बुद्धिमानों! बुद्धि का सदुपयोग करो।

March 1949

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हर आदमी विद्या बुद्धि की शक्ति से सम्पन्न नहीं होता। किन्हीं बिरलों को ही यह ज्ञान सम्पदा मिलती है। सृष्टि में चौरासी लाख प्रकार के जीव जन्तु, कीट-पतंग, पशु-पक्षी बताये जाते हैं, इनमें नाममात्र की बुद्धि होती है, उसके सहारे वे बेचारे मुश्किल से अपनी जीवन यात्रा पुरी कर पाते हैं। उनका बुद्धिबल इतना कम होता है कि कई बार तो उन बेचारों को छोटी-2 अड़चनों के कारण अपने प्राण तक गंवाने पड़ते और आये दिन तरह-तरह के दुख भोगने पड़ते हैं। यदि उनकी बुद्धि थोड़ी अधिक विकसित रही होती तो वे भी मनुष्य की भाँति सुखी और समृद्ध रहे होते। परन्तु कर्म की गहन गति के कारण उन्हें वह साधन प्राप्त नहीं है, फलस्वरूप मनुष्य की अपेक्षा कई दृष्टियों से अधिक सक्षम होते हुए भी जैसे तैसे जीवन का भार ढो रहे हैं।

मनुष्य अनेकों अन्य जीव जन्तुओं की तुलना में बहुत पिछड़ा हुआ है। पक्षियों की तरह वह आकाश में नहीं उड़ सकता, कच्छ-मच्छ की तरह जल में किलोल नहीं कर सकता, हिरन और घोड़े की बराबर दौड़ नहीं सकता, हाथी की बराबर बोझ नहीं ले जा सकता, सिंह-व्याघ्र जैसा बलवान नहीं, भेड़-बकरी की तरह घासपात खाकर गुजारा नहीं कर सकता, उल्लू और चमगादड़ की तरह रात्रि में भली प्रकार देख नहीं सकता, ऊंट की तरह कई दिन बिना खाये नहीं गुजार सकता, सर्प की तरह सैकड़ों वर्ष नहीं जी सकता, जुगनू की तरह चमक नहीं सकता, मोर सा सुन्दर नहीं, बन्दर सी छलाँग नहीं मार सकता, सर्दी-गर्मी को बर्दाश्त नहीं कर सकता, इतना निर्बल, पिछड़ा हुआ होते हुए भी अन्य समस्त जीव जन्तुओं से वह आगे बढ़ा हुआ है, सृष्टि का मुकुटमणि है, सबका नेता तथा स्वामी है, इतनी बड़ी सफलता का कारण है उसका बुद्धि बल। इस बुद्धि बल ने ही उसे एक साधारण प्राणी से महान मानव बना दिया है।

नीति का वचन है कि “बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धिस्य कुतोबलम्” जिसमें बुद्धि है उसमें बल है, निर्बुद्धि में बल कहाँ से आया? जो जितना ही बुद्धिमान है वह उतना ही बलवान है। बुद्धिहीन का सारा बल निष्फल हो जाता है। मनुष्य ने इस बुद्धि बल के द्वारा ही इतना प्रभुत्व प्राप्त किया है। इसी की न्यूनाधिकता के कारण मनुष्य-2 के बीच में अन्तर दिखाई देता है। साधारणतः मानव प्राणियों के शरीर और आकृति में कोई भारी अन्तर नहीं होता, फिर भी राजा-रंक, धनी-दरिद्र, विद्वान-मूर्ख, सत्तारूढ़-पराश्रित, शोषक-शोषित, पुण्यात्मा-पापी, महापुरुष-दीनहीन, चतुर-भोंदू के बीच जमीन आसमान का अन्तर पाया जाता है। एक पालकी में बैठकर चलता है एक पालकी को उठाता है। एक की उंगलियों के इशारे पर लाखों करोड़ों प्राणियों की गतिविधि होती है, एक दूसरों द्वारा कठपुतली की तरह नचाया जाता है। एक का सर्वत्र जयघोष होता है और उसके चरणों पर सर्वस्व अर्पित किया जाता है। दूसरी ओर एक ऐसा व्यक्ति है जिसे कोई आँख उठाकर भी नहीं देखता। इतना भारी अन्तर शरीरों के कारण नहीं, बुद्धिबल के कारण है, जिसमें जितना बुद्धि तत्व अधिक है वह उतना ही बड़ा आदमी बन जाता है।

