मनुष्य ही देव और असुर है।

July 1949

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(श्री लालचन्द्रजी)

देव भी मनुष्य हैं और असुर भी मनुष्य हैं, देवों से जगत में दिव्य ऐश्वर्य वैभव बढ़ता है और सर्वहित होता है। असुरों की इच्छा सदा केवल अपना ही ऐश्वर्य वैभव बढ़ाने की होती है और उनकी गढ़ी हुई ऐश्वर्य शक्ति जगत में द्रोह, कलह और उपद्रव फैलाकर अन्ततः मनुष्यों में परस्पर युद्ध उत्पन्न करके जगत के विध्वंस का कारण बनती है। असुर साम्राज्यवादी होते हैं, वे केवल अपनी ही बढ़ती चाहते हैं, और छल, कपट, दंभ, अत्याचार से सरल सीधे लोगों को पराधीन कर के उनका हर प्रकार से शोषण करते हैं।

असुरों के प्रभाव से मनुष्य की कामना, लालसा में बदल जाती है। भावना का स्थान परस्पर की स्पर्धा ले लेती है और आपस में सहकार, प्रेम और उदारता के स्थान ईर्ष्या, द्वेष और घृणा मनुष्यों के हृदयों में बस जाते हैं। मानव-हृदय विलास प्रिय हो जाता है और प्रेयसी और रुचि बढ़ते-बढ़ते मनुष्य श्रेय से अलग सा होने लगता है। असुरों के प्रभाव से साधारण जनों में मिथ्याचार, दिखावा, धोखा फैलता है और मनुष्यों की वृत्ति पापमयी, स्वार्थी और मलिन हो जाती है। असुर लोगों की शिक्षा, दीक्षा भी उन्हीं लोगों के अनुकूल हुआ करती है। वे शिक्षा मानवता के विकास की नहीं देते, बल्कि उनकी शिक्षा में कोरे आचार-विचारों की ही भरमार होती है। संक्षेपतः असुरों में हिंसक पशुओं की सी वृत्ति अधिक और मानव स्वभाव के विकास का पर्याप्त अवसर न मिलने के कारण असुर समाज में विलासिता का ही दौर दौरा रहता है। मदिरापान, माँस भक्षण आदि ही उन्हें रुचते हैं और चाय आदि की भरमार के कारण उनका स्वभाव चंचल तथा क्रूर होता है। उनके प्रेम में व्यभिचार, बर्ताव में कपट, व्यवहार में छल तथा आपस में राग रहता है। आपस में भी ऊपरी ही प्रीति होती है। जो स्वार्थ पूर्ति तक टिकती है। उनका प्रेम वास्तव में मोह-युक्त अथवा आसक्ति से बंधा हुआ होता है। असुर स्वभाव वाले लोग प्रेम करना जानते ही नहीं, उनका प्रेम तो विलासिता तथा काम-लिप्सा में समाप्त होता है। समता दृढ़ होती है और हृदय में कर्त्तव्य करने की स्फूर्ति बढ़ती है। सत्य और प्रेम असुर वृत्ति में नहीं दिखाई दिया करते, वहाँ तो दिखावा है, वास्तविकता नहीं।

जो कोई भी स्वार्थी है, जो केवल अपने ही प्राणों का पोषण जानता है जिसे केवल अपनी ही फिक्र है, जिसका ध्येय केवल अपने शरीर की रक्षा है, वहाँ असुर है। असुरत्व की भित्ति स्वार्थ है, देवत्व की नींव उदारता है। जिसका स्वार्थ सीमित है, मर्यादा के अंदर है वह साधारण मानव है। जो अपने स्वार्थ का दमन करके पर हित में लगे हैं वे देव हैं। जो केवल अपनी ही स्वार्थपूर्ति में तत्पर हैं, वे असुर हैं।

