आत्म निरीक्षण कीजिए।

March 1949

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(ले.- अमरचन्द नाहटा)

पशु-पक्षी और मानव में यदि कोई अन्तर है तो विचार करने की शक्ति का। पशु में विचार करने की शक्ति का तथा विधि विकास न होने के कारण उसकी प्रवृत्ति गतानुगतिक एक दूसरे के अनुकरण रूप ही अधिक नजर आती है। उसमें संशोधन करना, नये-नये तरीके निकालना, विचार के बल पर ही हो सकता है। साधारणतया मानव में भी विचार न करने पर गतानुगतिक प्रवृत्ति ही अधिक पाई जाती है और वास्तव में वह उसमें पशुपन का अवशेष ही समझिये। इसका मतलब वह कभी भी नहीं कि अनुकरण करना बुरा है या नहीं करना चाहिए पर किसी का अनुकरण करना हो तो विचार एवं समझपूर्वक होना चाहिये यही मानवता की कसौटी है। हम कोई भी प्रवृत्ति क्यों कर रहे हैं? इसके लाभालाभ का विचार किए बिना केवल अन्याय कर रहे हैं अतः हम भी करते रहें, यही भावना विकास में आगे बढ़ने में रुकावट डालती है, पर विश्व के प्राणी ऐसे ही अधिक मिलेंगे। इसीलिए “गतानुगतिको लाकः” की उक्ति प्रसिद्धि में आई है। वास्तव में मनुष्य होने के नाते हमें विचारों का विकास करते रहना अत्यन्त आवश्यक है। अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति का चेक-जाँच करते रहना आवश्यक है कि यह क्यों की जा रही है? इससे कितना लाभ व क्या हानि है? इसमें क्या कमी है एवं कैसे सुधार कर अधिक “सत्यं शिवं सुन्दरम्” की प्राप्ति की जा सकती है। इस प्रकार के जाँच पड़ताल ही आत्म निरीक्षण है और प्रत्येक मानव के लिए इसकी उपयोगिता निर्विवाद है।

हम में बहुत सी कमियाँ व दोष हैं, उनमें कभी न होने का प्रधान कारण आत्मनिरीक्षण नहीं करना ही है। वास्तव में उसके अभाव में हम अपने दोषों की ओर ध्यान नहीं देते। हम ओघ संज्ञा से यंत्रवत् क्रिया करते हैं पर उसमें जो दोष व कमियाँ हैं उनका हमें विचार न होने के कारण अनुभव ही नहीं होता। जब किसी दोष को जानते ही नहीं तो उसके सुधार का प्रयत्न होगा ही कहाँ से? हम न करने योग्य काम कर बैठते हैं, नहीं बोलने योग्य बोल देते हैं, नहीं विचारने योग्य बातों की उलझन में फंस अपना अहित कर बैठते हैं। आत्म निरीक्षण द्वारा इन सारी बातों की रोकथाम होती है, अपनी गलती सुधारी जाती है, दोष दूर किये जा सकते हैं, करने योग्य कार्य करने की नई प्रेरणा मिलती है, अतः थोड़ा भी पर नियमित रूप से आत्म निरीक्षण अवश्य करिये।

कोई भी व्यापारी अंधाधुँध व्यापार करता रहता है पर साथ ही उसके लाभ या नुकसान की ओर भी ध्यान रखता है। रोज नहीं, महीने में नहीं तो वर्ष में एक बार खाता तैयार कर आँकड़ा जोड़कर अपने व्यापार का निरीक्षण अवश्य करता है, जो नहीं करता वह सच्चा व्यापारी नहीं है। व्यापारी के लिए हिसाब किताब की जाँच अत्यन्त आवश्यक है। इसके बिना उसका व्यापार चौपट हो जायगा। कौन सा व्यापार करने में कितना नुकसान? हुआ वह क्यों हुआ? जब तक इसका ज्ञान नहीं प्रगति हो ही नहीं सकती। इसी प्रकार हमने इस मानव संसार रूप व्यापार मंडी में आकर क्या अच्छा व बुरा किया, ऊंचे उठे या नीचे गिरे, इसका लेखा-जोखा आत्म-निरीक्षण द्वारा किया जाता है। प्रवाह में न बहकर आत्म निरीक्षण करते हुए आगे बढ़ते जाइये।

हमारे में आज बहिर्मुखी वृत्ति दिनों दिन बढ़ रही है। दूसरों की आलोचना करते रहने के आदी हो गये हैं पर अपने दोषों को जानते हुए भी भुलाने की व्यर्थ कोशिश करते हैं। हमारी कहनी और करनी में बहुत ही विषमता है। मिथ्याचार व ढोंग का ही पोषण हो रहा है। अवगुण दृष्टि ही हमारा अधःपतन कर रही हैं। जो दोष दूसरों में देख रहे हैं वे अपने में भी न्यूनाधिक अंशों में विद्यमान हैं ही, पर आत्म निरीक्षण की प्रवृत्ति न होने से उनकी ओर ध्यान ही नहीं जाता। कभी जाता है तो उसे दोषों में शुमार न कर टाल देने की ही हमारी प्रवृत्ति है।

विश्व के बड़े से बड़े महापुरुषों ने यह गलती की, उन्हें ऐसा करना चाहिए था, वे क्या जानते हैं? इत्यादि तुच्छता सूचक छोटे मुँह बड़ी बात करते हमें तनिक भी संकोच नहीं होता, पर स्वयं करते धरते कुछ नहीं। नित्य प्रातःकाल हम समाचार पत्र पढ़ते हैं, रेडियो सुनते हैं, जगत भर की चिंता हमें लगी है पर अपनी हमें कुछ भी चिन्ता नहीं। विश्व की बातें जानने व बघारने वाले भी अपनी आत्मा के ज्ञान से सर्वथा कोरे हैं। हमारे महर्षियों ने ठीक ही कहा है कि जहाँ तक निज स्वरूप को नहीं जाना, विश्व का ज्ञान संचय करने पर भी तत्वतः कुछ भी नहीं जाना, क्योंकि सारे ज्ञान का मूल उद्देश्य आत्मा को उन्नत बनाना है पर बाह्य ज्ञान तो अहंकार को ही बढ़ाता है। महापुरुषों का यह अनुभव वाक्य भी सोलह आने सही है कि आत्महित में परहित स्वयं हो जाता है। पर केवल परहित में आत्महित होता भी है और नहीं भी होता। अर्थात् सबसे पहला काम आत्म सुधार व आत्मोन्नति है। यदि हम सदाचारी हैं तो जगत को सदाचार के प्रति अपने आचरण द्वारा आप से आप आकर्षित कर रहे हैं, पर केवल दूसरों को लम्बे-लम्बे उपदेश सुनाते हैं वहाँ आत्मवंचना ही पल्ले पड़ती है। अतः आत्म निरीक्षण का अभ्यास डालिये, यही आत्मोत्कर्ष का पहला सोपान है।

दिनभर में आपने क्या-क्या अच्छे व बुरे कर्म किये रात के समय उनको स्मरण कर अपने दोषों को सतर्कता से कम करने का व हटाने का अभ्यास डालिये। आत्म निरीक्षण पण द्वारा आप बहुत सी गलतियों को सुधार सकेंगे व भविष्य में उन्हें करने में असमर्थ हो सकेंगे। गलती करना अपनी कमजोरी है और दूर करने वाले भी हम ही हैं, तो फिर अभी हो तो सुधार के लिए तैयार क्यों न हो जायं।


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