सत्य असत्य की विवेचना

July 1949

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(लोकमान्य तिलक)

वेद में सत्य की महिमा के विषय में कहा है कि सारी सृष्टि की उत्पत्ति के पहले ऋतं और सत्यं उत्पन्न हुए। और सत्य ही से आकाश, पृथ्वी, वायु आदि पंच महाभूत स्थिर हैं- ‘ऋतंच सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्य जायत।’ ऋ. 10, 190, 1 ‘सत्ये नोत्तभिता भूमिः।’ ऋ. 10,86,1। सत्य शब्द का धातुगत अर्थ भी यही है-रहने वाला अर्थात् जिसका कभी अभाव न हो अथवा त्रिकाल अबाधित। इसीलिए सत्य के विषय में कहा गया है कि सत्य के सिवाय और धर्म नहीं है, सत्य ही परब्रह्म है। महाभारत में कई जगह इस वचन का उल्लेख किया गया है कि ‘नास्ति सत्यात्परो धर्मः’ (1,162,24) और यह भी लिखा है कि-

अश्वमेध सहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम।

अश्वमेध सा स्त्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते॥

आ. 74, 102

हजार अश्वमेध और सत्य की तुलना की जाय तो सत्य ही अधिक होगा।

सत्य के संबंध में मनु जी का कहना है-

वाच्यर्था नियताः सर्वे वां मूला वाग्विनिःसृताः।

ताँ तुयः स्तेनयेद्वाचं स सर्वस्तेय कृन्नरः।

मनुष्यों के सब व्यवहार वाणी से हुआ करते हैं। एक के विचार दूसरे को बताने के लिए शब्द के समान अन्य साधन नहीं है। वही सब व्यवहारों का आश्रय स्थान और वाणी का मूल दाता है। जो व्यक्ति उसको मलिन कर डालता है अर्थात् जो वाणी की प्रतारणा करता है, वह सब पूँजी ही की चोरी करता है। इसीलिए मनु ने कहा है ‘सत्यपूताँ वदेद्वाचं, मनु. 6-46 जो सत्य से पवित्र किया गया हो, वही बोला जाय। और और धर्मों से सत्य ही को पहला स्थान देने के लिए उपनिषद् में भी कहा है। सत्यंवद, धर्मंचर (तै. 1, 11, 1) जब बाणों की शैय्या पर पड़े भीष्म पितामह शाँति और अनुशासन पर्वों में, युधिष्ठिर को सब धर्मों का उपदेश दे चुके तब प्राण छोड़ने के पहले ‘सत्येषु युतितव्यं वः सत्यं हि परमं बल’ इस वचन को सब धर्मों का सार समझ कर उन्होंने सत्य ही के अनुसार व्यवहार करने के लिए सब लोगों को उपदेश किया है।

जो सत्य इस प्रकार स्वयं सिद्ध एवं चिरस्थायी है, उसके लिए कुछ अपवाद भी हैं। कल्पना कीजिए कि कुछ आदमी चोरों से पीछा किये जाने पर तुम्हारे सामने किसी स्थान में जाकर छिप रहे। इसके बाद हाथ में तलवार लिए हुए चोर तुम्हारे पास आकर पूछने लगे कि वे आदमी कहाँ चले गये! ऐसी अवस्था में तुम क्या कहोगे? क्या तुम सच बोल कर सब हाल कह दोगे या उन निरपराधी मनुष्यों की रक्षा करोगे? शास्त्र के अनुसार निरपराधी जीवों की हिंसा को रोकना सत्य ही के समान महत्व का धर्म है। मनु कहते हैं-

नापृष्ठः कस्यचिद् ब्रू यान्न चान्यायेन पृच्छतः।

(2.110 म.भा. 6, 287, 34)

