भारतीय नारी का सर्वोत्तम गुण

July 1949

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(श्री स्वामी शिवानन्द जी सरस्वती, ऋषीकेश)

सत्राजित दुहिता तथा भगवान श्री कृष्ण की अर्द्धांगिनी सत्यभामा ने द्रौपदी से प्रश्न किया ‘हे द्रौपदी! कैसे तुम अति बलशाली पाण्डु-पुत्रों पर शासन करती हो? वे कैसे तुम्हारे आज्ञाकारी हैं तथा तुमसे कभी कुपित नहीं होते? तुम्हारी इच्छाओं के पालन हेतु सदैव प्रस्तुत रहते हैं। मुझे इसका कारण बतलाओ।

द्रौपदी ने उत्तर दिया- ‘हे सत्यभामा! पाण्डु पुत्रों के प्रति मेरे व्यवहार को सुनो- मैं अपनी इच्छा, वासना तथा अहंकार को वश में कर अति श्रद्धा एवं भक्ति से उनकी सेवा करती हूँ। मैं किसी अहंकार-भावना से उनके साथ व्यवहार नहीं करती।

मैं बुरा और असत्य भाषण नहीं करती। मेरा हृदय कभी किसी सुँदर युवक धनवान या आकर्षण पर मोहित नहीं होता। मैं कभी नहीं स्नान करती, खाती अथवा सोती जब तक पति नहीं स्नान कर लेते, खा लेते अथवा सो जाते एवं तब तक जब तक कि हमारे समस्त सेवक तथा अनुगामी नहीं स्नान कर लेते, खा लेते या सो जाते। जब कभी भी मेरे पति क्षेत्र से वन अथवा नगर से लौटते हैं तो मैं उसी समय उठ जाती हूँ उनका स्वागत करती तथा उनको जलपान कराती हूँ।

मैं घर के सामान तथा भोजन को सदैव स्वच्छ एवं क्रम से रखती हूँ। सावधानी से भोजन बनाती तथा ठीक समय पर परोसती हूँ। मैं कभी भी कठोर शब्द नहीं बोलती। कभी भी अनुलाभों (बुरी स्त्रियों) का अनुसरण नहीं करती।

मैं वही करती हूँ जो उनको रुचिकर तथा सुखकर लगता है। कभी भी आलस्य तथा सुस्ती नहीं दिखाती, बिना विनोदावसर के नहीं हंसती। मैं द्वार पर बैठकर व्यर्थ समय नष्ट नहीं करती। मैं क्रीड़ा-उद्यान में व्यर्थ नहीं ठहरती जब कि मुझे अन्य काम करने होते हैं।

जोर-जोर से हंसना, भावुकता तथा अन्य इसी प्रकार अप्रिय लगने वाली वस्तुओं से अपने को बचाती एवं सदैव पति की सेवा में रत रहती हूँ।

पति-विछोह मुझे कभी नहीं सुहाता। जब कभी मेरे पति मुझे छोड़कर बाहर जाते हैं तो मैं सुगंधित पुष्पों तथा अंगराग का प्रयोग न कर जीवन कठोर तपस्या में बिताती हूँ। मेरी रुचि, अरुचि, मेरे पति की रुचि अरुचि ही हैं और उन्हीं की आवश्यकतानुसार अपना समायोग करती हूँ। मैं प्राण प्रण से अपने पति की भलाई चाहती हूँ। मैं उन वक्तव्यों का याथातथ्य पालन करती हूँ जो कि मेरी सास ने सम्बंधियों, अतिथि, दान, देव-पूजा, एवं पितृ-पूजा के विषय बतलाये थे। मैं उनका निशदिन अक्षरशः पालन करती हूँ। ‘मैं अपने पति के साथ बहुत ही नम्रता और आदर का व्यवहार करती हूँ। पति-सेवा में निर्धारित व्यावहारिक नियमों से तनिक भी विचलित नहीं होती। ‘मेरा विचार है कि नारी का सर्वोत्तम गुण पति सेवा है। पति ही स्त्री का ईश्वर है। वही उसका एक मात्र शरणालय है, उसके लिए और कहीं शरण नहीं है। ऐसी दशा में पत्नी वह कार्य कैसे कर सकती है जो कि उसके पति को अप्रिय एवं अरुचिकर प्रतीत हो?

