वैदिक शंखनाद

March 1949

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भद्रं नो अपि वातय मनो दक्षमुत क्रतुम्।

ऋग्-10-25-1।

“हे प्रभो! तू मेरे अन्दर उत्साह, बल और कर्म को फूँक दे।”

प्रेता जयता नर इन्द्रो वः शर्म यच्छतु।

उग्राः वः सन्तु बाहवाऽनाधुष्या यथासथ॥

ऋग् 10-103-13

ऐ वीरो! उठो, आगे बढ़ो, विजय प्राप्त करो। तुम्हारी भुजाएं उग्र हों ताकि तुम कभी पराजित न हो सको।

उद्बुध्यध्वं समनसः सखायः

समग्निमिन्ध्वं बहवः रानीडाः।

दधिक्रामग्निमुषसं च देवी-

मिन्द्रावतोऽवसे निहये वः॥

उठो, जागो, हे भाइयो! मनोबल से अनुप्राणित हो जाओ। एक राष्ट्र के वासी तुम सब अपने अन्दर उत्साह की अग्नि को प्रदीप्त करो। तुम्हारी रक्षार्थ मैं उस “अग्नि” का आह्वान करता हूँ, जिसे धारण करते ही मनुष्य क्रियाशील हो उठता है। तुम्हारी रक्षार्थ मैं प्रकाश से जगमगाती हुई उस “उषा” का आह्वान करता हूँ, जिससे जीवन ज्योतिर्मय हो उठता है। अपने जीवनों को ‘अग्निमय’ बनाओ, अपने जीवनों को ज्योतिर्मय बनाओ।

इच्छन्ति देवाः सुन्वन्तं, न स्वप्नाय स्पृहयन्ति। यन्ति प्रमादमतन्द्राः॥ ऋग् 08-2-18

जो व्यक्ति जाग कर शुभ कर्मों में लगता है उसी को देवता चाहते हैं, सोये पड़े रहने वाले से वे प्रीति नहीं करते। अच्छी तरह समझ लो प्रमादी की कोई मदद नहीं करता।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: