क्या सिद्धियाँ आवश्यक हैं?

July 1949

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जिन सिद्धियों के लिए लोग लालायित रहते हैं और अपनी व्यक्तिगत इच्छा और अभिलाषा लिए उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। उनके संबंध में आइए सार्वजनिक हित की दृष्टि से बड़े दृष्टिकोण से विचार करें कि यदि सिद्धियाँ सर्व सुलभ हो जाएं तो संसार में सुविधा की वृद्धि होगी या असुविधा की।

मान लीजिए कि अपने जीवन की अवधि लोगों को मालूम हो जाय यह पता चल जाय कि हमारी मृत्यु, कब? किस दिन? कहाँ? किस प्रकार होगी? तो उस मनुष्य का जीवन बड़ा विचित्र हो जायगा। अमुक दिन मरूंगा, इससे पहले नहीं मर सकता, यह निश्चय हो जाने पर वह बड़ी से बड़ी दुर्घटना करने के लिए, किसी से भी लड़ने मारने के लिए तैयार हो जायगा। मृत्यु के डर से लोग आगे-पीछे सोचते हैं और संघर्ष में पड़ने से बचते रहते हैं। जब मरने से निधड़क हो गया हो, उसे बड़े से बड़े उत्पात करने में कुछ भय न होगा। दूसरी बात यह भी है कि जिसे मालूम है कि मेरी मृत्यु के समय में केवल इतना समय रहा है साँसारिक काम-धंधों से उदास होकर बैठ जायगा। मृत्यु के शोक में बहुत पहले से डूब जायगा। किन्हीं बड़े कामों का आयोजन न करेगा। समाज में मित्रता और घनिष्ठता स्थापित न करेगा। अपने दीर्घ जीवन की आशा से लोग धन वैभव एकत्रित करते हैं, वह उसके मरने पर विधवा तथा बच्चों के काम आती है जिसे मालूम है कि मुझे सिर्फ आठ महीने जीना है वह संचय न करेगा, जो होगी उसे भी खर्च कर देगा, ऐसी दशा में पीछे वालों को जो पैतृक धन से सहायता मिलती है वह न मिला करेगी। जो जल्दी मरने वाला होगा, उसका विवाह न होगा बेचारा विवाह सुख से भी वंचित रह जायगा। अधूरी उम्र के स्त्री पुरुषों को दूसरा साथी न मिलेगा, उन्हें अविवाहित जीवन बिताना पड़ेगा। इस प्रकार एक नहीं हजारों प्रकार की कठिनाइयाँ बढ़ जावेंगी। यदि लोग अपना मृत्यु समय निश्चित रूप से जान लिया करें तो संसार का स्थिर रहना उसकी कार्य प्रणाली चलना बड़ा कठिन हो जाय। यदि वह ऐसा न करता तो बेचारे वैद्य डॉक्टरों का पेशा ही मिल जाता। जिसकी मृत्यु जिस स्थान पर जिस प्रकार होने को होती, लोग उसका बचाव करने के लिए दूर भागते और परमात्मा को अपना विधान कायम रखने के लिए भारी रस्साकशी करनी पड़ती। इस कठिनाई को ध्यान में रखकर परमात्मा ने मनुष्यों को मृत्युकाल का पहले से ही ज्ञान होना असंभव कर दिया है।

मान लीजिए कि व्यापार की तेजी मंदी का लोगों का पता चल जाय, तो व्यापार का कारोबार ही ठप्प हो जाय। जब लोगों को यह मालूम हो जाय कि अब तेजी आने वाली है तो पहले से ही लोग चीजों को रोक लेंगे और लोगों को वह वस्तु मिलनी कठिन हो जायगी। इसी प्रकार वह मालूम हो जाय कि यह चीज मंदी होने वाली है तो उसे बेचना तो सब चाहेंगे, लेगा कोई नहीं। जो वस्तु मंदी होने वाली है, उसका उत्पादन और आयात ही कोई न करेगा, फलस्वरूप उस वस्तु का मिलना दुर्लभ हो जाएगा। सब लोगों को तेजी मंदी का पता चलने लगे तब तो व्यापार नाम की कोई वस्तु ही न रह जायगी और तेजी मन्दी केवल शब्द कोषों में ही लिखी मिलेगी। इतना न भी हो केवल किन्हीं एक दो मनुष्यों को भी तेजी मंदी का ठीक ज्ञान हो तो वे एक दिन में अरबों खरबों रुपया एकत्रित कर सकते हैं। जिसे तेजी मंदी का ठीक ज्ञान होगा वह संसार की समस्त संपदा पर चंद दिनों के अंदर कब्जा कर लेगा। ऐसी स्थिति उत्पन्न होने से संसार का साधारण क्रम बिल्कुल उलट-पलट हो जाएगा। परमात्मा अपनी दुनिया को इस प्रकार उलट-पुलट नहीं करना चाहता इसलिए उसमें तेजी मंदी का सच्चा ज्ञान किसी ज्योतिषी, सिद्ध या सटोरिये को नहीं दिया है।

