शारीरिक और बौद्धिक श्रम

March 1949

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परिश्रम, प्रयत्न, उद्योग, कर्मपरायणता द्वारा ही मनुष्य सुख, शाँति देने वाली भौतिक और आध्यात्मिक संपदाएं प्राप्त कर सकता है। जिसने जो कुछ पाया है अपने प्रयत्न और परिश्रम द्वारा पाया है। ईश्वर पूर्ण न्यायकारी है वह परिश्रम से न्यूनाधिक किसी को नहीं देता। इसीलिए विवेकवान व्यक्ति सदा से ही कर्म की सर्वोपरि महत्ता को स्वीकार करते रहे हैं और उसके अनुसार आचरण करते रहे हैं।

जो जीवन को ऊँचा उठा हुआ और आनंदित देखना चाहता है उसे परिश्रम से प्रेम करना चाहिए। परन्तु यह परिश्रम न तो केवल शारीरिक ही होकर रह जाय और न वह केवल मानसिक श्रम तक ही सीमित रहे बल्कि शारीरिक और बौद्धिक परिश्रम का हर बात में संमिश्रण किया जाय। दोनों प्रकार के श्रमों का मिलकर ही एक पूर्ण एवं प्रभावशाली परिश्रम बनता है। जो परिश्रम का सच्चा लाभ प्राप्त करना चाहता है उसे शारीरिक और मानसिक श्रम पर समान रूप से ध्यान देने का, दोनों का समन्वय करने का प्रयत्न करना चाहिए। पशु में शारीरिक बल अधिक है, वह मनुष्य से ज्यादा मेहनत कर सकता है तो भी पशु के श्रम से मनुष्य का श्रम अधिक कीमती होता है। कारण यह है कि पशु के श्रम में बुद्धि का समावेश नहीं होता किन्तु मनुष्य अपने कार्यों में चतुरता, बुद्धिमत्ता और क्रिया कौशल को भी जोड़ देता है। वह देखता चलता है कि काम में कहीं बिगाड़-बिगाड़ तो नहीं हो रहा है? वह यह भी सोचता चलता कि इस कार्य को अधिक उत्तम बनाने के लिए क्या-क्या प्रयोग और हो सकता है? इन दोनों संभावनाओं को ध्यान में रखकर वह बिगाड़ सुधार पर विचार करता हुआ, बुद्धि के संयोग से नई तरकीबें निकालता है, भूलों का सुधार करता है। पशु-श्रम से मनुष्य के श्रम में यही बहुमूल्य विशेषता है, यदि उसमें यह विशेषता न रहे तो मेहनत की दृष्टि से, मजबूती की दृष्टि से तो उसे एक गधे के भी पीछे रहना पड़ेगा।

शरीर से जो श्रम किया जाय उसमें बुद्धि का संमिश्रण करके उसे इस प्रकार करना चाहिए कि सफाई, खूबसूरती एवं अच्छाई उसमें से टपक पड़ रही हो। देखने वाले के मुँह से अनायास ही यह निकल पड़े कि वह कार्य किसी क्रिया कुशल मनुष्य का किया हुआ है। इसके करने में, दिलचस्पी, बुद्धिमानी, चतुरता, मेहनत एवं सुरुचि का समावेश हुआ है। ऐसे ही श्रम “मनुष्य के शारीरिक-श्रम” कहे जाते हैं। जिसमें यह बातें न हो वह पशु का श्रम है। फूहड़पन, अधूरापन, गंदगी, कुरूपता, एवं भूलों की अधिकता से भरे हुए काम मनुष्य के धर्म को लज्जित करने वाले हैं। जो लोग यह कहते हैं कि जितना गुड़ डाला जायगा उतना ही मीठा होगा, हमें कम पारिश्रमिक दिया जायगा तो कम या खराब काम करेंगे, यह तो अपनी ही तीन गुनी हानि हुई। एक तो वैसे ही पैसे कम मिलते थे, दूसरे अपना गौरव कम हुआ, अपनी नालायकी प्रख्यात हुई, तीसरे अपनी आदत खराब हुई, गंदा और भद्दा काम करने के कारण अपनी क्रियाशक्ति कुँठित हुई। जो लोग पूरा और सारा काम करते हैं, बौद्धिक संयोग से मेहनत करते हैं उन्हें उनकी जरूरत आज नहीं तो कल जरूर पूरी मिलेगी। एक नहीं तो दूसरा व्यक्ति उसकी कदर करेगा और अन्ततः दिलचस्पी से काम करने की पूरी-पूरी मजदूरी मिलकर रहेगी।

