मानवता के प्रति एक महान अपराध-माँसाहार

July 1949

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(श्री निरंजन प्रसाद गौतम, पटलौनी)

माँसाहार स्वास्थ्य, धर्म एवं नीति आदि सभी दृष्टियों से अहितकर तथा अनुपयुक्त है। इसे हमें प्रकृति ने भोजन के रूप में नहीं दिया अपितु स्वार्थान्ध मानव ने निरपराध एवं निर्बल जीवों की अपने बल द्वारा हत्या कर उदर पोषणार्थ एक खाद्य रूप में ले लिया है।

माँस खाने से उसका दुष्प्रभाव शरीर और मन दोनों पर ही पड़ता है। पश्चिमी देशों में जहाँ विशुद्ध शाकाहारियों की संख्या नाम मात्र को ही है वहाँ माँस भोगियों की धारणा है कि- माँस शरीर के लिए एक उत्तम खाद्य है उनका कहना है कि माँस में अधिक और उत्तम प्रोटीन ही उसके गुण हैं। दाल एवं वनस्पतियों की अपेक्षा इसके प्रोटीन में पोषण तत्व अधिक पाये जाते हैं तथा अपेक्षाकृत इनका अधिक भाग बेकार नहीं जाता। माँस के प्रोटीन के गुणों की शरीरस्थ माँस के गुणों से समानता होने के कारण शरीर इसे शीघ्र ग्रहण कर लेता है और दाल तथा अनाजों की भाँति माँस में दुष्पाच्य तत्व सेल्यूलोज भी नहीं होता।

माँस भोगियों का यह कथन सुनने में उपयोगी एवं आकर्षक प्रतीत होता है किन्तु स्वास्थ्य विशेषज्ञों की दृष्टि में माँसाहार की अपेक्षा निरामिष भोजन ही श्रेष्ठ है। उनका कहना है कि- माँस पाकाशय में पहुँचते ही अनेकों प्रकार के विषैले कीटाणुओं का उत्पादन करता है। वे कीटाणु रक्त वाहिनी नलियों में प्रवेश कर रक्तावरोध जन्य अनेक व्याधियों को जन्म देते हैं। इससे शरीर में ऐंठन व मस्तिष्क में पीड़ा होने लगती है। माँसाहार से उत्पन्न गठिया अत्यन्त दुखद होता है जो असाध्य का रूप तक ले लेता है। एक विशेष प्रकार का विषैला फोड़ा भी जिसे ‘कैन्स’ कहते हैं अधिक होते देखा जाता है क्योंकि माँस एक शीघ्र सड़ने वाली वस्तु है और उसके सड़ते ही विषैले कीटाणुओं का जन्म होने लगता है। उनसे अनेक प्रकार की वात-व्याधियों की उत्पत्ति हो जाती है।

माँस से शरीर की चर्बी में तो अधिक वृद्धि होती है किन्तु बल में शाकाहारियों की अपेक्षा कुछ भी वृद्धि होते नहीं देखी गई।

दैहिक व्याधियों के साथ-2 इसका दुष्प्रभाव मानसिक शक्तियों पर भी पड़ता है। मानसिक शक्तियों के ह्रास में माँस का प्रमुख स्थान है। मन के ऊपर जो विचारों का परिशोधक मन्य है यदि माँस जन्य विषाक्त परिमाणुओं से लिप्त होगा तो विचार भी अवश्य दूषित हो जावेंगे। परिणाम स्वरूप ज्ञानेन्द्रियाँ कुँठित होने लगेंगी तथा कर्मेन्द्रियों में शैथिल्य की अधिकता आती जायगी साथ ही उदारता, सहानुभूति, शुभ चिंतन एवं न्याय की प्रवृत्ति बहिर्गत होती जाती है। मादकता, अपव्ययता, अकर्मण्यता तथा निर्दयता का साम्राज्य छा जाना है। इसके विपरीत भोजन को फल-घी-दूध-दाल-साग तरकारियों से युक्त सात्विकी बनाया जाय तो मस्तिष्क के विकास में बड़ी सहायता मिलती है। नवीन कल्पना शक्तियों के स्त्रोत खुलते हैं, विवेक बुद्धि जागृत होती है। हमारे पूर्वज गौतम, कपिल, वशिष्ठ, कणादि, विश्वामित्र आदि ऋषियों ने निरामिष भोजन द्वारा ही अपने मस्तिष्क में अनन्त ज्ञान राशि को संचित कर रखा था। उनका भोजन दूध-फल-शाक-सब्जी ही थे, धार्मिक दृष्टियों से भी माँसाहार सर्वथा अनुचित है।