बुद्धि की महत्ता सर्वोपरि है। यह मनुष्य के लिए एक ईश्वरीय वरदान है। सृष्टि के सब जीवों को यह बुद्धिबल प्राप्त नहीं है, यहाँ तक कि सब मनुष्यों को भी वह पर्याप्त मात्रा में प्राप्त नहीं है। असंख्य मनुष्य ऐसे है जिनके पास नाम मात्र का बुद्धि तत्व है। उसकी मात्रा इतनी न्यून है कि जीवन यापन का कार्य चलाने के अतिरिक्त उसके द्वारा और कोई बड़ा काम नहीं कर सकते, उस थोड़ी सी बुद्धि से जब वे अपना उदर पोषण ही मुश्किल से कर पाते हैं तो उसके द्वारा कोई महान कार्य करना, यश प्राप्त करना या दूसरों का उपकार करना किस प्रकार संभव है? बहुत थोड़े मनुष्य इस संसार में ऐसे हैं जिनको विशिष्ट बुद्धिबल प्राप्त है, जो दूर की सोच सकते हैं, जिनको बारीक बातें सोचने की क्षमता है, जिनका विवेक परिमार्जित है, जो बहुश्रुत हैं, जिन्होंने विशाल अध्ययन किया है एवं जो अपने बुद्धिबल से असाधारण कार्य करने की क्षमता रखते हैं।

यह बुद्धिबल परमात्मा ने जिन विशिष्ट व्यक्तियों को दिया है वह एक विशेष उद्देश्य से दिया है। ज्ञान परमात्मा की अमानत है, धरोहर है, वह इसलिए दी गई है कि इस अमानत को वह परमात्मा की इच्छानुसार उसके बताये हुए प्रयोजनों के लिए खर्च करे। जिस किसी को भी परमात्मा असाधारण विशेषताएं देता है, इसी उद्देश्य से देता है कि वह उनके द्वारा सृष्टि के अन्य प्राणियों को लाभ पहुँचावे। जिन मनुष्यों को असाधारण बुद्धिबल दिया गया है उनके लिए परमात्मा ने यह कर्त्तव्य नियत कर दिया है कि वे उस शक्ति को अपने से कमजोरों के लिए, कम बुद्धि वालों के लिए निरन्तर वितरण करते रहें।

बुद्धिमानों का परम पवित्र उत्तर दायित्व यह है कि वे अपने बुद्धिबल को जन कल्याण के लिए लगावें। उन्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि हमने परिश्रमपूर्वक इतनी विद्या प्राप्त की है तो इससे हम भोग ऐश्वर्य उठाकर ऐश आराम क्यों न करें? मजे-मौज क्यों न उड़ावें? ठाठ-बाट जमाने और गुलछर्रे उड़ाने में इसका उपयोग क्यों न करें? ऐसा सोचना उचित नहीं। एक राजा अपने नौकरों को नियत मात्रा में वेतन देता है, जिससे वे अपना गुजारा कर सकें परन्तु किसी विशेष कर्मचारी को वह विश्वास पात्र समझ कर उसे खजांची नियुक्त करता है और उसके पास बड़ी-बड़ी रकमें जमा करता है। यह रकमें इसलिए खजांची को दी जाती है कि वह उन्हें सुरक्षित रखे और सिर्फ उन कामों में खर्च करे जिनके लिए राजा आज्ञा दे, राज का हित हो। यदि वह खजांची इस प्रकार सोचने लगे कि राजा मुझ पर प्रसन्न है, उसने मेरी योग्यता के अनुसार मेरे पास इतना धन रख दिया है तो मुझे यह अधिकार है कि मैं इसका मनमाना उपयोग क्यों न करूं? अपने मौज मजे के लिए यह धन क्यों न खर्च करूं? तो ऐसा सोचना उस खजांची के लिए अनुचित होगा। यदि खजांची को मौज मजा करने के लिए इतना धन राजा ने दे दिया है तो अन्य कर्मचारी, जो उसी प्रकार दिन भर परिश्रम करते हैं, उन्हें भी उतना-उतना ही धन उसी प्रकार खर्च करने के लिए क्यों नहीं दिया? यदि नहीं दिया तो राजा को पक्षपाती ठहराया जायगा। यही बात परमात्मा के बारे में कही जा सकती है। इसके सभी पुत्र समान है, वह समदर्शी है, निष्पक्ष है, पर वह इस प्रकार पक्षपात क्यों करेगा?

