(ले.-राजगुरु पं. हरिदत्त जी शास्त्री)
गीता में मानस तप के प्रकरण में ‘मौनमात्म विनिग्रहः, भाव संशुद्धिरित्येतत्तपो मानसः उच्यते।’ मन को शुद्ध करने के लिए मानसिक तप की आवश्यकता है। मानसिक तप का प्रधान अंग मौनव्रत है। नारद ने प. उप. में इसी ब्रह्मनिष्ठा के प्रकरण में कहा है ‘न कुर्यात् वदेत्किंचित्’ अर्थात् ब्रह्म-विकासी को मौन व्रत करना आवश्यक है। उपनिषदों में ‘अवाकी’ शब्द मौनव्रत को प्रकाश देता है? धर्मशास्त्र में कर्मांग में भी मौनव्रत बताया है। ‘उच्चारे जप काले च षट्सुमौनं समाचरेत’। जपकाल, भोजनकाल, स्नान, शौचकर्म में मौन रहना चाहिए। आचार प्रकरण में आता है ‘यावदुष्णं भवेदन्नं या वदश्नन्ति वाग्यतः पितरस्नाव दस्मिनियावन्नोक्ताः हविर्गुणाः।’ भोजन करते समय जब तक मौनपूर्वक भोजन करो, वह भोजन देवता पितरों को पहुँचता है। इसी पर सनक जुजात गीता में कहा है ‘वाचोवेगं मनसः क्रोध वेगं.... एतान् वेगान् योसहमे।’ वाणी के, मन के, इन्द्रियों के वेग को जो रोकता है वह ऋषि और ब्राह्मण है। चरक ऋषि ने विमानस्थान में आरोग्य की शिक्षा में कहा है ‘काले हितमितवादी’। जब कहने का अवसर हो तब संक्षिप्त शब्द और हितप्रद बात बोले।
‘चित्रं वटु तरोः मूले वृद्धा शिष्याः गुरुर्युवा गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्न संशयः’ कहते हैं कि आज एक वट वृक्ष के नीचे आश्चर्यप्रद बात देखी, जहाँ वृद्ध-वृद्ध पुरुष शिष्य थे और युवा गुरु था। गुरु ने मौनव्रत कर दिखाके सारे संशय दूर कर दिये। अर्थात् मौनव्रत से मनोबल होकर ब्राह्मी स्थिति हो जाती है। हाँ, जो गुलामी की जंजीर में जकड़े हुए हैं उनको तो ‘मौनान मूर्ख’ इस कहावत का भय रहता होगा। पर यह सत्य जानिये कि सब प्रकार के कलह शाँति के लिए मौनव्रत परमौषधि है- ‘मौनेन कलहोनास्ति।’ मौनव्रत वाले को कलह से भय नहीं रहता है। मौन न रखने से पहला दोष शास्त्र दृष्टि का यह है कि असत्य के आभास रूप संसार की सत्यवत् बात करना जो पाप है क्योंकि यह संसार परिणाम संधात, नहीं है, यह विवृत है। इसलिए ‘योन्यथा सन्नमात्मा न अन्यथा प्रणिपत्तये किं तेन नत्कर्श पापं चौरेणात्मपहारिणा।’ संसार को सभ्य व्यवहार करना ही आत्मा का अन्यथा ज्ञान है। देह, वृद्धि, दृश्य को सत्य कहना यही अन्यथावाद है। शास्त्र कहता है कि जिसने अपनी वाणी से संसार को सत्य कहा, आत्मा को उल्टा ज्ञान बताया वह चोर पापी है। इस पाप से बचने को भी मौनव्रत उपकारक है। चातुर्मास्य व्रतों में मौनव्रत की प्रतिष्ठा मानी गयी है। माधवाचार्य ने शंकर दिग्विजय लिखने के आरंभ में ही कह दिया। ‘वन्ध्यासूनु खरी विषाण सदृश क्षुद्र क्षितीन्द्र क्षमा .................... मद्वाणि मधिपा संयामि यस्मिन् त्रैलोक्य रंगस्थली’ अर्थात् मैंने राजाओं की झूठी प्रशंसा करने से जो अपनी जिह्वा पर पाप लगा दिया है उसकी शुद्धि करने के निमित्त आज भगवान शंकराचार्य के सच्चे वर्णन को कहता हूँ। इससे भी संसार की झूठी बातों से पाप बताया। उसका उपाय भी मौनव्रत है।
