जल चिकित्सा

January 1949

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रोगनाशक जल-तत्व -

वेदों में जल की रोगनाशक शक्तियों का अत्यन्त विशद वर्णन है।

आपो इद्धा उ भेषजोरापो अभीव चातनीः।

आपः सर्वस्य भषजोस्तान्तु कृण्वन्तु भेषजम्॥

अर्थात् “जल ही परमौषधि है, जल रोगों का दुश्मन है, यह सभी रोगों का नाश करता है-इसलिए यह तुम्हारे भी सब रोग दूर करे।”

अथर्व वेद में लिखा है-

“आप इद्धा उ भेषजोरापो अभीव चातनीं।

आपः सर्वस्य भेषजो स्तास्ते मुँचन्तु क्षेत्रियात्॥

अर्थात् “जल ही दवा है, जल रोग दूर करता है, जल सब रोगों का संहार करता है। इसलिए यह जल तुम्हें भी कठिन रोगों के पंजे से छुड़ावें।”

भगवान ने आदेश किया है-”जल से सिंचन करो, जल सर्व-प्रधान औषधि है। जल के सेवन से जीवन सुखमय बनता है और शरीर की अग्नि भी आरोग्य वर्द्धक होती है।”

-ऋ. मं0 6 अ. 56 मं. 2

वेदों में एक स्थान पर प्रार्थना की गई है-उसका अभिप्राय इस प्रकार है-

“जल हमको सुख दे, सुखोपभोग के लिए हमें पुष्ट करे, बड़ा और दृढ़ करे। जिस प्रकार माताएँ अपने दुधमुंहे बच्चों को दूध पिलाती हैं, हे जल! उसी प्रकार तुम हमें अपना मंगलकारी रस पान कराओ। तुम हमारे मलों का नाश करो और योग्य संतान प्राप्त करने में सहायक हो। हे परमेश्वर! हम तुमसे अन्नादि पदार्थों के स्वामी मनुष्य मात्र का रक्षक तथा रोग मात्र की औषधि जल माँगते हैं।”

“जल में अमृत है, जल में औषधियाँ हैं। हे ईश्वर! दिव्य गुणों वाला जल हमारे लिए सुखकारी हो, अभीष्ट पदार्थों की प्राप्ति करावे, हमारे पीने के लिए हो, सम्पूर्ण रोगों का नाश करे तथा रोगों से उत्पन्न होने वाले भय को न पैदा होने दे और हमारे सामने बहे।”

हे परमात्मा! मुझ में जो पाप (भीतर और बाहर) हैं, मैंने जो द्रोह, विश्वासघात किया है या मैंने जो अपशब्द कहे हैं या मैं जो झूठ बोलता हूँ, उन सबको जल बहा ले जाय।”

जल के अमृतोपम गुण -

जल में जो गुण होते हैं, उन्हें भली-भाँति स्मरण रखना चाहिए। शीतलता, तरलता, हल्कापन एवं स्वच्छता इसके प्राकृतिक गुण हैं। भ्रम, क्रान्ति, मूर्च्छा, पिपासा, तन्द्रा, चमन, निद्रा को दूर करना, शरीर को बल देना, उसे तृप्त करना, हृदय को प्रफुल्लित करना, शरीर के दोषों को दूर करना, छः प्रकार के रसों का प्रधान कारण बनना तथा प्राणियों के लिए अमृत तुल्य सिद्ध होना, कब्ज इत्यादि आन्तरिक मल पदार्थों को निकाल देना, स्नान के द्वारा शरीर को स्वच्छ करना, शरीर के विजातीय तत्वों को निकाल फेंकना, आमाशय, गुर्दों, त्वचा को क्रियाशील बनाना, शरीर में खाद्य पदार्थ का काम देना-जल के कुछ गुण हैं।

मनुष्य के शरीर में 66 प्रतिशत जल-तत्व ही है। खाद्य पदार्थों के पश्चात् हमारा शरीर जल पर ही निर्भर रहता है। केवल जल पीकर हम एक मास तक जीवित रह सकते हैं। हमारे ही शरीरों को नहीं, वनस्पतियों का तो यह जीवन दाता है। जल में रहने वाले जीवों का तो यही जीवनाधार है। पृथ्वी जल-तत्व से उत्पन्न हुई है।

गीता में भगवान ने निर्देश किया है- “रसोऽहमासु कौन्तेय” (7/8 हे अर्जुन! मैं जल में रस रूप से रहता हूँ अर्थात् जल में जीवन चलाने वाला जो रस (प्राण) है, वह मैं हूँ।”