जब तक कोई प्रश्न न करे, तब तक किसी से बोलना नहीं चाहिए। और यदि कोई अन्याय से प्रश्न करे तो पूछे पर भी उत्तर नहीं देना चाहिए। यदि मालूम भी हो तो सिड़ी या पागल के समान कुछ हूँ हूँ करके बात बना देना चाहिए- ‘जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेत्।’ अच्छा, क्या हूँ-हूँ कर देना और बात बना देना एक तरह से असत्य भाषण करना नहीं है। महाभारत में कई जगह कहा है कि ‘न व्याजेन चरेर्द्धम’ (आ. 215, 34) धर्म से बहाना करके मन का समाधान नहीं कर लेना चाहिए, क्योंकि तुम धर्म को धोखा नहीं दे सकते। तुम खुद धोखा खा जाओगे। अच्छा, यदि हूँ-हूँ करके कुछ बात बना देने का भी समय न हो तो क्या करना चाहिए? मान लीजिए, कोई चोर हाथ में तलवार लेकर छाती पर आ बैठा है और पूछ रहा है कि तुम्हारा धन कहाँ है? यदि कुछ उत्तर न दोगे तो जान ही से हाथ धोना पड़ेगा। ऐसे समय पर क्या बोलना चाहिए? सब धर्मों का रहस्य जानने वाले भगवान कृष्ण ऐसे ही चोरों की कहानी का दृष्टान्त देकर कर्ण पर्व (69, 61) में अर्जुन से और आगे शाँति पर्व के सत्यानृत अध्याय 109, 15, 16 में भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं-

अकूजनेम चेन्मोक्षो नावकूजेत्कथंचन।

अवश्यं कूजितन्ये वा शंकरेन्वाप्यकूजनात्।

श्रेयस्त्रत्रानृतं वक्तुँ सत्यादिति विचारितम्।

अर्थात् यह बात विचारपूर्वक निश्चित की गई है कि यदि बिना बोले मोक्ष या छुटकारा हो सके तो, कुछ भी हो बोलना नहीं चाहिए। और यदि बोलना आवश्यक हो अथवा न बोलने से (दूसरों को) कुछ सन्देह होना संभव हो, तो उस समय सत्य के बदले असत्य बोलना ही अधिक उपयुक्त है। इसका कारण यह है कि सत्य धर्म केवल शब्दोच्चार ही के लिए नहीं है। अतएव जिस आचरण से सब लोगों का कल्याण हो, वह आचरण सिर्फ इसी कारण से निन्द्य नहीं माना जा सकता कि शब्दोच्चार अयथार्थ है। जिससे सभी की हानि हो वह न तो सत्य ही है और न अहिंसा ही। शाँतिपर्व (329,13,287,18) में सनत् कुमार के आधार पर नारदजी शुक्रदेवजी से कहते हैं-

सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्।

यद्भूत हितमत्यन्तं एतत्सत्यं मतं मम॥

सच बोलना अच्छा है, परंतु सत्य से भी अधिक ऐसा बोलना अच्छा है जिससे सब प्राणियों का हित हो, क्योंकि जिससे सब प्राणियों का अत्यन्त हित होता है वही, हमारे मन से, सत्य है। यह वचन महाभारत के वनपर्व में ब्राह्मण और व्याघ्र के संवाद में दो-तीन बार आया है। उनमें से एक जगत तो ‘अहिंसा सत्य वचनं सर्व भूत हितं परम्’ पाठ है। (वन 206,73) और दूसरी जगह ‘यद्भूत हितमत्यन्तं तत्सत्यमिति धारणा (वन 208, 4) ऐसा पाठान्तर किया गया है सत्य प्रतिज्ञ युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य से ‘नरो व कुँजरो वा’ कह कर उन्हें संदेह में क्यों डाल दिया? इसका कारण वही है जो ऊपर कहा गया है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि हमारे शास्त्रकारों ने झूठ बोलकर किसी खूनी की जान बचाने का समर्थन किया हो। शास्त्रों में, खून करने वाले आदमी के लिए देहान्त प्रायश्चित अथवा वधदण्ड की सजा कही गई है। इसलिए वह तो सजा पाने या वध करने के ही योग्य है। शास्त्रकारों का कहना है कि ऐसे समय अथवा इसी के समान और किसी समय जो आदमी झूठी गवाही देता है वह अपने सात या अधिक पूर्वजों सहित नरक में जाता है।

(मनु 8, 89, 99, म. भा. 6, 3)