‘यथामाँस तथा सुरा ययाक्षाधिदेवने।

यथापु सो वृवस्यत स्त्रियाँ निहन्यते मनः। एषातेअद्ये

मेनाधिवत्सेनिहन्यताम्। अथर्व 6/7/70/1

इस वेदोक्ति के अनुसार हिन्दू धर्म में, माँस, मदिरा, द्यूत एवं परस्त्रीगमन आदि सब की एक ही श्रेणी के निकृष्ट कर्मों में गणना की है। हिन्दू धर्म के अतिरिक्त इस्लाम के प्रमुख अनुयायी अब्दुल्ला ने मसूद ने कहा है कि ‘जो जानवर को ऐशा अशरत के लिए हलाक करता है वह काबे को बिस्मार करने वाले के मानिन्द दोषी है।’ ईसाई धर्म में माँस को अपवित्र होने की दृष्टि से पुण्य पर्वों पर उसके उपयोग का त्याग किया है, अतएव ईसाई लोग लेण्ट (40 दिन के व्रत) के उत्सव पर उसका उपयोग नहीं करते, इस प्रकार सब की दृष्टियों में यह अपवित्र और हेय होते हुए भी आज इसका अन्य खाद्य पदार्थों की अपेक्षा कम बोलबाला नहीं है। शायद ही कोई नगर होगा-जो पशु-वध के स्थान से रहित हो।

नैतिक दृष्टि से विचारने पर प्रकृति के गर्भ से उत्पन्न होने के नाते सभी प्राणियों में परस्पर सहयोग और प्रेम होना आवश्यक है। प्रत्येक प्रकृति पुत्र में प्राण की स्थापना स्वभावतः मृत्युपर्यन्त उसके जीवन बिताने के लिए हुई है। उसके इस नियम का उल्लंघन करना ईश्वर के प्रति अपराध है। कल्पना कीजिए, आज कोई जीव विशेष अपेक्षाकृत मनुष्य से अधिक शक्तिशाली रहा होता और उसने अपने स्वार्थ के लिए मनुष्य के प्राण लेने का नियम बना लिया होता तो यह मनुष्य को अत्याचार न प्रतीत होता किंतु?

‘सर्वाणिभूतानिमित्रस्यच्क्षुषा समीक्षामहे’ सब प्राणियों को मित्र समझो, की नीति से आज मनुष्य दूर चला गया है वह यदि ‘आत्मवत्सर्व भूतेषु’ के सिद्धाँत को मानता तो उन दयनीय निर्बल उपयोगी एवं भोले-भाले प्रकृति तस्त्रों, पशु-पक्षियों का उदर पोषण के लिए कदापि वध नहीं करता।

जो अपनी जिह्वा की चाटुकारिता के लिए सात्विक अन्न और वनस्पतियों को छोड़कर माँस खाता है। ईश्वर से जीवन अधिकार लेकर आये हुए पशु-पक्षियों को बात की बात में अपने छुरी की धार से माँस का लोथड़ा बना देता है। वह हत्यारा मनुष्य न स्वार्थ ही समझता है न परार्थ ही। एक हानिकारक स्वाद के लिए मानवता के प्रति घोर अपराध करना जो उचित समझते हैं उनकी बुद्धि को क्या कहा जाय?


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