स्वस्थ रहने की दिनचर्या

January 1949

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“भाव प्रकाश” के अनुसार हम यहाँ स्वास्थ्य सुख एवं दीर्घायु की कामना रखने वाले पाठकों के लिए प्रकृति की दृष्टि से दिनचर्या दे रहे हैं। इसे ध्यानपूर्वक अनुसरण करना चाहिए।

निरोगी कौन है?

सुथुत कहते हैं- जिस मनुष्य के बात, पित्त आदि दोष, अग्नि, धातु और मल समान स्थित हों, जो व्यक्ति अपने शरीर के अनुसार समान रूप से क्रियाएँ करता हो और जिसके देह और मन प्रसन्न हों-वह मनुष्य स्वस्थ (निरोगी) कहलाता है।

प्रातःकाल क्या करें?

स्वस्थ मनुष्य आयु की रक्षा के लिए चार घड़ी तड़के अर्थात् ब्रह्ममुहूर्त में उठे और उस समय दुःख की शाँति के लिए ईश्वर का स्मरण करें। फिर दही, घी, दर्पण, सफेद सरसों, बैल गोरोचन और फूल माला-इनका दर्शन और स्पर्श करें-ये शुभकारक हैं।

यदि और अधिक जीवन की अभिलाषा हो तो घी में अपना मुख नित्य देखें। प्रातःकाल मल, मूत्र, आदि का विसर्जन करने से दीर्घायु होती है, क्योंकि इनसे पेट का गुड़गुड़ाहट, अफरा और भारीपन आदि सब दूर हो जाते हैं। मल को रोकने से पेट का फूलना, शूल, गुदा में कतरन के सदृश पीड़ा होती है तथा मल का अवरोध होता है। डकार बहुत आने लगते हैं। अथवा मुख में से बदबू निकलने लगती है। अधोवायु को रोकने से पेट में वायु सम्बन्धी अन्य रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं। मूत्र रोकने से मूत्राशय में तथा लिंग में शूल होता है। मूत्र, कृच्छ, मस्तक में दर्द, शरीर की नम्रता, और तंक्षण का सम्पूर्ण संधियों में खींचने सदृश पीड़ा होती है। मलमूत्र का वेग हो तो तुरन्त मलमूत्र का त्याग करना चाहिए। इससे पहले अन्य कार्य न करें।

दाँतौन कैसी हो?

बारह अंगुल लम्बी कनिष्ठिका अंगुली के अग्रभाग की तरह मोटी, सीधी गाँठ और छिद्र रहित ऐसी दातौन करें। दाँतौन की नयी कुँची से एक-एक दाँत को घिसें। शहद, सोंठ, मिर्च, और पीपल इनके मिल हुए चूर्ण से अथवा तेल की भावना दिये हुए सैंधे नोन के चूर्ण से, वा तेल बल्कल नामक लकड़ी के चूर्ण से दाँतों को नित्य शुद्ध करें। मीठी दाँतौन में महुआ, तीक्ष्ण में करंज, कड़वी में नीम और कंसैली में खैर श्रेष्ठ हैं। समय, दोष और प्रकृति को विचार करके योग्य रस, और योग्य शक्ति वाले वृक्ष की लकड़ी की दाँतौन करें और दंत मंजन भी योग्य ही प्रयोग में लावें। इस प्रकार दाँतौन करने से मुख की विरसता (वेजायकेपना) दाँत जीभ तथा मुख के रोग नहीं होते। रुचि, स्वच्छता, और शरीर में हल्कापन होता है।

जीभी का प्रयोग -

जीभ साफ करने की जीभी सोने की, चाँदी की या ताँबे की बनवायें और यदि यह न मिले, तो कोमल, और स्निग्ध जीभी से जीभ के मैल को दूर करें। जीभी करने से जीभ का मैल, विरसता, दुर्गन्धता और जड़ता दूर होती है।