हमें यह बात भली प्रकार समझ रखनी चाहिए कि साधारण प्राणियों की अपेक्षा जो भी वस्तु हमें विशेष रूप से मिली हुई है वह केवल इसलिए मिली हुई है कि उसके द्वारा हम अपने से कमजोरों की सहायता करें। बन्दूक हर किसी को नहीं दी जाती, उसे रखने का लाइसेन्स हर किसी को प्राप्त नहीं होता परन्तु राजा अपने पहरेदारों को, सैनिकों को बढ़िया-बढ़िया बन्दूक, हथियार राज्य की रक्षा के लिए अमानत की तरह दिये जाते हैं। यदि वे पहरेदार या सिपाही उन हथियारों के प्रयोजन को भूलकर अपने निजी लाभ के लिए उनका उपयोग करें, डकैती डालने के काम में लावें, उनसे डरा धमका कर किन्हीं को लूटें, अपने व्यक्तिगत कारणों के लिए किसी पर हमला करें या उन हथियारों को किराये पर उठावें या बेचें तो उनके यह कार्य सर्वथा अनुचित, अन्याय युक्त, कानून के विरुद्ध ठहराये जावेंगे और जब राजा को यह पता लगेगा कि इन कर्मचारियों ने मेरी विशेष अमानत को अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति मान लिया और उसका मनमाना उपयोग किया तो वह बहुत क्रुद्ध होगा। उन कर्मचारियों को दंड देगा और अपने दिये हुए हथियार वापिस छीन लेगा। बुद्धिबल या अन्य बलों के बारे में भी यही बात है। वह एक प्रकार के हथियार हैं, जिनका उपयोग केवल मात्र ईश्वरीय प्रयोजन के लिए, संसार में धर्म वृद्धि के लिए, लोकहित के लिए, जन कल्याण कि लिए, परमार्थ के लिए ही किया जाना चाहिए।

सूर्य को प्रकाश और गर्मी का केन्द्र बताया गया है। क्या वह उस प्रकाश और गर्मी का उपयोग अपने मौज मजे के लिए करता है? नहीं, वह उस प्रकाश और गर्मी को निरन्तर अन्यों के लिए वितरित करता रहता है। असंख्यों प्राणी उसकी शक्ति से जीवन धारण करते हैं। चन्द्रमा की शीतल चाँदनी क्या उसके निज के उपयोग में आती है? नहीं, वह बेचारा अपनी उस अमृतमयी चन्द्रिका का संतप्त लोगों को शान्त करने के लिए वितरित करता फिरता है। वायु दिन रात क्यों चलती है? दिन रात बिना विश्राम किये घर पर जाकर दूसरों पर पंखा क्यों झलती रहती है? क्या इसके बदले में कोई ऐश आराम उसे मिलता है? नहीं कुछ भी नहीं। वायु जानती है कि मुझे जो प्रचण्ड शक्ति प्राप्त है वह परमात्मा की अमानत है। उसका व्यय मुझे उसके परमप्रिय पुत्रों के लिए, प्राणियों के लिए ही करना है।