मान लीजिए कि लोगों को अपने भाग्य की बात मालूम हो जाय तो उन्हें कोई प्रयत्न, परिश्रम या उद्यम करने में रुचि न रहे। जितना धर्म जब जिस दिन मिलना होगा उतना-मिल ही जायगा, किस उद्योग करने की परेशानी सिर पर लेने से क्या फायदा? जो रोग, शोक, लाभ, हानि, यश, अपयश, उन्नति, अवनति, पाप, पुण्य, सुख होने वाला होगा हो ही जाएगा। तकदीर की लिखी होकर रहेगी फिर किसी प्रकार के परिश्रम का झंझट करने से क्या लाभ? इस प्रकार का निर्णय हर आदमी कर लिया करेगा और क्रियाशीलता, कर्मपरायणता को छोड़ बैठेगा। उद्योग में किसी को रुचि न रहेगी। निठल्लेपन, अकर्मण्यता, निराशा और उदासीनता का चारों ओर साम्राज्य छा जायगा, कोई आदमी किसी बात के लिए, अपने को जिम्मेदार न समझेगा। अदालत, पुलिस, राजदंड आदि की भी आवश्यकता न समझी जायगी। जिसका जिस प्रकार जो होता है, जिसका जैसा भाग्य है उसे कोई मिटा नहीं सकता। विधाता के अंक मिट नहीं सकते फिर पुलिस, अदालत एवं राजदंड की क्या आवश्यकता? ऐसा निराशावाद एवं कर्मत्याग संसार चक्र को चलने से रोक देगा। दुनिया बड़ी नीरस और कुरूप हो जाएगी। यह स्थिति परमात्मा को स्वीकार नहीं। यही कारण है कि उसने भाग्य को जानने की किसी को भी सुविधा नहीं दी है। जो ज्योतिषी दूसरों का भाग्य बताते हैं, वे अपनी जीविका चलाने के लिए ग्राहकों को बुलाने का प्रयत्न करते हैं। यदि उन्हें यह विश्वास होता कि इसमें भाग्य कथन की वास्तविकता योग्यता है तो सबसे पहले अपना भाग्य देखते और जितनी आमदनी होना भाग्य में लिखा मिलता उसे अमिट समझकर भाग्य बताने का झंझट और धन प्राप्त करने का प्रयत्न करते। उन ज्योतिषियों की अन्तरात्मा जानती है कि हमारा ‘भाग्य कथन’ निश्चित नहीं है, इसलिए वे उस पर निर्भर न रह कर प्रयत्न का आश्रय लेते हैं। भाग्य जानने की सिद्धि से मनुष्य जाति को वंचित रख कर परमात्मा ने संसार चक्र के रुक जाने के खतरे से पहले ही खबरदारी कर ली है।

यदि मनुष्य दूसरों के मन की, पेट की बात जान लिया करते तो दुनिया में कोई बात गुप्त न रह पाती। चारों को यह मालूम पड़ जाता कि अमुक का धन कहाँ रखा है, कब वह घर से बाहर जाएगा। बस, मौका पाते ही आसानी से धन चुरा लिया करते। युद्ध की योजनाएं, हथियार, सेना की संख्या आदि के भेद दूसरों के मन में से जान कर लड़ाई करने वाला दूसरा पक्ष तैयार हो जाता। व्यापारिक भेद भी प्रकट हो जाते और लाभ उठाने की गुंजाइश न रहती। यहाँ तक कि किसी को किसी से बातचीत करने की भी जरूरत न पड़ती। झट यह मालूम कर लिया जाता कि सामने वाला क्या चाहता है। इस चाहना का जो उत्तर मिलना होता उसे आगन्तुक भी सामने वाले का दिल टटोल कर जान लेता। झूठ बोलने, धोखा देने आदि के लिए गुंजाइश भी न रहती। दूसरों का मन परखने की छोटी सी बात यदि सर्वसुलभ हो जाती तो इस छोटी चीज के कारण ही संसार की स्थिति कुछ से कुछ हो जाती। फिर यह लोक मर्त्यलोक न रहकर यक्षलोक हो जाता।