जलोपचार की प्रमुख विधियाँ -

जल में कई और गुण हैं जैसे अनेकरूपता, गर्मी सोख लेने की शक्ति, चीजों को अपने में मिला लेने और रूप परिवर्तन की शक्ति। शरीर के विकारों को धो डालने के लिए तरल रूप में इसका उपयोग किया जाता है। शरीर की गर्मी निकालने एवं गर्मी पहुँचाने में जल का प्रमुख हाथ हैं। इस धोने की शक्ति के कारण अन्य विजातीय पदार्थों के साथ जल मानव शरीर में से यूरिक एसिड और आकजेलिक एसिड जैसे हानिकारक पदार्थों को बाहर निकाल देता है।

दैनिक जीवन में जल का उपयोग -

वायु और धूप की भाँति जल भी हमारे लिए प्रधान तत्व हैं। यह ऑक्सीजन की 75 प्रतिशत खपत बढ़ा देता है और 85 प्रतिशत, हाइड्रोजन की मात्रा को शरीर से निकाल देता है। प्रत्येक रोग में जल का उपयोग अधिक से अधिक मात्रा में होना चाहिए। कम जल पीने वाले प्रायः आमाशय और अंतड़ियों को सुखा डालते हैं, कब्ज हो जाता है, पेट में दर्द बना रहता है। पानी का ठीक उपयोग अनेक रोगों को उत्पन्न नहीं होने देता, ठण्डा पानी शरीर के ताप को कम कर देता है, रक्त चाप घटाता तथा त्वचा के रंध्रों को क्रियाशील बनाता है। स्नायु तथा नाड़ियों को हल्के तौर पर प्रभावित करता है। पोषण शक्ति को प्रभावित करता है। कम पानी पीने से हाजमा बिगड़ता है। अतः हमें चाहिए कि जल के प्रयोग में आलस्य न करें।

रोग निवारण में जल का प्रयोग -

प्रधान विधियाँ तीन हैं- (1) पानी पीकर रोग-निवारण (2) स्नान द्वारा शरीर शुद्धि (3) गीली पानी की पट्टी के प्रयोग।

सर्वप्रथम हम पानी पीने के नियम को लेंगे। पानी कब्ज नाश की सरल औषधि है। कम पानी पीने से पेट का दूषित पदार्थ जम कर सड़ता है, अंतड़ियों में से गुजरते हुए तकलीफ होती है। उसे निकालने में पानी ही प्रधान कार्य करता है।

प्रातःकाल उठते ही थोड़ा सा जल पी लेने से सारे दिन शरीर में तरावट रहती है। उठते ही उषापान कीजिए, फिर थोड़ा सा टहलिये और शौचादि से निवृत्त कीजिए। कब्ज जड़ से चला जायेगा। अपच में भोजन के डेढ़ घंटे पश्चात् गर्म पानी पीने से अग्नि प्रदीप्त होती है और उदर शूल दूर हो जाता है। लोग सर्दी में गर्म चाय पीते हैं। वास्तव में उन्हें यदि कुछ लाभ होता है तो वह गर्म जल के ही कारण। शरीर की गंदगी और विष को निकालने में गर्म पानी का भी उपयोग होता है। पेशाब आने से अवयव खुल जाते हैं और तरावट रहती है। गले की जलन तथा अति भोजन के कारण पेट में जो जलन हो उसे दूर करने के लिए कुछ-कुछ समय पश्चात् एक-एक चम्मच ठंडा जल पीना चाहिए। प्रातःकाल एक गिलास जल में कुछ नींबू की बूँदें डालकर पीने से पेट ठीक रहता है। चेहरे का रंग लाल रखने के लिए, स्फूर्तिदायक एवं तरोताजा दीखने के लिए कम से कम तीन सेर जल दिन में अवश्य पीना चाहिये। रुधिर की तरलता जल से ही कायम रह सकती है।

प्रमेह, वीर्यपात, मूत्र नली की जलन, सफाई इत्यादि यथेष्ट जल के प्रयोग से दूर हो जाते हैं। अत्यधिक परिश्रम के करण गहरे लाल रंग का जो बदबूदार पेशाब उतरता है, वह जल की कमी का द्योतक है। जल का अधिकाँश भाग तो पसीने आदि के रूप में बाहर हो जाता है। बचा हुआ थोड़ा सा भाग ही गुर्दों को धो पाता है। अतः यदि परिश्रम करते समय थोड़ा जल घंटे डेढ़ घंटे के बाद पीने का क्रम रखें तो तरोताजगी बनी रह सकती है। बहुत से व्यक्तियों को अजीर्ण अथवा नजला प्रायः आवश्यकता से कम मात्रा में जल पीने के कारण होता है।

