आत्मा के पाँच आवरण

July 1949

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(डॉ. गोपाल प्रसाद जी ‘वंशी’ बेतिया)

उपनिषदों में ब्रह्मज्ञान का उपदेश भिन्न-भिन्न प्रकार के अधिकारियों को भिन्न-भिन्न रीति से किया गया है। उस उपदेश से आत्मा की पहचान होती है। आत्मा सत्-चित्-आनन्द स्वरूप है और आत्मा को छोड़कर जो अन्य सकल अनात्म पदार्थ हैं, वे जड़ कहलाते हैं। जो पुरुष आत्मा और अनात्मा के भेद को जानता है उसको आत्मज्ञानी या ब्रह्मवेत्ता कहते हैं। आत्मा सर्वव्यापक है और समस्त पदार्थों का सार वस्तु है। सर्वव्यापक होने से सर्वत्र विद्यमान है, इसलिए खोज करने पर सर्वत्र और सर्वदा मिल सकता है। इसको खोजने का सबसे अच्छा स्थान अपना शरीर है। उसमें वह पाँच आवरणों से ढ़का हुआ है-

(1) मनुष्य के शरीर में जो भाग जड़ और ठोस देखने में आता है, उसको ‘अन्नमय कोश’ कहते हैं। मनुष्य शरीर में आत्मा के ऊपर यह पहला आवरण (खोल) है और आत्मा इस ‘अन्नमय कोश’ में व्यापक है तथा इस कोश की स्थिति का कारण है।

(2) इस ‘अन्नमय कोश’ के भीतर प्राणों का आवागमन होता है। ये प्राण संपूर्ण ‘अन्नमय कोश’ के भीतर फैले हुए हैं। शरीर के जिस भाग में प्राणों की चेष्टा (क्रिया) नहीं रहती है, वह भाग जड़ या मुर्दा हो जाता है। शरीर में जितनी गति (हरकत) होती है, उस सबका कारण ‘प्राणमय कोश’ हैं। इसके ही बल पर रक्त-संचालन होता है और शरीर में चेष्टा होती है। यह ‘प्राणमय कोश’ नाम का दूसरा आवरण (खोल) है और आत्मा इसमें व्यापक है तथा यह स्वयं ‘अन्नमय कोश’ में व्यापक है।

(3) इन कोशों के भीतर शरीर में एक और आवरण है जो इनसे श्रेष्ठ है और जिसको ‘मनोमय कोश’ कहते हैं, क्योंकि ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ मन के अधीन होकर काम करती हैं। पहले दो के समान इस कोश में भी आत्मा व्यापक है। वह तीसरा आवरण आत्मा को ढके हुए इस शरीर में विद्यमान है और यह स्वयं पहले दोनों-अन्नमय और प्राणमय कोशों में व्यापक है।

(4) इस कोश के भीतर एक चौथा आवरण और है, जो इससे भी श्रेष्ठतर है, जिसको ‘विज्ञानमय कोश’ कहते हैं। मनोमय और प्राणमय कोश इस ‘विज्ञानमय कोश’ के अधीन हैं, क्योंकि जिस मनुष्य में विज्ञान बढ़ा हुआ होता है, वह मन और प्राणों की चेष्टा को रोक सकता है। आत्मा इसमें व्यापक है और आत्मा की विद्यमानता से इसकी स्थिति है। यह स्वयं पहले तीनों कोशों में व्यापक है।

(5) इसके भी भीतर एक पाँचवाँ आवरण है, जिसको ‘आनन्दमय कोश’ कहते हैं। जिस समय मनुष्य घोर निद्रा में होता है तो जागने पर कहता है कि मैं बड़े आराम से सोया था। इस दशा में जब कुल चेष्टायें और समस्त चेष्टाओं को वश में रखने वाले कोश कुछ काम नहीं देते थे तब इस ‘आनन्दमय कोश’ के आश्रय से ही इस शरीर की स्थिति थी। आत्मा इस कोश में व्यापक है और आत्मा के भरोसे ही इस कोश की स्थिति है। यह कोश-शेष चारों कोशों में व्यापक और उनकी स्थिति का कारण है।

आत्मा इन कोशों में व्यापक होकर भी इन कोशों से असक्त और संबंध रहित है। एक मणि के ऊपर पाँच खोल चढ़े हों तो मणि का प्रकाश पाँचों खोलों को तो प्रकाशित करेगा फिर भी वह मणि उन पाँचों से पृथक रहेगी। आत्मा और पंच कोशों का संबंध भी ऐसा ही है।


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