अन्य धर्मों में भी इसी का समर्थन होता है। ईसामसीह के शिष्य पाल बाइबिल में कहते हैं यदि मेरे असत्य भाषण से प्रभु के सत्य की महिमा और बढ़ती है (अर्थात् ईसाई धर्म का अधिक प्रचार होता है) तो इससे में पापी क्यों कर हो सकता हूँ। (रोम 3, 7) ईसाई धर्म के इतिहासकार मिलमैन ने लिखा है कि प्राचीन ईसाई धर्मोपदेशक कई बार इसी तरह आचरण किया करते थे। वर्तमान समय के नीति शास्त्रज्ञ भी इसका समर्थन करते हैं। सिजविक नाम के नीति शास्त्र जिनका कि नीति शास्त्र कालेजों में पढ़ाया जाता है उनका कहना है कि “छोटे लड़कों को और पागलों को उत्तर देने के समय और इसी प्रकार बीमार आदमियों को (यदि सच बात सुना देने से उनके स्वास्थ्य के बिगड़ जाने का भय हो तो) अपने शत्रुओं को, चोरों को और यदि बिना बोले काम न चलता हो तो) जो अन्याय से प्रश्न करे उनको उत्तर देने के समय अथवा वकीलों को अपने व्यवसाय में झूठ बोलना अनुचित नहीं है।” ‘लेस्ली स्टीफन’ नामक अंग्रेज ग्रंथकार अपने नीति शास्त्र विषयक आधिभौतिक विवेचन में कहता है कि ‘किसी कार्य के परिणाम की ओर ध्यान देने के बाद ही किसी बात की नीतिमत्ता निश्चित की जानी चाहिए। यदि मेरा यह विश्वास हो कि झूठ बोलने ही से कल्याण होगा तो मैं सत्य बोलने के लिए कभी तैयार नहीं रहूँगा। मेरे इस विश्वास में यह भाव भी हो सकता है कि इस समय झूठ बोलना ही मेरा कर्त्तव्य है। नीति शास्त्र की चर्चा करते हुए ग्रीन साहब ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि ‘नीति शास्त्र यह नहीं कहता कि किसी साधारण नियम के अनुसार सिर्फ यह समझ कर कि वह है हमेशा चलने में विशेष कुछ महत्व है, किन्तु उसका कथन सिर्फ यही है कि सामान्यतः उस नियम के अनुसार चलना हमारे लिए श्रेयस्कर है। इसका कारण यह है कि ऐसे समय हम लोग केवल नीति के लिए, अपनी लोभ मूलक नीच मनोवृत्तियों को त्यागने की शिक्षा पाया करते हैं।

हमारे शास्त्रकारों का कहना है कि-

न नर्मयुक्त वचनं हिनस्ति न स्त्रीषु राजन्न विवाह काले। प्राणात्यये सर्वधनापहारे पंचानृताम्याहुरपातकानि॥

अर्थात् ‘हंसी में’ स्त्रियों के साथ, विवाह के समय, जब जान पर आ बने तब और सम्पत्ति की रक्षा के लिए, झूठ बोलना पाप नहीं है। (म.भा. आ. 82, 16, शा.प. 109, मनु 8.110) परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि स्त्रियों के साथ हमेशा ही झूठ बोला करें। सिजविक साहब ने जिस भाव से छोटे लड़के, पागल और बीमार आदमी के विषय में अपवाद कहा है वही भाव महाभारत के उक्त कथन का भी है। अंग्रेज ग्रन्थकार पारलौकिक और आध्यात्मिक दृष्टि पर कुछ भी ध्यान नहीं देते इसी लिए तो उन्होंने लिख मारा कि व्यापारियों को अपने लाभ के लिए झूठ बोलना तथा वकीलों का अपने व्यवसाय के लिए झूठ बोलना अनुचित नहीं है किन्तु यह बात हमारे शास्त्रकारों को मान्य नहीं है। इन लोगों ने कुछ ऐसे ही मौकों पर झूठ बोलने की अनुमति दी है जब कि केवल सत्य शब्दोच्चारण (केवलवाचनिकसत्य) और सर्वभूत हित (अर्थात् वास्तविक सत्य) में विरोध हो जाता है और व्यावहारिक दृष्टि से झूठ बोलना अपरिहार्य हो जाता है। इनका कहना है कि सत्य आदि नीति धर्म नित्य अर्थात् सब समय एक समान अपरिहार्य हैं, अतएव यह अपरिहार्य झूठ बोलना भी थोड़ा सा पाप ही है और इसीलिए प्रायश्चित भी कहा गया है यथा- तत्पावनाय निर्वाप्यश्चरुः सारस्वतो द्विजैः। (याज्ञ. 283, मनु. 8, 104-106) युधिष्ठिर ने संकट के समय एक ही बार दबी हुई आवाज से ‘नरो वा कुँजरो वा’ कहा था जिसका फल यह हुआ था कि उसका रथ जो पहले जमीन से चार अंगुल ऊपर चला करता था, अब और मामूली लोगों के रथों के समान धरती पर चलने लगा, और अंत में एक क्षणभर के लिए उन्हें नरक लोक में भी रहना पड़ा। (म.भा. द्रोण 191, 51, 58 तथा स्वर्गा. 3, 15) इससे सिद्ध होता है कि सत्य के संबंध में जो विशेष अवसरों के लिए अपवाद दिए गए हैं वे मुख्य या प्रमाण नहीं माने जा सकते क्योंकि शास्त्रकारों का तो अंतिम और तात्विक सिद्धाँत है-