शीतल जल से बराबर कुल्ला करें, इससे कफ तृषा और मल दूर हो जाता है तथा भीतर से मुख स्वच्छ होता है। थोड़े गर्म जल से कुल्ला करने से कफ, अरुचि, मैल तथा दाँतों की जड़ता दूर होती है और मुख हल्का हो जाता है। शीतल जल से मुख धोने से रक्त पित्त और मुख के मुँहासे, झाँई, इत्यादि नष्ट हो जाते हैं, थोड़े गर्म जल से मुँह धोने से कफ तथा वात दूर होती है, स्निग्धता आती है और दुख का शोक नष्ट होता है।

तेल का उपयोग -

नित्य प्रति नाक में सरसों आदि का तेल डालने का अभ्यास करें। कफ बढ़ा हो तो प्रातःकाल, पित्त बढ़ा हो तो दोपहर में और वायु बढ़ी हुई हो तो सायंकाल में नाक में तेल डालने से मुख में सुगन्ध आती है, शब्द में स्निग्धता होती है, इन्द्रियों बितल रहती हैं और शरीर की सिकुड़ने श्वेत बाल, झाँई उस मनुष्य को नहीं होते।

अंजन लगाने के लाभ -

सफेद सुरमा नेत्रों को सदा हितकारी है। इसलिए इसको नेत्रों में सदा लगाना चाहिए। इससे नेत्र मनोहर और सूक्ष्म वस्तु को देखने वाले हो जाते हैं। काला सुरमा भी अच्छा होता है, इसके लगाने से नेत्रों की खुजली, मैल, तथा दाद नष्ट होता है और नेत्रों का पानी बहना बन्द हो जाता है। रात में जागा हुआ, थका हुआ, उल्टी करने वाला, जो भोजन कर चुका हो, ज्वर रोगी और जिसने सिर से स्नान किया हो-उनको सुरमा या अंजन नहीं लगाना चाहिए।

दाढ़ी बनवाने और क्षौर कर्म से लाभ -

पाँच-2 दिन में न रख, दाढ़ी, केश और रोम कटवावें। हजामत से शरीर की शोभा होती है, पुष्टता बढ़ती है, पवित्रता होती है, धन की प्राप्ति होती है, आयु बढ़ती है और शरीर में कान्ति बढ़ती है। नाक के बाल कभी न उखड़वावें, क्योंकि इससे नेत्र निर्बल हो जाते हैं। कंघे से बालों को काढ़ कर पुष्ट करें, इससे केश स्वच्छ होते हैं और उनकी धूल, कृमि तथा मैल दूर होता है।

शीशे में मुख देखने से लाभ -

शीशे में मुख देखना मंगल रूप है, कान्तिकारक, पुष्टिकर्त्ता, बल तथा आयु को बढ़ाने वाला और पाप तथा दरिद्रता का नाश करता है।

व्यायाम कीजिए -

कसरत करने से शरीर में हल्कापन और काम करने की सामर्थ्य आती है, शरीर सुन्दर तथा पुष्ट होता है, कफादि रोगों का क्षय होता है और अग्नि की वृद्धि होती है। जिसका शरीर व्यायाम से पुष्ट हो गया हो, उसको कभी कोई रोग नहीं होता, विरुद्ध अन्न भी पच जाता है, शिथिलता नहीं आती। अकस्मात् वृद्धावस्था नहीं आती।

व्यायाम बसन्त ऋतु में तथा शीतकाल में विशेष हितकारी है। खाँसी, श्वास, क्षय, रक्त तथा पित्त रोगी, दुर्बल, क्षती भोजन करने के पश्चात् कभी कसरत नहीं करनी चाहिए। बहुत कसरत करने से खाँसी, श्वास, ज्वर, वमन, श्रम, रक्तपित्तादि उत्पन्न होते हैं-इसलिए साधारण ही व्यायाम करना चाहिए।

