(डॉ. गोपाल प्रसाद ‘वंशी’ बेतिया)
संसार के दुखों की जड़ तृष्णा है।
प्रतिदिन मनुष्य को कुछ समय आत्म-परीक्षा के लिए अलग निकाल देना चाहिए, जिससे वह विचार कर सके कि उसने कौन सा कर्त्तव्य या कौन सा अकर्त्तव्य किया।
कठिन परिश्रम तथा दैहिक स्वास्थ्य मानसिक शान्ति के लिए अत्यावश्यक है।
हम लोगों को जो कुछ प्राप्त है, उसी में सन्तुष्ट रहना चाहिए। और जो अप्राप्य है, उसके लिए दुख करना वृथा है।
अपना सुधार करो और अपने अहंकार पर विजय प्राप्त करो।
पर दूषण परखने से कोई सहज कार्य संसार में नहीं और आत्म-अध्ययन से बढ़कर कठिन कार्य भी नहीं।
तुम प्रतिदिन दूसरों के कष्टों का विचार करो, फिर तुम देखोगे कि तुम अपने आपका कष्ट भूल से गये हो।
प्रत्येक मनुष्य में कुछ न कुछ गुण हैं उसी को तुम ढूँढ़ो, उसी से तुम सुखी रहोगे।
हम लोगों को बालकों पर दया करनी चाहिए, क्योंकि वे बच्चे हैं। स्त्रियों को क्षमा करना चाहिए, क्योंकि वे अबला हैं। शासकों पर दया करनी चाहिए, क्योंकि उन्हें बहुत कुछ निर्णय करना होता है और वे भूल कर सकते हैं। सज्जनों को क्षमा करना चाहिए, क्योंकि उनका अभिप्राय प्रत्येक कार्य में अच्छा ही रहता है। दुर्जन दया के पात्र हैं, क्योंकि उनका भविष्य अंधकार मय है।
‘अहिंसा’ निर्बलता नहीं है। ‘अहिंसा’ हिंसा के भावों का अभाव है। निर्बलता में हिंसा के भाव तो रहते हैं, परन्तु हिंसा के साधन नहीं रहते। इसके विपरीत अहिंसा में चाहे साधन हों या न हों, परन्तु हिंसा के भावों का पूर्ण अभाव रहता है।
जवानों और बुढ़ापे का आधार आयु पर नहीं हृदय पर है।
पाप शीघ्र बढ़ता है, परन्तु पानी के बुलबुलों की भाँति नष्ट भी शीघ्र ही हो जाता है। नेकी देर में फैलती है, परन्तु सदा जिंदा रहती है। काल का भयानक चक्र और बड़ी-बड़ी क्रान्तियाँ उसे मिटा नहीं सकतीं।
जिन गंभीर विषयों पर विद्वान भी कुछ कहते हुए डरेंगे उन्हीं विषयों पर मूर्ख लोग साहस करके खूब बढ़-बढ़ कर बोलेंगे।
भगवान मन को देखते हैं- ‘भावग्राही जनार्दनः’
थोड़ी भी विषय-बुद्धि रह जाती है तो भगवान के दर्शन नहीं होते। दियासलाई की सींक भीग जाय तो कितना ही रगड़ो, जलेगी नहीं। विषयासक्त मन गीली दियासलाई है।
योगी दो प्रकार के होते हैं-व्यक्त और गुप्त। गुप्त योगी गृहस्थी में रहता है पर कोई उसे पहचान नहीं पाता। गृहस्थ मन से त्याग करता है। ऊपरी त्याग से उसका कोई सम्बन्ध नहीं।