यदि सोना बनाने की विद्या लोग जान जाते तो सोने का स्थान लोहा या पीतल जैसा हो जाता। प्रचुर परिमाण में बनने लगने पर वह पीतल की तरह बिकता। तब उसके जेवर पहनना लोग अपमानजनक समझते। सोना इसीलिए सोना है कि वह थोड़ी मात्रा में है, जिस दिन वह रसायन विद्या से या पारस से बनने लगेगा उसी दिन वह सोना न रहेगा। आसानी से बन जाने वाले चाँदी, राँगा और जस्ता से अधिक महत्व की न रहेगी। फिर वह पारस पत्थर भी कौड़ी कीमत का रह जाएगा। धातु बनाने के काम आने वाले अनेकों रासायनिक वस्तुओं की श्रेणी में एक चीज पारस भी गिनी जाने लगेगी। प्राचीन काल में विमान में बैठने वाले देवता समझे जाते थे अब तो नन्नू जुलाहा भी दस रुपए खर्च करके विमान की सैर कर सकता है। अब विमान का महत्व बढ़िया मोटर जितना रह गया है। कुछ समय बाद आज का जितना भी महत्व न रहेगा इसी प्रकार पारस भी यदि मनुष्य जाति के लिए सुलभ हो गया तो उसके महत्व की भी ऐसी ही दुर्दशा होगी।

अमृत यदि मिलने लगे और उसे पीकर सब लोग अमर हो जाएं तो संसार में कुछ ही समय बाद भूमि का बिल्कुल अभाव हो जाएगा। एक मनुष्य यदि तीन वर्ष में एक बच्चा पैदा करे तो जीवन भर में असंख्य बच्चे पैदा करता चला जाएगा। फिर एक-एक बच्चे के उसी क्रम से अनेकों बच्चे होते जायेंगे। पुरखे मरेंगे नहीं, लड़के पैदा होते जायेंगे। यह बढ़ोत्तरी आखिर इतनी हो जाएगी कि भूमि से खाद्य पदार्थ प्राप्त करना तो दूर खड़े रहने की भी जगह न बचेगी। भारी मेलों की भीड़ के समान आबादी ठसाठस खड़ी होगी। खाद्य पदार्थों का कोई साधन न होगा। भूख प्यास से लोग छाती पीटेंगे। मर कर इन कष्टों से छुटकारा प्राप्त करने का द्वार बंद हो जाएगा। असह्य पीड़ा देने वाले रोगों से छुटकारा प्राप्त करने का द्वार बंद हो जाएगा। असह्य पीड़ा देने वाले रोगों से छुटकारा दिलाने वाली मृत्यु तो रहेगी नहीं, वे यातनाएं घुल-घुलकर और चीख-चीख कर सहनी होंगी। अमृत को पाने के लिए जो आज लालायित हैं वे ही उस समय इसे जीवन का सबसे बड़ा हानिकारक पदार्थ समझेंगे। इससे दूर रहने का प्रयत्न करेंगे।

अदृश्य होने की विद्या सीख जाने पर लोग चाहे जहाँ छिपकर बैठे रहा करेंगे, दूसरों की गुप्त बातों को देख लिया करेंगे। काम सेवन की एकान्त लज्जा की रक्षा करना भी कठिन हो जाएगा। चोर, डाकू, व्यभिचारी हत्यारे व्यक्ति चाहे जहाँ छिपकर बैठ जाया करेंगे और फिर मनमानी करतूतें किया करेंगे। पकड़े जाने और सजा भुगतने का भी उन्हें डर न रहेगा।