नदियों को देखिए, जल का भार लिए सदैव दौड़ती रहती हैं, प्राणियों की तृषा शान्त करना और प्यासी भूमि को तृप्त करना ही एकमात्र उनका कार्य है, सरोवरों को देखिए, वे दूसरों के लिए जीवित हैं, अपना उनका क्या स्वार्थ है? समुद्र अपना जल, मेघ मालाओं को निरन्तर देता रहता है ताकि वे भूमंडल पर वर्षा करके उसे हरी भरी बनावें। क्या समुद्र ने कभी ऐसा कहा है कि जल मेरे लिए मिला है, उसका उपयोग किसी को न करने दूँगा। अगर समुद्र की मनोवृत्ति हमारी जैसी होती तो वह कहता-”मैंने जल कमाया है, मैंने अपनी चतुराई से संचय किया है, मुझे इसका लाभ उठाने का पूरा अधिकार है। जिसे पानी लेना हो मुझसे मोल ले जाय, मेरे यहाँ कोई खैरात थोड़े ही बटती है।” परन्तु नहीं, समुद्र हमारी तरह ओछा, स्वार्थी, संकीर्ण, अनुदार और मूर्ख नहीं है जो पराई अमानत पर अपना अधिकार जमावे और उसको तुच्छ स्वार्थ के लिए ही उपयोग करने का दुस्साहस पूर्ण दुराग्रह करे।

वृक्षों को देखिए। वे अपने सुमधुर फल, शीतल छाया, लकड़ी, फूल, गोंद आदि हमें देते हैं, अपने पुराने पत्तों से हमारे लिए भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाते हैं, क्या इसके बदले में उन्हें कुछ मुआवज़ा दिया जाता है। अगर हमारी तरह कुछ वृक्ष भी तराजू ले बैठते कि बिना कीमत दिये नहीं मिलेगा तो बुरा होता। पुष्प हमारा चित्त प्रसन्न करते हैं, औषधियाँ हमें भयंकर बीमारियों से उबारती है, वनस्पति और अन्न हमारे लिए शाक भाजी और भोजन की व्यवस्था करते हैं, गाय, बैल, भैंस, बकरी, घोड़े, ऊंट, हाथी, गधे, कुत्ते, तितली, मधुमक्खी आदि अपने अपने ढंग से हमारी सेवा सहायता किया करते हैं। उनके उपकारों के बदले में मनुष्य भला कितना प्रत्युपकार चुका पाता है? जब इतने अल्प शक्ति सम्पन्न प्राणी अपने जीवन का महत्वपूर्ण भाग बदले की इच्छा और आशा किये बिना परमार्थ के लिए समर्पित कर देते हैं तो मनुष्य के लिए यह शोभा नहीं देता कि वह अपनी सामर्थ्यों को परमार्थ में लगाते हुए झिझके और यह सोचे कि मैं अपनी कमाई से खुद ही मौज मजा क्यों न करूं? किसी को मुफ्त में अपनी सेवाएं क्यों दूँ? इस प्रकार की क्षुद्रता मानव प्राणी के महान गौरव को गिराने वाली है। जब मधुमक्खी जैसे सृष्टि के साधारण जीव इतनी तुच्छता, अनुदारता, संकीर्णता के क्षेत्र में नहीं सोचते तो क्या मनुष्य को ही इतना टुच्चा बनना चाहिए कि खुदगर्जी के अतिरिक्त और कोई बात उसे आवश्यक प्रतीत न हो।