अमेरिका के सुप्रसिद्ध लेखक मैडफैडन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि यदि प्यास लगी हो, तो गुनगुना अर्थात् थोड़ा गर्म पानी पीना उत्तम है। यदि संभव हो और आदत पड़ सके तो जल भोजन के आधे घंटे पश्चात् ही पीवें। यदि पाचन शक्ति क्षीण हो या अग्निमाँद्य हो, तो उस समय भी गर्म जल का प्रयोग करना उत्तम रहेगा। इनसे पाचन शक्ति प्रदीप्त होगी।

फादर नीय के जल विषयक विचार -

प्राकृतिक चिकित्सा में फादर नीय के विचार बड़े बहुमूल्य हैं उन्होंने जल चिकित्सा द्वारा स्वयं जनजीवन प्राप्त किया और दूसरों को मरने से बचाया। फादर नीय जल के अपने प्रत्येक प्रयोग के साथ शरीर के अंग-प्रत्यंग और त्वचा, को कठोर बनाने के लिए कुछ बहुत सीधे निरापद उपाय बताते थे। उनमें कुछ उपाय ये हैं। पाठकों को चाहिए कि दैनिक जीवन में इनका उपयोग करने लगें-

(1) नंगे पाव टहलना- इससे टाँगे और पाँव की उंगलियां कठोर तथा सहनशील बनती हैं।

(2) भीगी घास पर नंगे पाँव चलना- मौली घास के स्पर्श से आप प्राण शक्ति खींच सकेंगे। ओंस की भीगी घास श्रेष्ठतम है।

(3) गीले पत्थरों पर टहलना- जल तथा पत्थर के स्पर्श से शरीर कठोर तथा सहनशील बनेगा। पैरों में रक्त की गति बढ़ जायेगी, ताजी हवा, प्रकाश और जल से नई जान आयेगी।

(4) तुरन्त की गिरी हुई बर्फ पर टहलना तेजी से बर्फ पर चलने से सारा रक्त पाँवों में खिंच आयेगा। पैर में वेबाई फटने और दाँत में दर्द होने पर यह अच्छा इलाज है।

(5) ठंडे पानी में टहलना- थोड़े-2 पानी में टहलना शरीर को दृढ़ और श्रेष्ठ बनाता है। मसाने और गुर्दे पर इसका विशेष प्रभाव होता है। रुके हुए पेशाब को लाने में यह क्रिया विशेष लाभदायक है। पाचन शक्ति ठीक होती है, अधोवायु शान्त हो जाती है, छाती का भारीपन ठीक होता है और श्वास की गति भी ठीक हो जाती है और निर्बल रोगियों को पहले साधारण ठंडे पानी में यह क्रिया करनी चाहिए। घुटनों तक पाँवों को जल में डाले रहना शरीर को दृढ़ करने की एक उत्तम विधि है। इससे रक्त धमनियों में रक्त भर जाता है और व्यर्थ जमा हुआ रक्त ऊर्ध्व भाग की ओर खिंचता है जाड़ों के दिनों में इसे कम कर देना चाहिए।

(6) हाथों पाँवों को ठंडे जल में धोना- लाल बुखार, मोतीझरा और हाफा डाफा सरीखे रोगों के लिए लाभप्रद है।

(7) सम्पूर्ण शरीर पर या केवल पैरों पर पानी डालना- उपरोक्त 7 क्रियाएँ प्रत्येक पाठक दैनिक जीवन में अधिक से अधिक अपनाकर रोग मुक्त और शरीर को कठोर एवं सहनशील बना सकता है।

जल के विविध स्नान -

लुईकूने साहब ने जल को इतना अधिक महत्व केवल स्नानों के कारण ही प्रदान किया है। लूईकूने की सब प्रसिद्ध सम्पूर्ण चिकित्सा प्रणाली केवल शास्त्रीय स्नानों पर ही अवलंबित है।

आपके अनुसार रोगों का मूल सिद्धाँत एक रूप है। लुईकूने अनुसार सब रोग एक ही मूल जड़ से उत्पन्न होकर नाना रूपों में प्रस्फुटित होते हैं। शरीर के विभिन्न अवयवों में पेट मुख्य है। अतः सबसे अधिक अत्याचार उसी बेचारे पर होता है। आवश्यकता से अधिक भोजन, अप्राकृतिक भोजन ठूँस-2 कर खाने से, उसमें विजातीय तत्व एकत्रित होने लगता है।

इन विजातीय तत्वों को बाहर निकालने के लिए लूईकूने साहब ने दो स्नानों का आविष्कार किया है।