उपनिषद्- ‘यद्वाचा नाभ्युदिते।’ ब्रह्म वह है जो वाणी से नहीं कहा जाता। तब अब्रह्म शब्दों को रोकने के लिए मौनव्रत है। ‘मुनिमौन परो भवेत्’ मौनव्रत में ही मुनि की प्रतिष्ठा है। वाणी तेज का विषय है, तेज ही रवि अर्थात् प्राण है। इसके क्षरण न करने से तेजोमात्रा संचित होकर तेजस्वी दीर्घायु होता है। आपको स्मरण रहे जिन इन्द्रियों से तेजोमात्रा का क्षरण होता है। उनके निग्रह से एक महान शक्ति का संचय हो जाता है। गाँधारी के नेत्रों के द्वारा जो तेजीमात्रा क्षरित होती थी उसका संयमन करके उसने अपने पुत्र दुर्योधन का शरीर अच्छेद्य, अभेद, वज्रमय बना दिया था, इसी तरह वाणी का संयमन जो मौनव्रत है, उसके प्रभाव से वाणी में शक्ति आ जाती थी। द्रोणाचार्य ने अपने पूर्व वाणीव्रत से ‘उभयोरपि सामर्थ्य शापादपि शरादपि’ इसको चरितार्थ किया।
जिसने मौनव्रत धारण कर वाणी के वेग का संयमन कर लिया वह वाणी से कदाचित शाप या अनुग्रह करना चाहे तो कर सकता है। उसकी वाणी इतनी बलवती और सफला हो जाती है वह जो कहता है, चाहे शाप या अनुग्रह दोनों ही, कर सकता है। आपने सत्यवाचा का प्रसंग सुना होगा। उस सत्यवाचा के मुख से जो शब्द निकलते थे वह सत्य होते थे। इसलिए मौनव्रत परमाराध्य है। कुछ लोग खाने-सोने तथा क्लब सोसाइटियों में गप्प लड़ाने के अभ्यस्त हो गये हैं। उनका विश्वास यह रहता है कि गप्प-शप्प करने से मनोविनोद हो जाता है, किन्तु यह बात सर्वथा असत्य है। व्यर्थ गप्प से अपनी वाणी की कुशलता का भ्रामक ज्ञान लोगों को होता है। गप्प करने से वाणी का तेज नष्ट हो जाता है। बकवादी का वेदमयी वाणी पर भी कम विश्वास होता है। गप्प से मन प्रसन्न रहेगा यह भ्रममात्र है। गप्प का परिणाम मन को खेदजनक बनाना है। यह शाँतिकारक वाणी का दोष है। इसलिए परम शाँति चाहने वालों को मौनव्रत पर ध्यान देना चाहिए।
मनोबल और व्रत की प्रारम्भिक भूमिका का ऐसा अभ्यास डालिये कि पहले मितवादी बनने की कोशिश कीजिए, गप्पबाजी से अपना पीछा छुड़ाइए। कम से कम प्रातःकाल में जब तक शौचाचार, भजन होता है तब तक अर्थात् 8-9 बजे तक मौनपूर्वक अपने आपको रखना सीखिए। भोजनादि तथा ऊपर वर्णित कार्यकाल में मौनव्रत रखिए। महीने में किसी एक या दो पुण्य दिन निश्चित कर लीजिए, जैसे- एकादशी या पूर्णिमा या रविवार। इन सब या इनमें से किसी दिन भी मौनव्रत रखिए। इस प्रकार मौनव्रत का अभ्यास पड़ जाने से आप में स्वतः विद्या का प्रकाश और आत्मानुसंधान होने लगेगा और आप मौनव्रत के महात्म्य को स्वयं अनुभव कर लेंगे।
मौनव्रत महान पुण्यदायी पापहारि है। इससे मनोबल का संचार होने लगे जायेगा। पर गूँगा रहना मौनव्रत नहीं है। मौनव्रत रखने से लाभ होता है, केवल चुप्पी साधने से नहीं। मौनव्रती को मिताहारी, ब्रह्मचारी, प्रणवजापी होना चाहिए। ऐसा जप करें कि अर्द्धमात्रा का अनुभव हो जाये। जिससे निर्वाण कला की जागृति हो। मैंने स्वामी कृष्णानन्द जी को एक बार 15 वर्ष के बाद देखा। उनका अखण्ड मौनव्रत साढ़े तीन वर्षों से है। उनमें ब्रह्म तेज की शक्ति आप देख सकते हैं। वे नग्न गंगोत्री में रहते हैं। 1907 में एक महात्मा को विमलेश्वर में मैंने देखा लोगों ने कहा कि 36 वर्ष से इनका मौनव्रत चल रहा है।