सन्तों के लक्षण

March 1949

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(पं. तुलसीराम शर्मा, उडिया बाबा का स्थान, वृन्दावन)

मूकःपरापवादे परदारनिरीक्षणेऽप्यन्घः

षंगुःपरधनहरणे, स जयति लोकत्रये पुरुषः॥

दूसरे की निन्दा में मूक (चुप) पर स्त्री दर्शन में अन्धे, परधन हरण में पंगु (बिना पैर के) ऐसे पुरुष की तीनों लोक में जीत होती है।

सन्तस्तृणोत्सारणमुक्तमाँगा-

त्सुवर्णकोटयर्पणमानयन्ति।

प्राणाव्ययेनापि कृतोपकाराः

खलाः परे वैरमिवोद्वहन्ति॥

सज्जन पुरुष के मस्तक से यदि कोई तिनका उतार ले (थोड़ा सा भी उपकार कर दे) तो वे करोड़ों स्वर्णदान के बराबर मानते हैं। नीच पुरुष का तुम प्राण देकर भी उपकार दो तो वे उल्टा बैर ही मानेंगे।

क्षारं जलं वारिमवः पिवन्ति

तदेव कृत्वा मधुरं वमन्ति।

संतस्तथा दुर्जनदुर्वचाँसि,

पीत्वाचसूक्तानिसमुद्गिरन्ति॥

समुद्र के खारी जल को मेघ पीते हैं उसी को मीठा करके वर्षाते हैं। इसी प्रकार सन्तः दुर्जनों के कटुवचनों को सुनकर मीठे वचन बोलते हैं।

मनसिवचंसिकाये पुण्यपीयूषपूर्णास्त्रिभुवन-

मुपकार श्रेणिभिः प्रीणयन्तः। परगुण परमाणू-

न्वपर्वतीकृत्य नित्यं निजहृदिविकसन्तः सन्ति सन्तः

कियन्तः॥

मन, वाणी तथा शरीर से जो पुण्यकार्य करते हैं, उपकार से तीनों लोकों को प्रसन्न रखते हैं, दूसरे के थोड़े गुणों को अधिक मानते हैं और हमेशा प्रसन्न मुख ऐसे पुरुष इस संसार में बिरले हैं।

तृष्णाँ छिन्धि, भज क्षमाँ, जहि मदं, पापेरतिंमाकृथाः। सत्यं बूह्यनुयाहि साधुपदवीं, सेवस्वविद्वज्जनान्॥ मान्यान् मानय विद्रिषोऽप्यनुनयह्याच्छादयरुवान गुणान्। कीर्तिं पालय दुःखितेकुरुदयामेतत्सताँ लक्षणम्॥

तृष्णा (धन की अधिक लालसा) का छेदन करो, क्षमा (अन्य का अपराध सहना) का सेवन करो, मद्य का त्याग करो, पाप कर्म में प्रीति मत करो, सत्य भाषण करो, सज्जनों के मार्ग पर चलो, विद्वानों का सेवन करो, पूज्यों का आदर करो, शत्रुओं का भी आदर करो, गुरु आदि में नम्र भाव रखो, कीर्ति का विस्तार करो, दुखितों पर दया करो, इस प्रकार का व्यवहार रखना सज्जन पुरुषों का लक्षण है।

आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः।

परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति॥

इस संसार में अपने लिए कौन मनुष्य नहीं जीता है परन्तु जिसका जीवन परोपकार के लिए है उसका ही जीवन, जीवन है।

नद्विषन्ति नयाचन्ते परनिन्दाँ न कुर्वते।

अनाहूता न चायान्ति तेनाश्मानोपिदेवताः॥

न किसी से बैर है न किसी से याचना है न किसी की निंदा करते हैं बिना बुलाये आना-जाना नहीं, इसी से पत्थर की मूर्ति भी देवता है। मनुष्य को भी चाहिये कि किसी से बैर, याचना और निन्दा न करे तो प्रतिष्ठा को प्राप्त होगा।

निर्बैरः सदयः शान्ताँ दंभाऽहंकारवर्जितः।

निरपेक्षोमुनिर्वीतरागः साधुरिहोच्यते॥ 2॥

(पद्म पु. उत्तरखण्ड अ. 99)

बैर रहित, दया वाला, शाँत चित्त (राज द्वेष रहित) पाखण्ड और अहंकार से रहित निरपेक्ष (किसी विषय की चाहना नहीं) आसक्ति रहित पुरुष साधु कहाता है।

वर्ष-10 संपादक-श्रीराम शर्मा आचार्य अंक-3


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