की परीक्षा होती है। यदि वह किसी प्रकार एक रुकावट के पश्चात् पुनः क्रियाशील होकर चल उठा तब तो पुनः प्रगति होने लगती है, अन्यथा पतन प्रारंभ हो जाता है।
अपने आप से प्रश्न कीजिए- क्या मैं प्रतिदिन किसी निश्चित उद्देश्य की ओर बढ़ रहा हूँ? क्या मैं प्रतिदिन उस उद्देश्य के पास आने का सच्चाई से प्रयत्न करता हूँ? क्या मेरा पुरुषार्थ जागृत है? क्या मैं व्यर्थ के बहाने बना कर अपनी उन्नति रोकता तो नहीं हूँ?
स्मरण रखिए, आन्तरिक दृष्टि से आपको डांटने फटकारने वाला आपके पास अपनी आत्मा के अतिरिक्त कोई भी नहीं है। कोई भी आपसे आगे बढ़ने और उन्नति करने की अनुनय-विनय न करेगा। आप स्वयं ही अपने को बनाने और स्वयं ही बिगाड़ने वाले हैं।
जीवन तो सदैव प्रवाहित होने वाली, आगे को बहने वाली सरिता के समान गतिवान है। इसमें ठहराव नहीं है, प्रवाह और गति है। हमें अपने दैनिक जीवन में यही ध्यान रखना है कि हम अपने कार्यों से क्या निरन्तर उस दौड़ को कायम रख रहे हैं या हार कर कहीं बैठ गये हैं?