मालिश के लाभ -

सम्पूर्ण अंगों में नित्य तेल का लगाना पुष्ट कारक है, किन्तु विशेष करके सिर में, बालों में और पाँवों में तेल की मालिश करें। सरसों का तेल, अग्नि के संयोग से अगरु आदि सुगंधित पदार्थों का निकाला हुआ तेल, चंपा, चमेली, बेल, जुही, मोतिया आदि पुष्पों से सुवाँछित किया हुआ तेल सर्वथा हितकारी है।

सिर में मला हुआ तेल सम्पूर्ण इन्द्रियों को तृप्त करता है, दृष्टि को बल देता है और सिर तथा त्वचा के रोगों को दूर करता है। सिर में कोमलता आती है, आयु की वृद्धि होती है, देह पुष्ट होती है। केशों में तेल लगाने से बाल बढ़ते हैं, लम्बे, नर्म, दृढ़ और काले हो जाते हैं तथा सिर में भरे रहते हैं।

नित्य कान में तेल डालने से कान में रोग तथा मैल नहीं होते तथा गर्दन और हनुग्रहरोग, ऊँचा सुनना तथा बहरापन भी नहीं होता। कानों में रस आदि पदार्थ डालने हों तो भोजन के पूर्व डालें और तेल आदि सूर्य अस्त होने पर डालें। पाँवों में तेल मलना पाँवों की स्थिरता करता है, निद्रा और दृष्टि को प्रसन्न रखता है। कसरत का अभ्यास करने से अमयुक्त और पाँवों में तेल की मालिश करने वाले मनुष्यों के पास रोग नहीं आते, जैसे गरुड़ के समीप सर्प नहीं आते।

स्नान के समय तेल का प्रयोग -

स्नान के समय तेल का उपयोग किया हुआ रोमकूप, शिराओं के समूह और धमनियों के द्वारा सम्पूर्ण शरीर को तृप्त करता है और अत्यन्त बलदायक है। जिस प्रकार वृक्ष की जड़ को जल से सींचने से पत्रादिक की वृद्धि होती है, उसी प्रकार मनुष्यों के शरीर को तेल के द्वारा मलने से धातुओं की वृद्धि होती है। नवीन ज्वर वाला, अजीर्ण युक्त, जिसने जुलाब लिया हो, वमन करने वाला-इन्हें तेल की मालिश वर्जित है।

उबटन से लाभ -

मैल को दूर करने के लिए शरीर में उबटन मलने से कफ और मेदा नष्ट होता है, वीर्य की वृद्धि तथा बल की प्राप्ति होती है। रुधिर यथावत् चलता है और त्वचा स्वच्छ तथा कोमल होती है। मुख पर उबटन मलने से नेत्र दृढ़ होते हैं, कपोल पुष्ट होते हैं, मुँहासे और झाँई नहीं होती, हुई हों तो नष्ट हो जाती हैं और मुख कमल के समान शोभायमान हो जाता है।

स्नान एक आनन्ददायक अनुभव -

स्नान करना अग्नि को प्रदीप्त करने वाला, शक्ति, आयु और ओज को बढ़ाने वाला, उत्साह तथा बल को देने वाला और खुजली, मैल परिथम पसीना, आलस्य, तृषा, दाह तथा पाप इनको दूर करता है। शीतल जल आदि से सींचने से शरीर के बाहर की गर्मी मीडित होकर भीतर आती है। इससे स्नान करते ही भूख लगती है।

शीतल स्नान करने से रक्त पित्त दूर होता है। उष्ण जल से स्नान करने से बल बढ़ता है, वात पित्त, कफ का नाश होता है। सिर से अत्यन्त गर्म जल से स्नान करना सदा आँखों के लिए बुरा है। जो व्यक्ति शरीर में आँवले मलकर स्नान करते हैं, वे सौ वर्ष पर्यन्त जीते हैं। ज्वर, अतिसार, नेत्र, कान के दर्द वाला, वात रोगी, जिसका पेट में अफारा हो, पीनस रोग युक्त, अजीर्ण वाला-इन सबको स्नान नहीं करना चाहिए। भोजन के पश्चात् भी स्नान करना ठीक नहीं है। स्नान करने के बाद वस्त्र से अंग को खूब रगड़कर पोंछना चाहिए। इससे काँति बढ़ती है, खुजली और त्वचा के दोष दूर होते हैं।