जो लोग दिमाग से मेहनत करते हैं और अपने बुद्धिबल से बहुत पैसा कमा लेते हैं उन्हें भी शारीरिक परिश्रम की उपेक्षा न करनी चाहिए, उसे तुच्छता एवं घृणा की दृष्टि से न देखना चाहिए। मस्तिष्क का पोषण और विकास करने वाली नाड़ियों का फैलाव समस्त शरीर में विस्तृत हो रहा है। यदि शरीर को क्रियाशील न रखा जाय तो बुद्धि का क्रमिक विकास कुँठित हो जाता है। अस्वस्थ शरीर में रहने वाला मस्तिष्क भी अस्वस्थ हो जाता है। निरन्तर दिमागी काम में जुटे रहने वाले वे लोग जो शारीरिक श्रम से बचे रहते हैं अक्सर मानसिक रोगों से ग्रसित हो जाते हैं। भय, संशय अत्यधिक स्वार्थपरता, अनिद्रा, चिंता, ईर्ष्या, आशंका आदि कई प्रकार के मन के रोग उनके पीछे पड़ जाते हैं। मनोरंजन शारीरिक श्रम द्वारा-मस्तिष्क को सक्रिय रखने वाले नाड़ी तन्तुओं में सजीवता आती है, चैतन्यता उत्पन्न होती है। यदि ऐसा शारीरिक श्रम न मिले तो वे तन्तु अकड़कर कठोर हो जाते हैं और थोड़े ही दिनों में बुद्धि-बल घटने लगता है। संसार के सभी वह विचारवान पुरुष जो मस्तिष्क से अधिक काम लेते हैं-बौद्धिक परिश्रम ही जिनका प्रधान कार्य है- वे भी अपने बहुमूल्य समय का काफी भाग मनोरंजन परिश्रम में लगाते हैं। बागवानी, बढ़ईगिरी, लुहारी, जिल्दसाजी, सिलाई, टूटी-फूटी चीजों की मरम्मत, चित्रकला, कपड़े धोना, चरखा चलाना जैसे मनोरंजक साथ ही उत्पादक श्रम बुद्धिजीवी लोगों के लिए उतना ही उपयोगी है जितना कि उनका सोचने का श्रम। इन शारीरिक श्रमों का पैसे की दृष्टि से कुछ महत्व नहीं है। एक दो आने का लाभ कोई लाभ नहीं है। इनका मुख्य लाभ यह है कि शरीर और मन के समन्वय का श्रम नाड़ी समूह को सजीव, सतेज और चैतन्य करता है जो उस एक दो आने के उत्पादन की अपेक्षा अनेकों गुना मूल्यवान है।

दंड-बैठक, टहलना, मालिश आदि नियमित व्यायामों का करना आवश्यक एवं उपयोगी है पर उससे भी उपयोगी वे कार्य हैं जो शारीरिक श्रम के साथ-साथ मनोरंजक भी हैं और अपनी तृप्ति का कोई स्मारक उपस्थित करते हैं। ताश, शतरंज जैसे खेलों में शारीरिक श्रम नहीं है और न उस खेल के द्वारा कोई ऐसी वस्तु बनती है जिसे देखकर उस श्रम की सार्थकता, सफलता और सुन्दरता देखी जा सके। ऐसे काम तो बागवानी, बढ़ईगिरी, लुहारी, जिल्दसाजी, सिलाई, मरम्मत, चित्रकला, कपड़े धोना, सफाई करना, चरखा कातना, बुनना, कोई रासायनिक पदार्थ बनाना आदि ही हो सकते हैं। ऐसे श्रम के लिए दैनिक जीवन में अवश्य ही स्थान देना चाहिए। इससे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य सुधारने का लाभ तो है ही, साथ ही दैहिक परिश्रम के प्रति आदर भाव भी उत्पन्न होता है। मेहनत के कामों को हीनता या घृणा की दृष्टि से देखने की जो कुबुद्धि मनुष्य में उपज खड़ी हुई है, उस आसुरी अहंकार से उत्पन्न होने वाली अज्ञानता का भी नाश होता है। जो स्वास्थ्य लाभ की अपेक्षा भी अधिक उपयोगी है।