जिन्हें सामर्थ्य प्राप्त है, जिनमें शक्ति है वे परमात्मा के कोषाध्यक्ष हैं। उनका काम है कि अपने पास जमा हुई सम्पत्ति को राज्य व्यवस्था कायम रखने वाले कामों में खर्च करते रहें। यदि खजांची के खजाने की चाबी अपने कब्जे में करके दूसरों को अंगूठा दिखा दे कि यह सब तो मेरा है, मैं ही इसका मालिक हूँ, इस संपत्ति का उपभोग तो मुझे अकेले को ही करना है तो इससे राज्य शासन में भारी अव्यवस्था उत्पन्न हो जायगी। ऐसी बगावत करने वाले कोषाध्यक्ष को राजा का क्रोध भाजन बनना पड़ेगा। वह राज्य के शत्रुओं में गिना जायगा। जरा कल्पना तो कीजिए कि यदि बादल अपना पानी पृथ्वी पर न बरसावे, सूर्य अपनी धूप को अपने अन्दर ही समेट कर रखे और पृथ्वी में परिक्रमा करना छोड़ दे, हवा परोपकार की बेवकूफी छोड़कर अपने घर मौज मजा करे, पृथ्वी अपने ऊपर हमारा बोझ लादने से इनकार कर दे तो फिर संसार का काम किस प्रकार चलेगा? जिस अनुदारता को हम अपनाते हैं उसे यदि हमारी माता ने अपनाया होता तो जैसे छछूँदर के कच्चे बच्चों को घर में से बुहारकर कूड़े पर फेंक दिया जाता है वैसे ही हमें भी किसी कूड़े के ढेर में फेंक दिया गया होता और जन्म के कुछ ही समय पर कीड़े मकोड़ों की तरह बिलबिला कर हम मर गये होते। हमारी स्नेहमयी माता जिसने पाल−पोस कर हमें इतना बड़ा किया है, उसकी सेवाओं की कीमत हममें से कौन चुका देता है? कितने आश्चर्य की बात है कि हम चारों ओर से दूसरों के कर्जों से लदे हुए होने पर भी ऐसा सोचते हैं कि हम किसी को अपनी चीज क्यों दें? ‘लेने में चतुर, देने में मकर’ की नीति को ईमानदारी की नीति किस प्रकार प्रकार कहा जा सकेगा?

बड़ा उत्तरदायित्व मिलना किसी की योग्यता और श्रेष्ठता का सर्वोपरि प्रमाण है। जिम्मेदारी हर किसी के ऊपर नहीं डाली जाती, जो उसके अधिकारी हैं उन्हें ही वह गौरव दिया जाता है। यह गौरव इतना बड़ा आनन्द है कि उसकी तुलना इन्द्रियों की क्षणिक खुजली मिटाने के, भोग भोगने के सुख से किसी भी प्रकार नहीं की जा सकती। बड़े आदमी, रायबहादुर, खानबहादुर, सर, आनरेरी मजिस्ट्रेट आदि बनने में अपना गौरव अनुभव करते हैं। विश्वविद्यालय जिसे “डॉक्टर” की उपाधि से सम्मानित करते हैं वह अपने को धन्य समझता है, विक्टोरिया क्रॉस पाने के लिए फौजी जवान बड़ी से बड़ी जोखिम उठाकर अपनी बहादुरी का परिचय देते हैं, शहीद कहलाने का सम्मान प्राप्त करने के लिए अनेकों वीर अपने प्राणों की बाजी लगा देते हैं, संस्थाओं के पदाधिकारी बनने के लिए अक्सर इतनी कसमकस देखी जाती है कि लोग आपस में भिड़ तक जाते हैं। इन सब बातों पर थोड़ी गंभीरता से विचार किया जाय तो यह प्रकट हो जाता है कि महानता का गौरव प्राप्त करना भी एक आनंद है और वह इतना उत्तम, इतना उच्चकोटि का आनन्द है कि उसके लिए इन्द्रियों के भोग और लोभ की तृष्णा को तिलाँजलि दी जा सकती है। बड़प्पन एक श्रेष्ठ आनन्द है पर वह आनन्द यों ही नहीं मिलता, उसको प्राप्त करने वाले को त्याग करना पड़ता है, तप करना पड़ता है और तुच्छता से ऊपर उठना पड़ता है।

