वनस्पति घी

March 1949

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(ले.- श्री जे. सी. कुमारप्पा)

आराम पसन्द माताएँ रोते बच्चों को चुप कराने के लिए उनके मुंह में चूसनी दे देती हैं। इस चूसनी से बच्चे को भोजन नहीं मिलता, परन्तु वह समझता है कि दूध पी रहा है। इसी प्रकार वनस्पति घी के प्रयोग करने वाले किसी ऐसी वस्तु का उपयोग करना चाहते हैं, जो घी जैसी दिखायी दे और वनस्पति घी के निर्माता इस प्रकार के लोगों की इच्छा, एक ऐसी वस्तु देकर शान्त कर देते हैं, जो उन्हें घी की पुष्टि तो देती नहीं, परन्तु घी जैसी दिख पड़ती है। माता बच्चे के मुख में चूसनी रखने का उससे कोई मूल्य वसूल नहीं करती, परन्तु वनस्पति घी बनाने और बेचने वाले अपने ग्राहकों से नफा कमा कमाकर मोटे हो रहे हैं। वनस्पति घी तो है ही नहीं। इसमें दूध से बने घी का विटामिन ‘ए’ तत्व भी नहीं है। अधिक से अधिक वनस्पति घी वनस्पति के तेल का ऐसा अपाच्य अथवा दुष्पच विकार है, जिसमें हाइड्रोजन गैस मिलाकर उसे घी के समान जमाने वाला बना दिया गया है। हाइड्रोजिनेशन अर्थात् हाइड्रोजन मिलाने की प्रक्रिया से शुद्ध वनस्पति के तेल में सिवाय उसको घी में मिलावट योग्य बना देने के और कोई गुण उत्पन्न नहीं होता। वनस्पति तेल और घी में बड़ा भेद तो यही है कि घी पशुओं से उत्पन्न होता है और विटामिन ‘ए’ तत्व भी प्रायः जीवों से ही उत्पन्न होता है। अतएव जिन वनस्पति घी में विटामिन होने का दावा किया जाता है, उनमें भी विटामिन ऐसे ही तेलों से प्राप्त करके मिलाया जाता है, जो जीव जन्तुओं के शरीर के अंग होते हैं- जैसे कि शार्क अथवा काड मछली के कलेजे का तेल। हिन्दुस्तान सरीखे निरामिषभोजी देश में जहाँ कि बहुत से लोगों को सिवाय दूध घी इत्यादि के अन्य जीव भोजनों के खाने में भारी परहेज है, वनस्पति घी को बिना उसके विटामिन की प्राप्ति का सूत्र बताये बेचना, जनता के साथ भारी धोखा करना है।

हाट स्प्रिंग्य की न्यूट्रिशन कांफ्रेंस में बतलाता गया था कि विटामिन कन्सेन्ट्रेटों का बहुत उपयोग करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इसलिए यदि वनस्पति घी को काड या शार्क मछली के लिबर ऑयल से प्राप्त विटामिन कान्सेन्ट्रेट द्वारा विटामिन युक्त किया जायगा, तो वह भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होगा। एक बात और भी है। तेल को हाइड्रोजिनेशन के लिए किसी कैटेलिटिक एजेंट (सहायता वस्तु) की आवश्यकता होती है। वनस्पति घी के निर्माण में साधारणतया कैटेलिटिक एजेंट के रूप में निकल धातु का प्रयोग किया जाता है। और हाइड्रोडनेन्ट किये हुए तेलों में निकल की उपस्थिति पाई भी जाती है। निकल एक ऐसा खनिज पदार्थ है, जिसकी मानव शरीर को बिल्कुल ही आवश्यकता नहीं है, और इसलिए यह अत्यन्त स्वल्प परिणाम में खाया हुआ भी अन्त, में विष सिद्ध होता है। न्यूट्रिशन रिसर्च इन्स्टीट्यूट कूनूर के डायरेक्टर डा. पी. एन. पटवर्धन ने इण्डियन सायंस-काँग्रेस में बतलाया था कि मुझे खोज के पश्चात् ज्ञात हुआ है कि जन्तुओं को शारीरिक बुद्धि और प्रजनन शक्ति पर वनस्पति घी का प्रभाव प्रतिकूल पड़ता है।

जो लोग तेल खाते हैं, उनको भी देश के विविध भागों में राई, तिल और नारियल इत्यादि विविध तेलों के खाने का अभ्यास है। आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य के शरीर पर सब तेलों का प्रभाव एक सा नहीं पड़ता। अलग-अलग तेल, अलग-अलग गुणकारी अथवा हानिकारक होते हैं। उदाहरणार्थ, बादाम का तेल मस्तिष्क के लिए गुणकारी और शरीर को शक्ति देने वाला माना जाता है। परन्तु मूँगफली का तेल चिकना होते हुए भी मस्तिष्क के लिए हानिकारक माना जाता है। इस दृष्टि से सरसों, तिल और नारियल के तेल मूँगफली के तेल से कहीं बेहतर हैं। वनस्पति घी के अधिकतर कारखाने मुख्यतया मूँगफली और बिनौले के तेलों का प्रयोग करते हैं। ये दोनों तेल घटिया हैं, और इसलिए साधारण तेल के स्थान पर भी यदि वनस्पति घी का उपयोग किया जाय तो उससे उत्कृष्ट वनस्पति तेल का लाभ प्राप्त नहीं होगा। जनता को शुद्ध भोज्य पदार्थ मिलने के लिए जो कानून बनाये गए हैं, उनके द्वारा वनस्पति घी निर्माताओं के लिए यह नियम अनिवार्य कर देना चाहिए कि वे अपने माल के लेबल पर स्पष्ट रूप से यह घोषित करें कि उन्होंने उसे किस तेल से तैयार किया है और उसमें मिलाया हुआ विटामिन किस सूत्र से प्राप्त किया है।

वस्तु स्थिति के उपरोक्त प्रकार होते हुए, हमारी समझ में यह नहीं आता कि साबुन बनाने आदि औद्योगिक प्रयोजनों के अतिरिक्त वनस्पति घी बनाया ही क्यों जाय? वस्तुतः घानी या कोल्हू से निकले हुए वनस्पति तेल सुपाच्य और शुद्धता के लिहाज से वनस्पति घी से कहीं अच्छे हैं, और दूध के घी से तो उसका कोई मुकाबला ही नहीं। फिर भी पूँजीपति लोग हमारे देश की जनता के एक भाग का विशेषतः नागरिक जनता का, शौक पूरा करने और उनकी अज्ञानता का लाभ उठाने के लिए एक-एक कारखाने के पीछे विदेशों से मशीन मंगाने में चार-चार, पाँच-पाँच लाख रुपये तक व्यय कर देते हैं।


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