समय की बचत, सुविधा या अपव्ययता, व्यापारिक आवश्यकता के लिए नौकरों का श्रम लेने की आवश्यकता है, परन्तु अमीरी के चोचले दिखाने के लिए जो श्रम दूसरों से लिया जाता है वह जीवन को उन्नत बनाने में अप्रत्यक्ष रूप से बड़ा बाधक होता है। स्नान कराने के लिए नौकर चाहिए, कपड़ा पहनाने के लिए नौकर चाहिए, मुँह पर से मक्खी उड़ाने के लिए नौकर चाहिए, हाथ की छड़ी या थैला ले चलने के लिए नौकर चाहिए, इस प्रकार का नाजुकपन किसी कर्मठ व्यक्ति को शोभा नहीं देता। इसमें अमीरी नहीं झलकती वरन् पैसे का अहंकार टपकता है। रोगी और असमर्थों को छोड़कर शेष सभी को शारीरिक श्रम करना चाहिए। दूसरों के सामने मेहनत करते हुए लजाने की कोई बात नहीं है, यह तो गौरव की बात है। ग्रेट ब्रिटेन के भूतपूर्व सम्राट् एडवर्ड अष्टम (वर्तमान ड्यूक आफ विंडसर) अपने युवराज काल में कोयले की खान में मजदूरों के साथ मेहनत करते थे, मल्लाहों के साथ नाव चलाते थे। बादशाह नासरुद्दीन टोपी सीकर अपनी मजदूरी करते थे। कृष्ण जी ग्वाले का काम करते थे, उनके बड़े भाई बलराम हल चलाते थे। इन कार्यों से उनका गौरव कम नहीं हुआ वरन् बढ़ा। यह उचित मनोवृत्ति हम सबकी होनी चाहिए। परिश्रम करते हुए, अपना बोझा अपने कंधे पर रखकर ले चलते हुए किसी को किसी प्रकार का संकोच नहीं वरन् गौरव अनुभव करना चाहिए।

कई व्यक्ति भूखों मरना, तंगी में रहना, बेकारी भुगतना पसंद करते हैं पर ऐसे कार्य करने को तैयार नहीं होते जो शारीरिक परिश्रम वाले होने के कारण ‘छोटे’ समझे जाते हैं। यह झिझक मिथ्या, अज्ञान-मूलक एवं हानिकारक है। ऐसी झूठी प्रतिष्ठा के मोह में पड़े हुए व्यक्ति अपने बहुमूल्य समय को ही गंवाते रहते हैं और अपनी हानि करते रहते हैं। जिन्हें उन्नति के पथ पर चलना है, उन्हें परिश्रम को अपना अभिन्न मित्र बनाना होता है, परिश्रम ही वह दीपक है जिसके प्रकाश में मनुष्य विकास के मार्ग को प्राप्त करता है। ऐसे सच्चे मित्र से जो व्यक्ति घृणा करता है, उसे साथ रखने में शर्म अनुभव करता है। समझ लीजिए कि ऐसे व्यक्ति ऊंचे न उठ सकेंगे, आगे न बढ़ सकेंगे। बन्दूक पकड़ने में शर्म करने वाला सिपाही युद्ध में मोर्चा फतह नहीं कर सकता और न परिश्रम से झिझकने वाला व्यक्ति जीवन संग्राम में विजय प्राप्त कर सकता है।

स्मरण रखिए परिश्रम ही सम्पूर्ण वैभवों का पिता है। जो जितना ही अधिक परिश्रमी होता वह उतना ही अधिक आनंदित रहेगा। परन्तु हमारे कार्यक्रम में शारीरिक और मानसिक परिश्रम का समान स्थान होना चाहिए, दोनों की महत्ता को समान रूप से समझना चाहिए।


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