(साधु वेश में एक पथिक)
जहाँ अज्ञानी वयोवृद्ध होकर भी भाववृत्ति में बालक की भाँति चंचल मति वाला होता है, वहाँ ज्ञानी आयु से बालक होते हुए भी भाव-वृत्ति में वृद्ध की भाँति स्थिर मति वाला होता है।
अज्ञानी दरिद्र होता है, शक्तिहीन रहता है और ज्ञानी परम उदार एवं वास्तविक शक्ति से सम्पन्न होता है।
अज्ञानी जगत प्रपंच का संगी होता है, इसी से दोष युक्त रहता है और ज्ञानी सभी से उपराम होने के कारण असंग स्थिति प्राप्त करता है, इसी से दोषों से मुक्त होता है।
अज्ञानी अपने सम्बन्धियों के मर जाने पर भी सम्बन्ध जीवित रखता है, इसीलिए सम्बन्ध उसे रुलाता रहता है, क्योंकि वह सम्बन्धासक्त है, लेकिन ज्ञानी साँसारिक सम्बन्धियों के रहते हुए भी सम्बन्ध को मिटा देता है, इसी से वह सम्बन्धियों के मर जाने पर शोक नहीं करता, क्योंकि वह विरक्त रहता है।
ज्ञानी उन सभी पदार्थों के प्रति रहने वाली आसक्ति, ममता का पहले ही त्याग कर देता है जो पदार्थ आगे कभी छूट जाने वाले हैं, लेकिन अज्ञानी पदार्थों के छूट जाने पर भी ममत्व बनाये रहता है और दुख भोगता है।
अज्ञानी आसक्ति के कारण जीवन में परतन्त्र रहता है और ज्ञानी विरक्त होने के कारण सदा स्वतन्त्र रहता है। अज्ञानी के अनेकों लक्ष्य होते हैं, लेकिन ज्ञानी का एक ही लक्ष्य होता है। एक अज्ञानी के करोड़ों अभिप्राय हैं और दूसरी ओर देखिये तो करोड़ों ज्ञानियों का एक ही अभिप्राय है, ऐसा किसी सन्त का कथन है।
ज्ञानी पुरुष सच्ची, साध्वी प्रेमिका की तरह केवल एक परम प्रेमास्पद को ही देखता है, उस एक से ही प्रेम करता है और अज्ञानी वेश्या की तरह अनेकों को देखता है, अनेकों से प्रेम करता है।
जगत को देखना ही अनेक को देखना है, अनेक से प्रेम करना है और जगदाधार परम तत्व को जानना ही एक को देखना है, एक से ही प्रेम करना है। अज्ञानी जगत को देखता है, जगत की अनेकता में भूलता है और ज्ञानी जगदाधार एक सत्य को देखता है, उसी परमानन्द स्वरूप सत्य में स्थिर हो रहता है।
अज्ञानी एकाध शुभ कर्मों के बन जाने पर अनेक प्रकार के फलों की कामना करता है और ज्ञानी अनेकानेक शुभ कर्मों को करते हुए एक ही फल चाहता है।
ज्ञानी की दृष्टि में जिस कर्म के अनेक फल हों वह बन्धनकारी कर्म है, जो संसार से बाँधता है। इसीलिए ज्ञानी वही कर्म करता है, जिससे मुक्ति रूपी एक ही फल प्राप्त हो।
अज्ञानी में तप, व्रत, जपादि साधनों से अहंकार की वृद्धि होती है और ज्ञानी में इन शुभ कर्मों से सद्गुण विकास एवं सत्स्वरूप में स्थिति होती है।
अज्ञानी अविचार वश विविध फलों की आशा से सकाम कर्म करते हुए अनेकानेक बन्धन बढ़ाता रहता है, लेकिन ज्ञानी विवेक दृष्टि से निष्काम होकर कर्म बन्धनों से अपने को बचाता रहता है। अज्ञानी में विविध विषयों के द्वारों प्राप्त होने वाले सुखों के प्रति रागवश दुर्गुण पोषित होते रहते हैं और ज्ञानी में विषय विराग होने के कारण अन्तरात्मा के सद्गुण प्रकट होते रहते हैं।
अज्ञानी की दृष्टि जगत के नाम रूपों में ही रहती है और ज्ञानी की विवेक दृष्टि नाम रूपातीत जगदाधार में रहती है। अज्ञानी साँसारिक सुखों के लोभ वश रोगी होता है और ज्ञानी परमार्थ की सिद्धि के लिए त्यागी होता है। अज्ञानी असत् को ही सत् मानता है और ज्ञानी असत् में सत् को जानता है।
अज्ञानी अपने में असत् की स्थापना करता है और स्वयं असत्मय हो जाता है। परन्तु ज्ञानी अपने में से असत् पदार्थों को निकाल देता है और अपने को असत् पदार्थों में से निकाल लेता है।
अमुक पदार्थ अथवा अमुक सम्बन्धी मेरे हैं, ऐसा मानना ही असत् पदार्थों को अपने में रख लेना है, इसी प्रकार देह, मन, बुद्धि आदि के संग से मैं अमुक जाति, वर्ण का, दुःखी, सुखी, मूर्ख या विद्वान हूँ- ऐसा मानना ही अपने को उन पदार्थों में रख देना है। यही अज्ञानी की भूल है।
अमुक पदार्थ या सम्बन्धी मेरे नहीं हैं, इनसे माना हुआ सम्बन्ध है-ऐसा अनुभव करना ही उन पदार्थों को अपने में से निकाल देना है, और देहादिक पदार्थ अथवा मन या बुद्धि के संयोग से मैं दुःखी, सुखी, मूर्ख या विद्वान नहीं-ऐसा देखना ही अपने को इन पदार्थों से निकाल लेना है-यही ज्ञानी का यथार्थ ज्ञान है।
अज्ञानी अपने में दोष रखता है, इसीलिए उसे सर्वत्र दोषी ही दिखते हैं और ज्ञानी अपने में से दोषों को निकाल देता है, इसीलिए उसे कहीं भी दोषी नहीं दिखते। अज्ञानी अपने को दोषियों के बीच में रखता है इसीलिए उसमें दोष आ जाते हैं और ज्ञानी अपने को दोषियों के बीच से निकाल लेता है, इस कारण उसमें दोष नहीं रह जाते।
अज्ञानी अपने अज्ञान के कारण बन्धन में पड़ता है और ज्ञानी अपने यथार्थ ज्ञान के कारण मुक्त हो जाता है।
वासना में आसक्त मनुष्य अज्ञानी है, और वासना से विरक्त ज्ञानी है। अज्ञानी परतन्त्र होकर संसार में भटकता है और ज्ञानी स्वतन्त्र होकर संसार में आनन्दपूर्वक विचरता रहता है।