जागते रहिए! सावधान रहिए!!

July 1949

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(2)

जागृत तन्द्रा में विभोर मनुष्य-वास्तव में आधा मनुष्य है। अर्ध जीवित और अर्ध मृतक उसे कह सकते हैं। जैसे शरीर के एक भाग को लकवा मार जाय और दूसरा भाग अच्छा रहे तो उससे क्या काम हो सकेगा? किसी आदमी का एक हाथ एक पैर एक कान, एक आँख नष्ट हो जाय तो उस बेचारे की बड़ी दुर्दशा होगी। इसी प्रकार जो अर्धतन्द्रा में पड़ा रहता है वह अधूरा मनुष्य जीवन संग्राम में विजय प्राप्त करने वाला योद्धा नहीं बन सकता। लापरवाही एक मानसिक लकवा है जिससे आधा मस्तिष्क लुँज-पुँज हो जाता है। ऐसे मानसिक अपाहिज दरिद्रता के चिथड़े में लिपटे एक कोने में पड़े रहते हैं और जीवन के भार को किसी प्रकार गिरते मरते ढोते रहते हैं। उन्नत, समृद्ध एवं सम्पन्न जीवन तो उनके लिए आकाश कुसुम की भाँति दुर्लभ है।

जीवन की धूलि में मिला देने वाला यह सत्यानाशी रोग जितना भयंकर और घातक है उतना ही चिकित्सा में सुगम भी है। ज्वर, खाँसी, दस्त आदि रोग ऐसे हैं कि उनको दूर करने में किसी जानकार चिकित्सक से सलाह लेने की और अमुक औषधियाँ खरीदने और सेवन करने की आवश्यकता पड़ती है, कई तरह के उपचार करने पड़ते हैं। तब कहीं कुछ समय लेकर वे रोग नष्ट होते हैं। परंतु इस रोग के निवारण करने में इस प्रकार का एक भी झंझट नहीं है। रोगी जब चाहे कि मुझे इस रोग से पीछा छुड़ाना है, उसी समय वह उससे छुटकारा पा सकता है। यह रोग तभी तक ठहरता है जब तक रोगी उसका विरोध नहीं करता और अपने में उसे ठहरने देता है, पर जब वह विरोध करने और हटा देने को उतारू हो जाता है तो फिर उसका ठहरना नहीं हो सकता। व्यभिचार दूसरे पक्ष के सहयोग पर निर्भर है। यदि पुरुष व्यभिचारी हो पर कोई स्त्री उसके कार्य में सहयोग न दे तो व्यभिचार होना असंभव है। इसी प्रकार जागृत तन्द्रा का घातक रोग भी रोगी के सहयोग पर निर्भर है। जहाँ विरोध होगा, हटाने का प्रयत्न होगा, वहाँ उसका ठहरना नहीं हो सकता। यह रोग किसी को उसकी इच्छा के विरुद्ध अपना शिकार नहीं बना सकता। जैसे ही मनुष्य यह सोचता है कि मुझे अपने को जागृत तन्द्रा के चंगुल से छुड़ाना है वैसे ही उस बीमारी के पाँव उखड़ जाते हैं। जैसे ही वह यह दृढ़ संकल्प करता है कि मैं जागरुक रहूँगा-लापरवाही को पास भी न फटकने दूँगा। वैसे ही वह अपना बोरिया बिस्तर समेट लेती है। कहते हैं कि चोर के पैर बड़े कमजोर होते हैं। घर का मालिक चाहे वह कमजोर ही क्यों न हो जाग पड़े और सावधान हो जाय तो घर में घुसे हुए हट्टे-कट्टे पहलवान चोर को भी भागना पड़ता है। मन के सजग हो जाने पर लापरवाही भी चोर की तरह भाग खड़ी होती है।