यदि नेत्रों और कानों की शक्ति बहुत बढ़ जाय। शब्द तथा प्रकाश की किरणों को अधिक पकड़ने लगे तो देखने और सुनने की क्रिया में भारी विक्षेप उत्पन्न हो जाय। मनुष्य के कानों के पर्दे इस प्रकार बने हुए हैं कि एक नियत संख्या के शब्द कम्पन ही वह ग्रहण कर सकता है। यदि उसकी शक्ति अधिक तेज हो जाय और आकाश में बहने वाली शब्द तरंगों को अत्यधिक मात्रा में ग्रहण करने लगे तो शब्दों की भारी भीड़ कान के पर्दों पर जमा हो जाएगी और जैसे मेले ठेलों में कचर पचर के अनेक संमिश्रित शब्द कानों में टकराते हैं कि कोई भी बात ठीक प्रकार सुन समझ नहीं पाते। किसी साथी से बातें करनी होती हैं तो उसके कान के पास मुँह ले जाकर कहते हैं तब वह उस कचर पचर में से उस बात को सुन पाता है। यदि कान अधिक तीव्र हो जाय तो वैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसी कचर-पचर कानों में हर घड़ी सुनाई पड़ा करेगी। दूर-दूर के शब्द आकर कानों के पर्दों में टकराया करेंगे उस भीड़ में साधारण बातें भी सुनना कठिन पड़ जाएगा। यही बात नेत्र, नासिका आदि इन्द्रियों की शक्ति बढ़ने पर होगी। उस दशा में सुविधा न होकर अनेक गुनी कठिनाई बढ़ेगी। इसी से परमात्मा ने नेत्र कान आदि इन्द्रियों को उतनी ही शक्ति दी है जितनी उपयोगी एवं आवश्यक है।

जो वस्तुएं मनुष्य के लिए आवश्यक हैं वे सुलभतापूर्वक उपलब्ध हैं। हवा, जल, भोजन, वस्त्र, मकान आदि जिन वस्तुओं की अधिक आवश्यकता है आसानी से मिल जाती हैं। हवा सबसे अधिक आवश्यक है, उसके बिना क्षण भर भी जीवन संभव नहीं, इसीलिए वह अत्यंत ही सुविधापूर्वक पर्याप्त मात्रा में मिल जाती है। इसके बाद क्रमशः पानी का, अन्न का, वस्त्र का, मकान का नंबर है। इसी क्रम से यह वस्तुएं कष्टसाध्य होती जाती हैं। इसी क्रम से जो वस्तु जितनी ही अनावश्यक एवं अनुपयोगी हैं वे उतनी ही कष्ट साध्य है। परमात्मा ने जिन बातों को मनुष्य के लिए आवश्यक समझा है उन्हें सुगम रखा है। जो चमत्कारिक सिद्धियाँ निष्प्रयोजन एवं खतरनाक हैं वे गोप्य हैं, दुर्लभ हैं, सर्वसाधारण के लिए उनकी प्राप्ति असंभव जैसी है।

जिन योगीजनों की आत्मा, योग साधन द्वारा आत्म संयम द्वारा बहुत ऊंची उठ गई है, जो जीवन मुक्त पुरुष परमात्मा की समीपता में हैं, निस्संदेह उनमें विशेष तेज होता है। उनमें ईश्वरीय शक्ति के अंश आ जाते हैं, साधारण मनुष्यों की अपेक्षा वे विशेष आध्यात्मिक अनुभूतियाँ रखते हैं। परन्तु जिस आध्यात्मिक भूमिका में पहुँचने पर जीव को विशेष स्थिति प्राप्त होती है उस अवस्था में पहुँचने पर उसका आत्मिक दृष्टिकोण बहुत ऊंचा उठ जाता है, तब वह परमहंस, स्थिति प्राप्त, गुणातीत एवं जीवन मुक्त की दशा में होता है। उस समय वह अपने आध्यात्मिक उत्तरदायित्व को भली प्रकार समझने लगता है और सांसारिक संपदाओं के लोभियों द्वारा उसे उल्लू नहीं बनाया जा सकता। समस्त विश्व कर्म की धुरी पर घूम रहा है, हर व्यक्ति अपने प्रयत्नों और कर्मों के अनुसार भले बुरे परिणाम प्राप्त करता है। सच्चा योगी इस ईश्वरीय क्रिया पद्धति में अकारण टाँग नहीं अड़ाता। जिस किसी की सहायता करनी होती है उसे कर्त्तव्य कर्म पर चलकर अपने प्रयत्न से अभीष्ट मनोरथ प्राप्त करने की सलाह देता है। अपनी निजी शक्ति से ईश्वरीय व्यवस्था क्रम में टाँग अड़ाकर किसी को लाभ हानि नहीं पहुँचाता। कोई चमत्कार या अनोखे करतब नहीं दिखाता।