पं. जवाहरलाल नेहरू आजकल भारत के प्रधान मन्त्री हैं। इस पद का गौरव और उत्तरदायित्व इतना भारी है कि प्रतिदिन भारी श्रम उन्हें करना पड़ता है और व्यक्तिगत शौक, मौज की, लोभ संचय की सारी तृष्णाओं को तिलाँजलि देनी पड़ती है। महात्मा गाँधी को वृद्धावस्था में भी चैन कहाँ था? उनके परिश्रम के बदले में उन्हें क्या ऐश आराम मिलता था? संसार के सभी महापुरुष तभी महापुरुष बने हैं जब उन्होंने व्यक्तिगत स्वार्थ या भोग-संचय की तुच्छता से अपने को ऊपर उठाया है। अगर वे हमारी तरह संकुचित दृष्टि से सोचते और तुच्छ लोभ एवं नीच वासनाओं में उलझे रहते तो उन्हें गौरव प्राप्त नहीं हो सकता था। गाँधी जी जितने पढ़े हुये हजारों वकील कचहरियों की धूलि फाँकते और पेट भरते रहते हैं। जवाहरलाल जैसे अमीरजादे दुनिया में लाखों पड़े हैं कोई पूछता तक नहीं, जमना लाल बजाज जैसों की संपत्ति को घंटे में खरीद बेच देने वाले सेठ हजारों हैं पर उनका महत्व कै कौड़ी का है? राजा, नवाब बड़े पड़े हैं, उनकी क्या गिनती है। इन साधन सम्पन्न व्यक्तियों को किसी हद तक सुखी कहा जा सकता है परन्तु उन्हें वह सुख कदापि उपलब्ध नहीं हो सकता। जो भारी उत्तरदायित्व कंधे पर लेकर, उसे ईमानदारी से पूरा करने वाले को प्राप्त होता है।

शेष जी के शिर पर पृथ्वी रखी हुई है बेचारे को हर घड़ी उसी बोझ को लादने से फुरसत नहीं, सूर्य तेजी के साथ अहिर्निश दौड़ता रहता है, ऐश आराम के लिए पलभर का मौका नहीं। शेष जी और सूर्य की कार्य प्रणाली को देखकर कोई व्यक्ति ऐसा कह सकता है-”यह बड़े बेवकूफ हैं, इतनी मेहनत बेकार करते हैं, इसके बदले में तनख्वाह तक नहीं लेते, इतनी योग्यता और शक्ति रहते हुए भी ऐश आराम के कोई साधन नहीं जुटाये,” ऐसा सोचने वाले की छोटी दृष्टि में सूर्य और शेष बेवकूफ हैं, गाँधी, ईसा, बुद्ध, सुकरात मूर्ख हैं और वह शूअर बुद्धिमान है जो भरपेट आराम से अपनी रुचि का भोजन करता है, दिनभर माँद में पड़ा सोता है, शूअरियों के साथ निर्द्वन्द्व विहार करता है और छः महीने पूरे नहीं हो पाते कि पौन दर्जन बच्चे पैदा कर देता है। जिनके सोचने का दृष्टिकोण इतना ओछा है उनकी महिमा किन शब्दों में कही जाय कुछ समझ में नहीं आता। मनुष्य की निज की आवश्यकताएं इतनी नहीं हैं जिसके लिए उसे बुद्धि की अमूल्य धरोहर का सारा व्यय अपने लिए करना पड़े। वृक्षों को अपने निर्वाह के लिए जिन पदार्थों की आवश्यकता है वह भूमि में उन्हें आसानी से मिल जाते हैं, अपने फलों को बेचकर गुजारा करने की उन्हें आवश्यकता नहीं होती। गाय को अपने गुजारे के लिए घास-पात आसानी से मिल जाता है उसे अपना दूध पीने की जरूरत नहीं। मधुमक्खी शहद दूसरों के लिए जमा करती है और अपना पेट फालतू समय में भर लेती है। मनुष्य की वास्तविक आवश्यकताएं इतनी कम हैं कि उन्हें पूरा करने के लिए उसका दो चार घंटे का परिश्रम काफी है। पेट भरने के लिए अन्न, तन ढ़कने के लिए कपड़ा कमा लेने में बहुत भारी माथापच्ची करने की आवश्यकता नहीं है। बेकार की जरूरतें बढ़ाते चलना और उन्हें पूरा करने के लिए सारी शक्ति खर्च कर देना कोई बुद्धिमानी नहीं है।