अन्धकार क्या है? प्रकाश के अभाव का नाम ही अन्धकार है, वैसे स्वतंत्र रूप से अन्धकार का कोई अस्तित्व नहीं। अन्धकार नाम का पदार्थ स्वतंत्र रूप से कहीं उपलब्ध नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार लापरवाही भी स्वतंत्र चीज नहीं है। जागरुकता का अभाव ही लापरवाही है। जैसे स्नान करना या न करना, टहलने जाना या न जाना, अपने हाथ की बात है, उसी प्रकार मन का जागरुक रखना या न रखना भी अपने हाथ की बात है। अपनी इच्छा के ऊपर यह सब निर्भर है। मन की इच्छा होती है तो उसकी आज्ञानुसार हाथ अपना काम करना शुरू कर देता है और जब तक इच्छा रहती है वह काम में जुटा रहता है। मन की इच्छा न हो तो हाथ को हिलने-डुलने से कुछ प्रयोजन नहीं। मस्तिष्क की भी यही दशा है। मनुष्य चाहता है कि सावधानी, एकाग्रता और दिलचस्पी से काम करूं तो उसकी इस चाहना के मार्ग में कोई बाधा नहीं। खुशी-खुशी मस्तिष्क उसी प्रणाली को अपना लेता है जिसको कि मन चाहता है। जिस काम में अधिक रुचि होती है उस काम को लापरवाह व्यक्ति भी बड़ी सावधानी से पूरा करते हैं। जैसे शतरंज, चौपड़ या ताश खेलने में जिसकी अधिक रुचि होती है वह उस खेल को बड़ी सावधानी और सफलता के साथ खेलता है। उस खेल में बहुत कम भूलें उससे होती हैं। परंतु वही व्यक्ति जब दूसरे काम करता है तो भूल पर भूल होने लगती है। इससे सिद्ध है कि मन की ढील या उदासीनता ही लापरवाही का मूल कारण है। जबकि लापरवाह, आलसी और प्रमादी व्यक्ति किसी अपनी दिलचस्पी के एक काम में अपना कौशल प्रकट कर सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि वे अन्य कार्यों में कौशल प्रकट न कर सकें बाधा केवल एक ही है वह है-मन की उदासीनता। इस बाधा को हटा दिया जाय तो हर एक व्यक्ति पूर्ण रूप से क्रिया कुशल, कर्त्तव्य निष्ठ, परिश्रमी, कर्मपरायण और सफल मनोरथ हो सकता। उसके कार्यों में जो त्रुटियाँ, कुरूपताएं, फूहड़पन तथा गैर जिम्मेदारी भरी रहती है उन सबका दर्शन भी दुर्लभ हो सकता है।

जो व्यक्ति जागरुक बनना चाहता है उसे प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि “मैं जागृत जीवन व्यतीत करूंगा। आत्म गौरव की रक्षा के लिए अपने हर एक कार्य को सफल और सुँदर बनाने का प्रयत्न करूंगा। जीवन के बहुमूल्य क्षणों का अत्यन्त सावधानी के साथ सुव्यवस्थित ढंग से सदुपयोग करूंगा।” यह प्रतिज्ञा जिह्वा के अग्रभाग से नहीं वरन् अन्तःकरण के गहनतम प्रदेश से की जानी चाहिए। लापरवाही से होने वाली भयंकर हानियों के ऊपर बहुत समय तक गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। जिन लोगों के लापरवाही की कारण जीवन दुर्दशा ग्रस्त हो रहे हैं उनकी दशा का सुविस्तृत चित्र कल्पना लोक में खींचना चाहिए और विचार करना चाहिए कि यदि उनमें यह दोष न रहा होता तो कितना आगे बढ़ गये होते। इसी प्रकार कुछ उन लोगों के जीवनों पर दृष्टिपात करना चाहिए जो साधारण सी स्थिति के होते हुए भी अपने अध्यवसाय के कारण कितने आगे बढ़े गये। यदि उन उन्नतिशील व्यक्तियों ने इतनी सावधानी न बरती होती तो जो उनकी आरंभिक दशा थी, उससे भी गिरी दशा होती। ऐसी दशा में उस गिरी दशा में और आज की उन्नतिशील दशा में कितना जमीन आसमान का अंतर होता।