आत्महेतोः परार्थे वानर्महास्याश्रपात्तथा।

येमृषानवदन्तीह ते नराः र्स्वणगामिनः॥

म.भा. अनु. 144/19

जो लोग इस जगत में स्वार्थ के लिए, परार्थ के लिए ठट्ठे में भी कभी झूठ नहीं बोलते, उन्हीं को स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

अपनी प्रतिज्ञा या वचन को पूरा करना सत्य ही में शामिल है। भगवान श्रीकृष्ण और भीष्म पिता यह कहते हैं कि चाहे हिमालय पर्वत अपने स्थान से हट जाय अथवा अग्नि शीतल हो जाय परंतु हमारा वचन टल नहीं सकता। (म.भा.आ. 103 तथा 81-48) भर्तृहरि ने भी ऐसे सत्पुरुषों का वर्णन किया है-

तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति।

सत्यव्रतव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम्॥

तेजस्वी पुरुष आनन्द से अपनी जान भी दे देंगे परंतु वे अपनी प्रतिज्ञा का त्याग कभी नहीं करेंगे। (नीति श. 110) श्री रामचन्द्रजी के एक पत्नी व्रत के साथ उनका एक बाण और एक वचन का व्रत प्रसिद्ध है। ‘द्विः शरं नाभि संघत्ते रामो द्विर्नाभिभाषते।’ हरिश्चन्द्र ने अपने स्वप्न में दिए वचन को सत्य करने के लिए डोम की नीच सेवा भी की थी। यद्यपि इस प्रकार के सत्याचरण के विरुद्ध भी कुछ न कुछ मिलता है। जैसे वेद में इन्द्रादि देवताओं ने वृत्रासुर के साथ जो प्रतिज्ञाएं की थीं उन्हें तोड़ दिया और उसको मार डाला। व्यवहार में भी कुछ कौल करार ऐसे होते हैं जो न्यायालय में बेकायदा समझे जाते हैं या जिनके अनुसार चलना अनुचित माना जाता है। अर्जुन के संबंध की एक ऐसी ही कथा महाभारत (कर्ण पर्व 99) में है। अर्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि ‘जो कोई मुझसे कहेगा कि तू अपना गाण्डीव धनुष किसी दूसरे को दे दे उसका शिर मैं तुरंत ही काट डालूँगा,’ इसके बाद युद्ध में जब युधिष्ठिर कर्ण से पराजित हुआ तब उसने निराश होकर अर्जुन से कहा। तेरा गाण्डीव हमारे किस काम का है, तू उसे छोड़ दे। यह सुनकर अर्जुन हाथ में तलवार ले युधिष्ठिर को मारने दौड़ा, भगवान कृष्ण उस समय वहीं थे उन्होंने तत्व ज्ञान की दृष्टि से सत्य धर्म का मार्मिक विवेचन करके अर्जुन को यह उपदेश किया कि ‘तू मूर्ख है, तुझे अब तक सूक्ष्म धर्म मालुम नहीं हुआ है, तुझे वृद्धजनों से इस विषय की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। ‘न वृद्धाः सेवितास्त्वया।’ तूने वृद्धजनों की सेवा नहीं की है। यदि तू प्रतिज्ञा की रक्षा करना ही चाहता है तो तू युधिष्ठिर की निर्भर्त्सना कर, क्योंकि सभ्यजनों की निर्भर्त्सना मृत्यु ही के समान है। इस प्रकार बोध करके अर्जुन को ज्येष्ठ भ्रातृ वध के पाप से बचाया। भगवान श्रीकृष्ण ने इस समय जो सत्यामृत विवेक अर्जुन को बताया है, उसी को आगे चलकर शाँति पर्व के सत्यानृत नामक अध्याय में भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा है (शा. 109) सत्य की साधना के लिए व्यवहार करते समय इस उपदेश को लोगों को सतत् अपने सामने रखना चाहिए।


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