भिन्न-2 वस्त्र तथा उनके गुण−दोष -

रेशमी कपड़े खास तौर पर पीताम्बर और टसर, ऊनी वस्त्र तथा लाल रंग के कपड़े वात, पित्त और कफ को दूर करने वाले हैं- इसलिए जाड़ों में ये वस्त्र पहनिये। जोगिया रंग के कपड़ों से चित्त पवित्र और शीतल होता है, पित्त दूर होता है। इसलिए गर्मियों में उन्हें धारण करना चाहिए। सफेद कपड़े शुभदायक, शीत और धूप निवारक हैं। जो गर्म हैं न शीतल हैं- ऐसे वस्त्र वर्षाकाल में धारण करें। निर्मल और नवीन वस्त्र कीर्ति देने वाले हैं, काम को प्रदीप्त करते हैं, आयु को बढ़ाते हैं, शोभायुक्त करते हैं, आनन्द आता है, त्वचा को हितकारी हैं, वशीकरण तथा रुचि उत्पन्न करने वाले हैं। श्रेष्ठ पुरुष कभी मैले वस्त्र न पहनें, क्योंकि मैले वस्त्रों से शरीर में खुजली होती है, जूऐं इत्यादि जीव उत्पन्न हो जाते हैं और ग्लानि, अशोभा तथा दरिद्रता प्राप्त होती है।

भोजन के सम्बन्ध में शास्त्रीय विधि -

भोजन का समय हो तो माँगलिक पदार्थों का दर्शन करें। संसार में ब्राह्मण, गौ, अग्नि, पुष्पों की माला, घृत, सूर्य, जल और राजा ये आठ माँगलिक हैं। इनका दर्शन करने से नित्य आयु और धर्म की वृद्धि होती है। भोजन से पहले अथवा बाद में खड़ाऊँ धारण करे क्योंकि इनसे पाँवों के रोग दूर होते हैं, शक्ति प्राप्त होती है, नेत्रों के लिए हितकारी हैं और आयु को बढ़ाने वाले हैं।

जो मनुष्य भूख लगने पर नहीं खाते, उनके शरीर की जठराग्नि मंद हो जाती है। शरीर की अग्नि खाये हुए आहार को पचाती है। आहार न मिलने से घात, पित्त, तथा कफ को पकाता है। दोषों का क्षय होने पर धातुओं को पचाती है और धातुओं का क्षय होने पर प्राणों को पचाती है अर्थात् प्राणों का नाश करती है।

आहार से तत्काल देह का पोषण होता है, बल की वृद्धि तथा स्मृति, आयु, शक्ति, वर्ण, उत्साह, धैर्य तथा शोभा की वृद्धि होती है। संध्या और प्रातःकाल-इन दोनों समय भोजन करने की शास्त्र में आज्ञा है। भूख लगे तभी भोजन का समय है ऐसा जानना चाहिए।

भोजन करने से पहले नमक और अदरक खाना हितकारी है। यह अग्नि को दीप्त कर रुचिकारक और जीभ व कंठ को शुद्ध करने वाला है। सेंधा नमक स्वादिष्ट, पाचक, हल्का, स्निग्ध, रुचिकारक, वीर्यवर्द्धक, सूक्ष्म, नेत्रों के लिए हितकारी और त्रिदोष नाशक है।

एकाग्रचित्त होकर पहले मधुर रस, बीच में खट्टा तथा खारीरस और अन्त में तीक्ष्ण, कड़ुवा तथा कसैला रस खाना चाहिए। बुद्धिमान व्यक्ति पहले अनार खायें परन्तु उसमें केला और ककड़ी का त्याग करें। कँवल की ताल, भसीड़ा, शालूक, कन्द और ईख आदि को पहले ही खायें, भोजन करने के बाद पिष्टमय पदार्थ, चावल, चिल्ले आदि न खायें, आवश्यकता से अधिक भी न खा जायें।

पहले भी घी से पूर्ण कठिन पदार्थ खायें। फिर कोमल पदार्थ खायें अन्त में द्रव्य रूप पतले पदार्थ खायें।

भोजन में जल कितना पिएँ?