एक वे हैं जो लापरवाही के कारण ऊँचे से नीचे गिरे, दूसरे वे हैं जो जागरुकता के कारण नीचे से ऊँचे उठे हैं। इन दोनों प्रकार के मनुष्यों की आरंभिक और अंतिम अवस्था के अंतर को ध्यानपूर्वक देखने से पता चलता है कि सावधानी में कितनी महानता और असावधानी में कितनी भयंकरता भरी हुई है। इस महानता और भयंकरता को एक-एक करके अपने जीवन से संबद्ध होने की कल्पना करनी चाहिए और मस्तिष्क में एक छाया चित्र बनाना चाहिए कि यदि भूतकाल में मैंने असावधानी न बरती होती तो अब तक कितना आगे होता, तब आज कैसे उत्तम दशा रही होती। असावधानी के कारण कितने स्वर्ण सुयोग हाथ से निकल गये, समय और शक्ति की कितनी बर्बादी हुई। इस पर खेदपूर्ण पश्चाताप करना चाहिए और एक दूसरे कल्पना चित्र में यह सीखना चाहिए कि यदि भावी जीवन में सावधानी बरती जाय तो किस-किस दिशा में कितनी-कितनी प्रगति हो सकती है? और उस उन्नति-युक्त दशा में अपनी स्थिति कितनी अच्छी एवं आनन्द- दायक हो सकती है। इस प्रकार असावधानी से उत्पन्न होने वाली हानियों का भय और सावधानी से होने वाले लाभों का लोभ, अनेक उदाहरणों, तर्कों, प्रमाणों और कल्पनाओं के साथ मन के सामने रखने से भीतर से एक स्फुरणा उत्पन्न होती है। यदि वह स्फुरणा कायम रखी जा सके तो मनुष्य जागरुक बन सकता है।

जीवन को जागृत बनाने के लिए दो शर्तों की प्रधान रूप से आवश्यकता है। एक तो समय का कार्य विभाजन, दूसरे अपने कार्यों में रुचि, प्रातःकाल चारपाई पर से उठते ही दिन भर का कार्यक्रम बना लेना चाहिए कि आज कौन कार्य किस समय करना है। उन कार्य की विशेष आवश्यकता के अनुसार समय में हेर-फेर करना पड़े तो कोई बात नहीं, परंतु अपनी निजी ढील के कारण जरा भी विलंब न होना चाहिए। जिन्हें प्रातःकाल का नियत किया हुआ कार्यक्रम याद रखने में अड़चन पड़ती हो उन्हें डायरी में नोट कर लेना चाहिए और रात को जब सोते समय यह देखें कि उस कार्यक्रम पर अमल हुआ या नहीं? यदि नहीं हुआ तो उसका कारण अन्य परिस्थितियाँ थीं या अपनी ढील? जहाँ अपनी ढील दिखाई पड़े वहाँ अपने को डाँटना चाहिए और आगे के लिए सावधानी रखने की दृढ़ता स्थापित करनी चाहिए।

हर कार्य को अपने गौरव की कसौटी समझ कर करना चाहिए। इस कार्य की श्रेष्ठता या निकृष्टता पर मेरा व्यक्तित्व परखा जाने वाला है। यह अनुभव करना चाहिए। जैसे कोई चित्रकला का विद्यार्थी चित्र बनाते समय यह ध्यान रखता है कि इस अभ्यास से तात्कालिक लाभ न सही पर अभ्यास हो जाने पर जब मैं सफलता के शिखर पर पहुँचूँगा तो यह लाभ बहुत बड़ा होगा। इस दृष्टिकोण से वह बड़ी मेहनत और एकाग्रता से काम करता है। वह जानता है कि शिक्षाकाल की छोटी-मोटी रद्दी कागज पर, मामूली स्याही से बनने वाली तस्वीरों का स्वयं कुछ विशेष महत्व नहीं है, तो भी इन रद्दी कागज पर बड़े परिश्रमपूर्वक बनाये जाने वाले चित्रों के अंतर्गत चित्रकला में महान सफलता का रहस्य निहित है। साधारण छोटे-मोटे दैनिक जीवन के कार्यों को जो मनुष्य अच्छे से अच्छा, सुँदर से सुँदर, बढ़िया से बढ़िया बनाने का प्रयत्न करता है। वह अपनी क्रिया शक्ति को सतेज करता है, अपने अभ्यास को बढ़ाता है। उन छोटे कामों में विशेष मनोयोगपूर्वक अधिक सुँदरता उत्पन्न करना तत्काल कुछ विशेष महत्व भले ही न रखता हो पर उसे अभ्यास, सुरुचि, बनाने और बढ़िया काम करने की जो आदत पड़ती है वह अत्यन्त ही मूल्यवान है।