जिसके पास बुद्धि है उसे स्वभावतः बुद्धिमान होना चाहिए। बुद्धिमान खजांची वह है जो अपनी ईमानदारी और योग्यता का प्रमाण देकर दिन-दिन अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। राजा का कृपा भाजन बनता है और वेतनवृद्धि का लाभ पाता है। जो खजांची, राज्य कोष में से धन लेकर अपने लिए खर्च करने लगे उसे कौन बुद्धिमान कहेगा। जिन लोगों को परमात्मा ने बुद्धि रूपी सम्पत्ति प्रदान की है उनका कर्त्तव्य है कि अपनी बुद्धिमत्ता को, चतुरता को, विद्या को उन लोगों के लिए खर्च करता है जो अपेक्षाकृत कम बुद्धिमान हैं, जिनको बौद्धिक सहायता की आवश्यकता है। संसार में असंख्य प्राणी ज्ञान के अभाव में कितना कष्ट पा रहे हैं। उन्हें साधन प्राप्त हैं पर सद्बुद्धि की कमी के कारण नाना प्रकार की व्यथा, बाधाएं घेरे हुए हैं। यदि उन्हें विवेक सद्ज्ञान, सही दृष्टिकोण, सुबुद्धि सत्पथ प्राप्त हो जाय तो कोई कारण नहीं कि वे दुख दरिद्र की वेदना से पीड़ित रहने की बजाय निरन्तर सुख शान्ति का अनुभव न करें।

माता-पिता के ऊपर छोटे बालकों के पालन पोषण का उत्तरदायित्व होता है। राजा इस बात का उत्तरदायी है कि उसकी प्रजा का जानमाल सुरक्षित रहे। धनी और व्यापारी इस बात के लिए जिम्मेदार हैं कि वे अकाल, आपत्ति बेकारी, दरिद्रता आदि से जनता को बचाने के लिए अपने धन का उपयोग करें। जिनके पास बन्दूक का लाइसेंस है, वे इस बात के जिम्मेदार हैं, कि पड़ौस में डाका पड़ रहा हो तो अपनी बन्दूक से डाकुओं का मुकाबला करें। यदि माता-पिता बालकों के प्रति, राजा प्रजा के प्रति, धनी जनता के प्रति, बन्दूकवाला पड़ोसी के प्रति अपने उत्तरदायित्व का पालन नहीं करता तो ईश्वर के दरबार में वह अपराधी ठहराया जायगा और उसे इस गैर जिम्मेदारी का परिणाम भोगना पड़ेगा। एक छोटा बालक भूख से तड़प-2 कर प्राण त्याग रहा हो दूसरी और एक आदमी मिठाइयाँ उड़ा रहा हो तो वह मिठाई खाना धिक्कार के योग्य है। इसी प्रकार जबकि सद्बुद्धि के अभाव में जनता दुख, शोक, चिन्ता, क्लेश, कलह, पाप, ताप आदि से बेचैन है तब उन लोगों को जो विद्वान है, बुद्धिमान है यह शोभा नहीं देता कि उस ईश्वर प्रदत्त ज्ञान सम्पत्ति से अपना वैभव बढ़ाने में, खुद ही ऐश आराम उठाने में व्यस्त रहे। यदि वे इतना संकुचित दृष्टिकोण धारण करते हैं तो उनकी विद्या का क्या महत्व है? क्या गौरव है?


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