मेरे पति मेरे मार्ग प्रदर्शक हैं! मैं कभी भी अपनी सास की बुराई नहीं करती। मैं कभी भी सोने, खाने अथवा अलंकरण में अपने पति की इच्छा के प्रतिकूल नहीं जाती। मैं अपने काम पूर्णतः एकाग्र-चित्त, प्रोत्साहित हो किया करती हूँ।

मैं अपने गुरु की सेवा अत्यन्त नम्रता से करती हूँ अतएव मेरे पति मुझसे बहुत प्रसन्न रहते हैं। प्रति-दिन मैं अपने सास की सेवा अति आदर और नम्रता से करती हूँ। मैं उनके खाने-पीने तथा कपड़ों आदि का स्वयं निरीक्षण करती हूँ। ‘मैंने खाने-पीने, कपड़े, गहने आदि के विषयों में अपनी सास से अधिक पाने की कभी इच्छा नहीं की। मैं उनका अत्यधिक सम्मान करती हूँ। महाराज युधिष्ठिर के राज प्रासाद में वेद-पाठ करने वाले ब्राह्मणों को मैं भोजन जल तथा परिधान द्वारा पूजा करती हूँ। मैं समस्त परिचारिकाओं के अभियोग सुनती तथा उनके निराकरण का उद्योग करती और उनको सन्तुष्ट रखने का प्रयत्न करती हूँ।

मैं उनके पालन योग्य नियमों को बनाती हूँ। मैं अतिथियों की अति भक्ति भाव से सेवा करती हूँ। मैं सर्वप्रथम शैय्या से उठती तथा सबसे पीछे शयन को जाती हूँ।

हे सत्यभामा! यही मेरा व्यवहार और अभ्यास रहा है, जिसके कारण मेरे पति मेरे आज्ञाकारी हैं।

‘सत्यभामा!’ द्रौपदी ने कहा,

मैं तुमको अपने पति को आकर्षित करने का उपाय बतलाऊँगी। संसार में ऐसा कोई भी देवता नहीं है-जो पति की बराबरी कर सके, यदि पति तुमसे प्रसन्न हैं तो तुम्हारे पराक्रम की सीमा नहीं है, और यदि अप्रसन्न है तो तुम सब कुछ खो दोगी। तुम अपने पति से परिधान अलंकार कीर्ति यहाँ तक कि अंत में स्वर्ग भी पा सकती हो। जो स्त्री पतिव्रता प्रेम परिचित तथा कर्त्तव्यवती होती है उसके निमित्त सुख तो एक प्रकार का जन्म सिद्धि अधिकार होता है। उसको कष्ट एवं कठिनाईयों का सामना करना पड़े तो वे अल्पकालीन तथा मायावी होते हैं। अतएव सदैव प्रेम और भक्ति से कृष्ण की उपासना करो। ‘सेवा के निमित्त सदैव प्रस्तुत रहो, पति के सुख का ही ध्यान रखो। वह तुम्हारा भक्त बन जावेगा और सोचेगा कि मेरी पत्नी मुझे सचमुच प्यार करती है। मैं भी उसका अनुगमन करूं।’ द्वार पर जैसे ही अपने पति की आवाज सुनो, खड़ी हो जाओ तथा उसकी सेवा के लिए प्रसन्न बदन हो प्रस्तुत रहो। जैसे ही वे कक्ष में प्रवेश करें उसका आसान तथा पैर धोने को जल दो। ‘जब वह किसी परिचारिका को किसी काम के लिए पुकारे तो तुम स्वयं जाकर वह काम करो। कृष्ण को अनुभव करने दो कि तुम अन्तःकरण से उनकी पूजा करती हो। ‘सदैव अपने पति की भलाई सोचो। वही उन्हें खिलाओ जो कि उन्हें रुचिकर हो। उनके पास मत उठो बैठो जो भी तुम्हारे पति से विद्वेष रखते हैं। ‘मनुष्य की उपस्थिति में कभी भी उत्तेजित न हो अपने मन को मौन धारण कर शाँति दो।