योग शास्त्रों में योगीजनों के लिए सिद्धियों को प्रकट करना और उनका प्रयोग या प्रदर्शन करना सर्वथा निषिद्ध कहा है। क्योंकि इससे परमात्मा के व्यवस्थाक्रम में गड़बड़ी उत्पन्न होती है। अस्वाभाविक ढंग से प्राप्त की हुई वस्तुएं प्राप्त करने वाले के लिए तथा अन्य लोगों के लिए अन्ततः हानिकारक सिद्ध होती हैं। धन को परिश्रम, उत्पादन या व्यापार के साधारण, स्वाभाविक क्रम से कमाया जाना चाहिए। परिश्रम का ही फलता फूलता है। किसी को जमीन में गढ़ी गई विपुल संपदा मिल जाय तो वह उसका सदुपयोग न कर सकेगा। साधारण मनुष्यों को यदि कोई विचित्र लाभ किसी ऋद्धि-सिद्धि द्वारा मिल भी जाय तो वे अपनी आध्यात्मिक अपरिपक्वता के कारण उनका दुरुपयोग करने लगते हैं फलस्वरूप वह लाभ उनके लिए तथा सबके लिए हानि से भी बुरा पड़ता है।

चमत्कारी सिद्धियाँ केवल उन लोगों को प्राप्त होती हैं जो उनका उपयोग संसार चक्र में गड़बड़ी फैलाने में प्रयोग नहीं करते। ऐसे महात्मा किसी लोभी की खुशामद के भुलावे में पड़कर उसकी इच्छानुसार चलने को तैयार नहीं होते। वे भूल कर भी अलौकिक शक्तियों का किसी पर प्रदर्शन नहीं करते। हाँ मानवोचित सेवा धर्म से प्रेरित होकर स्वयं कर्त्तव्य धर्म में प्रवृत्त रहते हैं और दूसरों को भी कर्त्तव्य धर्म में लगे रहने का उपदेश करते हैं। पर किसी को क्षण भर में करोड़पति बना देने के लिए तेजी मंदी, सट्टा, लाटरी, भाग्य, भविष्य बताने का उनका कार्यक्रम नहीं रहता। अपनी आत्म-शक्ति से किसी के बुरे कर्म फल को जादू की तरह हटा नहीं देते, वरन् भविष्य में वैसा कर्म फल फिर न मिले, इस प्रकार का ज्ञान का सदुपदेश करते हैं। स्व प्रयत्न से कर्म प्रक्रिया द्वारा वैभव पर्व संपत्ति प्राप्त करने के लिए ही जनता का पथ-प्रदर्शन करते हैं। जो योगी सिद्धियों का सदुपयोग करने की आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त नहीं कर सके हैं उन्हें तो सिद्धियाँ मिलती नहीं, जो उस स्थिति में पहुँच जाते हैं वे प्राप्त सिद्धियों का कर्म विधान नष्ट करने में उनकी तनिक भी रुचि नहीं होती। इस प्रकार सच्चे योगी तो चमत्कार दिखाते नहीं और झूठे योगियों के पास चमत्कारी शक्ति होती नहीं। दोनों ही दशा में हमें किसी से कोई चमत्कार प्राप्त नहीं हो सकता।

चमत्कारी सिद्धियाँ पहले तो हानिकारक होने के कारण परमात्मा ने सर्वसाधारण के लिए वैसे ही दुर्लभ कर दी हैं। साधारणतः वे किसी को प्राप्त नहीं हो सकतीं। दूसरे जिन योगियों को वे प्राप्त होती हैं वे कच्ची मनोभूमि वाले लोभी वृत्ति के मायाग्रस्त मनुष्यों पर किसी भी प्रकार प्रकट नहीं करते। जो व्यक्ति माया रहित होकर उन योगियों के पास पहुँचता है उसे ऐसी सिद्धियों की इच्छा नहीं होती। सभी दृष्टिकोणों से उन चमत्कारों की प्राप्ति हमारे लिए कठिन है। हमें उनकी मृग तृष्णा में न भटककर कर्त्तव्य कर्म के सीधे-साधे मार्ग पर चलकर सीधी सच्ची परम मंगलमयी स्वाभाविक सिद्धियाँ प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।


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