यह बढ़िया काम किसने किया है? जब इस प्रश्न को प्रसन्न और सन्तुष्ट चेहरे से कोई पूछता हो तो समझ लीजिए कि उस काम के कर्ता के लिए सजीव उपहार भेंट किया जा रहा है। मनुष्य का गौरव इस बात में है कि उसके कामों के अच्छेपन, सुघड़ता और निर्दोषता के लिए प्रशंसा की जाय। जो व्यक्ति अपने काम को प्रशंसा योग्य बनाता है, वह काम उलट कर अपने करने वाले को प्रशंसा योग्य बनाता है। बहुत काम करना अच्छी बात है। पर उससे भी अच्छी बात यह है कि काम को उत्तमता से किया जाय। बहुत काम करना पर खराब करना यह कोई अच्छाई नहीं है, चाहे अपेक्षाकृत कुछ कम काम हो पर वह उत्तमता से किया हुआ होना चाहिए।

चीजों को संभाल कर यथास्थान रखना, यह एक बड़ा अच्छा गुण है। इससे वस्तुएं खोने फूटने-टूटने या मैली कुचैली होने से बच जाती हैं और वे अधिक समय तक अपनी मजबूती तथा सुँदरता को कायम रखे रहती हैं। सौंदर्य का प्रथम नियम चीजों का यथास्थान रखना है, नियत स्थान से भिन्न जगह पर पड़ी हुई वस्तु ही कूड़ा कचरा कही जाती है। प्रयोजन पूरा होने के उपरान्त वस्तुओं को जहाँ-तहाँ न पड़ी रहने देना चाहिए, वरन् उन्हें यथास्थान रखने के बाद तब वहाँ से हटना चाहिए। किसी काम की समाप्ति तब समझनी चाहिए जब उस कार्य में प्रयुक्त हुई वस्तु यथास्थान पहुँचा दी जाय।

(1) इस कार्य में कोई भूल तो नहीं हो रही है? (2) इस कार्य को और अच्छा किस तरह बनाया जा सकता है? इन दो प्रश्नों को सदैव मन में जागृत रखने से ऐसे उपाय सूझ पड़ते हैं जिनके द्वारा अधिक लाभदायक, संतोषजनक और उन्नतिशील स्थिति प्राप्त हो सके। मैं जाग्रत तन्द्रा में तो नहीं जा रहा हूँ? कोई लापरवाही तो नहीं बरत रहा हूँ? आलस्य में बहुमूल्य समय तो नहीं गंवा रहा हूँ? प्रमाद के लक्षण तो मुझमें नहीं आ रहे हैं? इस प्रकार के प्रश्नों से अपनी शोधक दृष्टि को भरा रखना चाहिए और एक निष्पक्ष एवं खरे आलोचक की तरह अपने आप की परीक्षा तथा समीक्षा करते रहना चाहिए जैसे मुँह पर कोई मक्खी या मच्छर आ बैठे तो उसे तुरंत ही उड़ा देने के लिए हाथ उठता है वैसे ही लापरवाही को मक्खी और आलस्य को मच्छर समझ कर उन्हें पास न आने देना चाहिए और जैसे ही वे दिखाई दें वैसे ही तुरंत ही उन्हें भगा देने का प्रयत्न करना चाहिए।

अपना स्वभाव ढीला पोला मत बनने दीजिए, अपने मन को उदास, निराश ओर गिरा हुआ मत रहने दीजिए। समय को तुच्छ वस्तु समझ कर उसका अपव्यय मत कीजिए। अपने आपको सदा चैतन्य, जागरुक और कर्त्तव्य परायण रखिए। जागृति में जीवन और तन्द्रा में मृत्यु है। आप जीवितों का जीवन जीना चाहते हैं तो जागृत रहिए। अपने हर काम को सावधानी और सतर्कता के साथ कीजिए। स्मरण रखिए जागृत मनुष्यों को ही जीवन फल मिलता है। वह कहावत बिल्कुल सत्य समझिए कि-

‘जागै सो पावै! सोवै सो खोवै


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118