केवल उन्हीं स्त्रियों से मित्रता रखो जो पति भक्त हैं, जो उच्च-कुल, पाप-शून्य तथा गुणवती और उज्ज्वल चरित्र की हैं, तुमको स्वार्थी तथा बुरे स्वभाव की स्त्रियों से दूर रहना चाहिए।

इस प्रकार का आचरण प्रशंसनीय होता है। यही समृद्धि, प्रसिद्ध तथा सुख का द्वारा खोल देता है। अतएव अपने पति की प्रेम, विश्वास एवं भक्ति भाव से पूजा करो।

तब सत्यभामा ने द्रौपदी को हृदय से लगा लिया और कहा-’ओ पवित्रे! तुम पृथ्वी पर अपने पति के साथ शाँति का भोग करोगी। तुम्हारे पुत्र द्वारिका में आनन्द से हैं। तुम शुभ चिह्नों से सुशोभित हो। तुम कभी भी अधिक समय तक दुर्भाग्य न भोगोगी। मैं तुम्हारी प्राण प्रेरक वार्त्ता से अति लाभाँवित हुई। यह बुद्धिमत्ता तथा उच्च विचारों की खान है।

प्रिय द्रौपदी! ‘तुम सदैव प्रसन्न रहो।’

यह शब्द कहती हुई सत्यभामा रथ पर बैठ गई और भगवान कृष्ण के साथ उन्होंने अपने नगर को प्रस्थान किया।

(वन पर्व, अ. 232-233)

हमारी पवित्र मातृभूमि, भारतवर्ष, ने सुलभा, गार्गी, मन्दालसा आदि साधु नारियों, सीता, सावित्री अनुसूया तथा नलयानी आदि पतिव्रताओं तथा मीरा ऐसी भक्त नारियों, महारानी चुडलाय ऐसे योगिनियों को जन्म दिया है। ये इतिहास में सहस्रों ज्ञात, अज्ञात नामों में से कुछ ही हैं।

आधुनिक नारी वर्ग को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। उनको उन्हीं की तरह जीवन बिताना चाहिए। उनको भौतिक प्रभावों से दूर रहना चाहिए। एक व्यसनी, विलासी नारी सच्ची स्वाधीनता को नहीं समझती।

यत्र तत्र घूमना, कर्त्तव्य हीन बनना, मनचाहा सब कुछ करना, सब कुछ खाना-पीना, बहित्र (मोटर) दौड़ाना अथवा पश्चिम-निवासियों का अंधानुसरण करना स्वतंत्रता नहीं है। सतीत्व स्त्री का सर्वोत्तम अलंकार है। सतीत्व की सीमा पार करने, मनुष्य की तरह व्यवहार करने से नारी अपनी कोमलता, बुद्धिमत्ता, प्रताप तथा सुँदरता का नाश करती है।

नारी-समाज का अपने अधिकारों, स्वतंत्रता तथा समानाधिकार के निमित्त आँदोलन से कोई लाभ न होगा। धारा-सभा अथवा राज्य परिषद के आसन पर जाना नारी समाज की स्वाधीनता का द्योतक नहीं है। भारत एक आध्यात्मिक देश है। यह ऋषि, मुनि, योगी, योगिनी तथा दार्शनिकों की जन्म भूमि है। आत्मा तथा आध्यात्म विज्ञान के विषय में यह देश अपनी समता नहीं रखता। स्त्रियाँ धार्मिक क्षेत्र में स्थान रखती हैं। बालकों के भविष्य निर्माण में उनका पूर्ण हाथ होता है।