पेट के दो भागों को अन्न से भरें, तीसरा भाग जल से और चौथा भाग वायु के चलने फिरने के लिए खाली रहने देवें। अन्न के रस से प्रथम जीभ तृप्त होने पर दूसरे पदार्थ के स्वाद को नहीं जानती। इसलिए बीच-2 में थोड़ा सा जल पीकर जीभ को साफ कर लें। स्मरण रक्खें, अधिक जल पीने से अन्न जल्दी नहीं पचता और बिल्कुल जल न पीने से भी यही दोष होता है।

अतः बारम्बार थोड़ा-2 जल पीना चाहिए। भोजन करने से पहले जल पियें तो अग्नि मंद हो जाती है, मध्य में पीने से अग्नि दीप्त होती है और अन्त में पानी पीने से शरीर मोटा होता है।

भोजन के पश्चात् दूध क्यों पियें?

शिष्ट पुरुष भोजन के अन्त में दूध पीते हैं। दूध स्वादु, रसाँवित, स्निग्ध, सामर्थ्यवान्, धातुवर्धक, वायु तथा पित्तहारी, वीर्य-वर्द्धक, कफकारी भारी और शीतल है। हम नित्य प्रति दाहकारक जो-जो अन्न खाते हैं, उनकी दाह शान्त करने के लिए दूध पीना जरूरी है। ब्रह्म-पुराण में कहा गया है-”जिसके अन्त में दूध पीने को मिले, ऐसा भोजन करें और जिसके अन्त में दही खाया जाय, ऐसा भोजन न करें। दूध आदि मधुर भोजन खट्टे, खारी और चरपरे भोजन से उत्पन्न हुए पित्त की वृद्धि को दूर करता है। भोजन के बाद नमकीन पदार्थ खाकर कुल्ला करें, दाँतों से भोजन के टुकड़े निकाल डालो। आचमन के पश्चात् दोनों भीगे हाथों से आँखों का स्पर्श करें। भोजन के पश्चात् नित्य सुख प्राप्त होने के लिए अगस्त्य आदि का स्मरण करें। भोजन के बाद सोना न चाहिए।

भोजन के पश्चात् का कार्यक्रम -

भोजन करने के बाद धीरे-2 सौ कदम चलना चाहिए, इससे भोजन किया हुआ अन्न उदर में शिथिल होता है और गर्दन, घुटने तथा कमर को सुख होता है। भोजन करके बैठ जाने से शरीर में आलस्य और तन्द्रा उत्पन्न होती है, थोड़ी देर पश्चात् विश्राम करने से शरीर पुष्ट होता है, आयु बढ़ती है। खाट त्रिदोष नाशक है, पृथ्वी पर सोना पुष्टिकारक है। भोजन के पश्चात् भी मन को प्रिय लगें ऐसे शब्द गाना बजाना, सुन्दर वस्तु को छूना, रूप, रस, गंध का सेवन करें क्योंकि इनका सेवन करने से अन्न भली भाँति ठहर जाता है।

पगड़ी और जूते से लाभ -

पगड़ी धारण करने से क्रान्ति बढ़ती है, केशों को हितकारी तथा धूल, वात, तथा कफ को दूर करने वाला है। पगड़ी हल्की उत्तम है। पाँवों में जूतियाँ पहनना नेत्रों को सुखकारक, आयु बढ़ाने वाला, पाँवों के रोगों का नाशक, उत्साह और शक्ति देने वाला है।

धूप सेवन से लाभ -

सूर्य की किरणों का सेवन करने से पसीना मूर्च्छा, रक्तपित्त, तृषा, ग्लानि, परिश्रम तथा दाह और विवर्णता की उत्पत्ति होती है।

दिन कैसे व्यतीत करें?