असुर अभिमानी, क्रोधी और अन्यायी होते हैं वे धर्म नहीं समझते और उनका आचरण सदा कुटिलता, हिंसा, निर्दयता और कठोरता का होता है। असुर लोगों में पाशविक शक्ति विपुल होती है पर उनमें आत्मिक तेज और ओज नहीं होता। असुर लोग बलवान होते हुए भी सदा अपने अत्याचारों के कारण जनता से भयभीत रहते हैं। असुर लोग निर्लज्ज, लोभी, क्षुद्र, निष्ठुर, द्वेषी, ईर्ष्यालु, कामी तथा पापाचारी होते हैं। असुर लोगों में दर्प, निन्दा, क्रूरता, शठता, पिशुनता, कृपणता, मलिनता आदि दुर्गुण पाये जाते हैं। असुरों को समता नहीं भाती, वे विषमता में ही सुख मानते हैं। असुरों का मन्तव्य है कि वे तो ऐश्वर्यशाली हों और अन्य जन उनके आधीन रह कर उनकी आज्ञा पालन करते रहें। असुरों में आपस में तो ममता तथा राग और स्नेह होता है, पर अन्य लोगों के साथ उनका बर्ताव घमंड का होता है। अहंकार का विकृत रूप असुरों में ही देखा गया है। असुर लोग बहुत डींगें मारते हैं। अपनी कीर्ति के लिए बहुत उत्सुक रहते हैं। सदा यश की कामना करते रहते हैं पर उन्हें न तो सत्पुरुषों में यश ही मिलता है और न भले मनुष्य उनकी कीर्ति ही करते हैं। यश चाहते हुए भी असुरगण सदा अपयश के ही भागी होते हैं। असुरों की नीति में सरलता नहीं होती। धोखा, टेढ़ापन और कुटिलता ही उनकी नीति के आधार होते हैं। असुर लोग जनता के हृदयों पर राज्य नहीं कर सकते, वे केवल शरीरों पर अत्याचार करके अपने अधिकारों का प्रदर्शन किया करते हैं। संसार की हानि सदा से असुरों के कारण ही हुई है।

असुरों में हठ बहुत देखा गया है। वे हारने पर भी ढीठ बने रहते हैं। वृथा बकवाद करना और डींगें मारना उनका मुख्य लक्षण है। अपनी डींगें मारना उनकी आदत होती है। उनमें दम, दान और दया नहीं होती। उनमें स्वैर वृत्ति, कृपणता, वैर भाव, क्रूरता आदि दोष देखे गए हैं, असुरों के भाषण कटु, उनकी वाणी कठोर, उनकी जीवनचर्या दम्भ से भरी होती है। असुर लोग प्रायः साधारण लोगों में भले से बने रहकर उन्हें ठगा करते हैं और अपना स्वार्थ पूरा किया करते है। संक्षेपतः असुरों में सारे लक्षण रजोगुण के पापी जाते हैं, काम और क्रोध, जिनकी उत्पत्ति ही रजो गुण से कही गई है, असुरों में स्पष्ट दीखते हैं। रजोगुण के मूर्तिमान स्वरूप असुर लोग होते हैं। इतिहास साक्षी है कि असुरों के द्वारा जगत का कल्याण कभी नहीं हुआ, सर्वहित उनका ध्येय ही नहीं होता। असुर लोग सदा स्वार्थी होते हैं और यह अनुभव सिद्ध बात है कि स्वार्थ यदि सीमित न रहे तो सदा विनाश का कारण होता है।