स्त्रियाँ किसी प्रकार भी मनुष्य से हीन नहीं है। वे उत्कृष्ट व्यक्तित्व रखती हैं। वे स्वभावतः धैर्यवान, सहनशील, भक्तिभावपूर्ण होती हैं। वे मनुष्य से अधिक आत्मबल रखती हैं। उनका देवी रूप में सम्मान तथा आदर करना चाहिए किन्तु फिर भी वे मनुष्य के बराबर स्वतंत्र तथा अधिकार नहीं माँग सकतीं। उनको अपने पतियों की आज्ञाकारिणी होना चाहिए। यह सब कुछ उनके प्रताप, तेज तथा पतिव्रत धर्म को और उज्ज्वल करेगा।

पत्नी मनुष्य की अर्धांगिनी होती है। कोई यश अथवा धार्मिक कृत्य उसके बिना सफल न होगा। वह मनुष्य की जीवन साथिन है। ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि जब पत्नी भक्ति और पवित्रता के कारण अपने पति की गुरु बन जाती है। यदि कोई मनुष्य अपनी पत्नी को अपनी दासी, हीन मानकर यह सोचता है कि स्त्री केवल भोजन बनाने तथा भोग के लिए है तो वह अत्यधिक दारुण तथा अक्षम्य अपराध करता है।

स्त्रियों को शिक्षा देनी चाहिए। सभ्य नारियाँ समाज के निमित्त आशीषर्चन के समान होती हैं। किन्तु अत्यधिक स्वाधीनता तथा स्वच्छन्दता का फल अत्यंत भयानक होता है। यह दैहिक जीवन महत्वपूर्ण है। मध्य मार्ग ही सर्वोत्तम है। किसी वस्तु का अतिक्रमण बुरा होता है।

स्त्रियों को गीता, भागवत, रामायण तथा अन्य धार्मिक पवित्र ग्रन्थों का ज्ञान होना चाहिए। स्वास्थ्य विज्ञान, गृह-चिकित्सा, परिचर्या कर्म, बाल शिक्षण, आहार-शास्त्र तथा संतान शास्त्र आदि का ज्ञान होना चाहिए।

स्त्रियाँ प्रकृतितः अच्छी मातायें होती हैं। ईश्वरीय महान उपक्रम में उनको इतना महान कार्य करना होता है। दैवी-उपक्रम में यही सोचा गया था। यही ईश्वरीय इच्छा है। स्त्रियाँ अपना अलग मनोवैज्ञानिक विशिष्ट, स्वभाव, सामर्थ्य, गुण तथा संस्कार रखती हैं तथा मनुष्य अलग। वे मनुष्य से प्रतियोगिता नहीं कर सकतीं और न उनको करना चाहिए। उनको मनुष्य का काम न करना चाहिए। अवश्य वे शिक्षित हों उनको अपने धार्मिक ग्रन्थों का ज्ञान होना चाहिए। माता-पिता का कर्त्तव्य है कि अपनी पुत्रियों को समुचित शिक्षा दिलावें। यह अत्यावश्यक है। अच्छी माताओं का समाज में पूजनीय स्थान होता है। अच्छी मातायें सभी से सम्मानित तथा आदर का पात्र होती हैं। वे क्यों समान समानाधिकार, मताधिकार, स्वतंत्रता तथा स्वाधीनता के निमित्त प्रयत्न करती हैं जब कि समाज में अतुलनीय, स्थिति अपूर्व स्थान तथा पद की अधिकारिणी है। क्या यह अज्ञान और मूर्खता नहीं है?

जिस पवित्र भूमि में सुलभा, मीरा सी पतिव्रता तथा भक्त नारियाँ हों, जो अपनी संतान को धर्म की ओर सत्य के सन्मार्ग पर अग्रसर करे-भगवान से यही प्रार्थना है।


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