यह विषय अत्यन्त महत्वपूर्ण है। दिन में श्रेष्ठ मनुष्यों के साथ मित्रता करनी चाहिए, नीच का संग छोड़ देना चाहिए। देव, ब्राह्मण, वृद्ध, वैद्य राजा तथा अतिथि की सेवा करनी चाहिए। याचक को निराश खाली न जाने दें। गुरु लोगों के पास सदा नम्रता पूर्वक बैठें। अपकार करने वाले के साथ भी उपकार करने में तत्पर रहे।

मनुष्यों के अभिप्राय को जानकर जो मनुष्य जिस प्रकार से प्रसन्न हो, उसी प्रकार बर्ताव करे क्योंकि अन्य मनुष्यों को प्रसन्न रखना ही चतुरता है।

जिस प्रकार सहाय बिना मनुष्य सुखी नहीं होता, उसी प्रकार सबके ऊपर विश्वास करने वाला अथवा सबके ऊपर सन्देह करने वाला भी मनुष्य सुखी नहीं हो सकता।

कभी उद्यम से खाली नहीं बैठना चाहिए। किसी के सफलीभूत उद्यम पर ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। जो पुरुष ऐश्वर्यवान् के ऐश्वर्य को देख कर दुःख मानते हैं, वे सदैव दुःखी रहते हैं। विद्वानों को विचारना चाहिए कि अमुक पुरुष को किस प्रकार धन मिला उसी विद्या से उसी उपाय से हम भी धन उपार्जन करके संसार में अपने यश का प्रकाश करें।

किसी समय भी किसी के जा मिन न बने, किसी के वृथा साक्षी न हों, किसी की धरोहर न रक्खें और जहाँ जुआ होता हो, उसको दूर से ही त्याग दें।

इस प्रकार सदा सदाचार में तत्पर रहकर दिन व्यतीत करें और रात्रि को रात्रि के समयानुकूल कार्य करें। उक्त नियमों के अनुसार कार्य करने वाले को आयु आरोग्यता, प्रीति, धर्म और यश की प्राप्ति होती है।

संध्या में यह कार्य न करें?

विद्वान लोगों को संध्याकाल में आहार, मैथुन, निद्रा, अध्ययन और मार्ग चलना-ये पाँच कार्य नहीं करने चाहिये। सायंकाल में भोजन करने से व्याधि उत्पन्न होती है, मैथुन करने से गर्भ में विकार आता है पढ़ने से आयु का नाश होता है और मार्ग चलने से भय उत्पन्न होता है।

रात्रि में समय पर सोना -

रात्रि में समय पर सोने से धातुओं में समता आती है, आलस्य दूर होता है और पुष्टि की प्राप्ति होती है, रंग निखर आता है, उत्साह बढ़ता है, जठराग्नि प्रदीप्त होती है। जो मनुष्य शयन के समय बिनौरे के पत्तों का चूर्ण शहद में मिला कर चाटे तो वह तन्द्रा उत्पन्न करने वाला, वायु के वेग के निरोध से सुख पूर्वक शयन कर सकता है।

रात्रि के अन्त में पानी का नियम -

जो मनुष्य सूर्योदय के समय आठ अंगुलि बासी पानी पीने का नियम करता है वह रोग और जरा से छूट कर सौ वर्ष जीवित रहता है। जब रात्रि का चौथा प्रहर आरम्भ हो तो इस जल को पीने का समय जानना चाहिए। इस अभ्यास से बवासीर, सूजन, संग्रहणी, ज्वर, जठर, जरा, कोढ़, पेट के विकार, मूत्रधात, रक्तपित्त, कर्ण रोग, गल रोग, कमर का दर्द, नेत्र रोग नष्ट हो जाते हैं। प्रातःकाल उठकर नित्य नाक से पानी पीने से बुद्धि पूर्ण होती है, नेत्रों की दृष्टि गरुड़ के समान होती है। सम्पूर्ण रोग नष्ट होते हैं।


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