देव मनुष्य असुर मनुष्यों से विपरीत गुण वाले होते हैं। देवों में परस्पर प्रेम, मेल-मिलाप तथा समता के भाव विशेष होते हैं। देव मनुष्यों में अन्यता का भाव नहीं होता, वे सबसे अनन्यता का, विमल प्रेम का व्यवहार करते हैं, और इसी कारण सदा अभय रहते हैं। देव मनुष्यों का अन्तःकरण शुद्ध रहता है। उनमें ऋजुता तथा सरलता होती है। अहिंसा, सत्य, शाँति, ओजस्विता स्थिरता, दृढ़ता, धैर्य, ज्ञान, दक्षता आदि सद्गुण देव मनुष्यों में विकसित होते रहते हैं। देव मनुष्य प्रियवादी गंभीर, दयावान, संयमी, सदाचारी और त्यागी देखे गए हैं। यश की भावना देव मनुष्यों में ही चरितार्थ होती है। देवों का अन्तःकरण शुद्ध होता है। शुद्ध पवित्र अन्तःकरण में ही ज्ञानयोग की व्यवस्थिति होती है। देव मनुष्य सदा अभय रहते हैं क्योंकि वे किसी की हानि नहीं करते, सब का हित चाहते और करते रहते हैं और जनता उनके लिए प्राण तक देना कर्त्तव्य समझते है। देव लोग सर्वप्रिय होते हैं। जो अधिकार, बल से, शक्ति से, असुरों को नहीं मिलता, वह अधिकार देवों को उनके उदार चरित्र होने के कारण उन्हें जनता, स्वयं भेंट करती है, वे जनता के हृदयों के राजा होते हैं। जनता के हृदय में उनका निवास होता है क्योंकि वे जनता के सुख-दुख के साथी होते हैं। जनता उनका आदर करती है उनकी आज्ञापालन करती है। देव मनुष्य निष्काम सेवा में ही अपनी तृप्ति ओर प्रसन्नता समझते हैं, वे लेने के स्थान पर देने में ही तत्पर रहते हैं। दर्प और दंभ तो उन्हें छू भी नहीं सकते, वे सदा नम्र और सरल स्वभाव के ही होते हैं। देव मनुष्य नित्य आत्म परीक्षण द्वारा अपने आपको ठीक-ठीक देखकर अपने दोष दूर करते रहते हैं। देवों में अंदर बाहर की पवित्रता स्पष्ट झलकती है। देवलोग त्यागपूर्वक तथा संन्यासी रहकर सब भोग भोगते हैं वे असुरों की भाँति लोलुप तथा लम्पट नहीं होते। देव मनुष्यों की वृत्ति निश्चल, एकाग्र तथा स्थिर होती है, उनमें अभिमान नहीं होता, आत्म-सम्मान होता है। शक्तिशाली होते हुए भी वे नम्र देखे गए हैं। उदारता उनका एक विशेष लक्षण होता है, देव मनुष्यों में अन्य जनों को ठीक-ठीक पहचानने की क्षमता होती है इसलिए उनकी सफलता चिरस्थायी होती है। देव मनुष्यों में सत्वगुण प्रधान होता है। वे सदा प्रसन्न चित्त अपने कर्त्तव्यों को समझने वाले और समझबूझ कर कर्त्तव्य पालन करने वाले हुआ करते हैं। देवलोग सदा अपने वचन को निभाते हैं, वे अपनी प्रतिज्ञा का प्राणपण से पालन करते हैं। सत्यनिष्ठा उनके जीवन की विशेषता होती है, वे सदा कर्त्तव्यरत और कर्मफल-त्यागी होते हैं। वे अपने आपको सात्विक दान तथा ज्ञानयुक्त भोग में व्यय करके सदा प्रफुल्लित रहते हैं। देव मनुष्यों को कभी चिन्ता, भय, शोक और रोग नहीं घेरते, वे सदा स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट होते हैं। उनका व्यक्तित्व आकर्षक होता है। उनका शरीर सुँदर तथा मन पवित्र होता है, वे सत्यम् शिवम् सुन्दरम् के उपासक होते हैं। देवलोग जनार्दन पूजा के लिए विख्यात हैं। निष्काम जनसेवा में ही उन्हें प्रसन्नता मिलती है। देव मनुष्यों में ही वास्तविक पुरुषार्थ देखा गया है। उन्हें आत्मप्रसाद मिलता है। वे जीवन-संग्राम में विजयी होकर जीवन को खेल तथा संगीत के रूप में देखते हैं और नित्य आनन्द मग्न कर्त्तव्य में लगे रहते हैं।

उदार चरित्र देव हैं और कृपण लोग असुर हैं। कृपण तो वास्तव में है कृपा का पात्र, तरस के योग्य। क्योंकि कुमार्ग तथा आसुरी बुद्धि के कारण वह ऐश्वर्य रखता हुआ भी दरिद्री है। उसके मन में संकीर्णता है, असुर सदा चिंतातुर देखे गये हैं। उनके छोटे-दिल, उनके कठोर बर्ताव, उनके छल, कपट, उनके ईर्ष्या, द्वेष और घृणा, उन्हें कभी निश्चित रख ही नहीं सकते। देवजन सदा आत्मतृप्त और संतोषी होते हैं। देवत्व में जीवन का विकास है असुरत्व में जीवन का ह्रास है।


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