(1) उदर स्नान या कटि स्नान।

(2) मेहन-स्नान।

इन स्नानों से अस्वाभाविक गर्मी दूर होती है बहुधा ये चिरसंचित विजातीय द्रव्य देर तक जमे रहते हैं। वस्तुतः शीघ्र आरोग्य के लिए उस मल को स्नानों द्वारा ढीला करते हैं। ढीला करने के लिए लूईकूने साहब ने वाष्प स्नान तथा सूर्य-स्नान की भी व्यवस्था की है।

कटि स्नान- इस स्नान से सैकड़ों रोगियों को लाभ हुआ है। जिन रोगियों को रक्तचाप बढ़ा हुआ हो, फालिज या ब्रोंकाइटिस, दमा प्लूरेसी, निमोनिया, प्रदाह अण्डकोष का बढ़ा हुआ होना, जांघों की रोगी की पीड़ा, सूजाक या गर्मी हो, पीलिया अथवा पाण्डु रोग हो, स्त्रियों को मासिक धर्म सम्बन्धी गड़बड़ें हों, बाँझपन हो उनके लिए कटि स्नान बड़ा लाभदायक है।

कटि स्नान की विधि यह है। एक टब या नाँद में पानी इस प्रकार भरिये कि जब रोगी उसमें लेटे तो दोनों पाँव बाहर रख सके और जल उसकी नाभि और जांघों तक पहुँचे। जांघों का ऊपरी भाग और नाभि तक का सब हिस्सा जल में डूबा रहे। पेडू को जल से भीगे वस्त्र से एक ओर से दूसरी ओर तक रगड़ते रहें। यह अत्यन्त आवश्यक है कि टाँगों पाँव और शरीर का ऊपरी भाग पेडू के साथ ही ठंडा न किया जाय।

रक्तचाप के लिए जल की गर्मी 50 डिग्री से 85 तक और दबे हुए जुकाम की जीर्णावस्था में जल का तापक्रम 88 डिग्री से 100 डिग्री तक रखना चाहिए, पुरुष की जननेंद्रिय सम्बन्धी रोगों या स्वप्नदोष में जल 88 से 94 डिग्री तक जल रखना चाहिए। पाखाना या मुँह के रास्ते रक्त गिरने की दशा में 65 से 75 डिग्री तक इस दिन का कटिस्नान करना चाहिए, पुराने सूजाक और गर्मी (आतशक) में या तत्सम्बन्धी अन्य बीमारियों में 88 से 94 डिग्री तक गर्मी रखनी चाहिये। डॉ. दिलकश इत्यादि प्राकृतिक चिकित्सकों ने कटि स्नानों के नामक्रमों में कुछ परिवर्तन किये हैं। उनके अनुसार “कटि स्नान लेते समय वे पाँवों को गर्म पानी (तापमान 102 से 104 तक) में रखने की सलाह देते हैं। पेट को मलने के साथ-2 कमर के उस भाग को भी मलवाते हैं। इस स्नान को उन्होंने तीन भागों में बाँट दिया है- (1) ठंडे पानी का कटि स्नान (तापमान 50 से 85 डिग्री तक) (2) सामान्य जल का कटि स्नान (तापमान 88 से 94 डिग्री तक) (3) गर्म जल का कटि स्नान (तापमान 102 से 108 डिग्री तक) ठण्डे या सामान्य जल के कटि स्नान के गुण वहीं हैं जो लूईकूने के बताये हुये हैं। सिर की पीड़ा जैसी बीमारियों में या जिनका चेहरा सुर्ख हो जाता है। कटि स्नान के साथ पाँवों को गर्म पानी के टब में रखने से लाभ होता है। पानी का तापमान 102 प्रारंभ में होना चाहिये। फिर बढ़ाकर 108 तक ले जाना चाहिये।

मेहन स्नान- टब में शीतल जल भर कर रोगी एक स्टूल या पटरे पर इस प्रकार बैठता है कि पानी स्टूल के धरातल तक रहे। इसके लिए 55 से 65 तक के गर्म पानी की आवश्यकता होती है। रोगी अपने पैरों को टब के बाहर रखकर स्टूल पर बैठता है। जननेंद्रिय ही जल में डूबी रहती है। रोगी को चाहिए कि वह बाएँ हाथ की दो उँगलियों से इन्द्रिय को इस प्रकार पकड़े रहे कि उसके आगे का कोमल अंश बाह्य झिल्ली से ढ़क जाय। अब इस चमड़े को पानी के अन्दर मुलायम भीगे कपड़े से धीरे-धीरे मलना चाहिए। घृणित रोगी, जननेंद्रिय सम्बन्धी रोगों में यह स्नान रामबाण का कार्य करता है। यह स्नान दिन में दो या तीन बार अधिक से अधिक 10 से 30 या 65 मिनट तक दिया जा सकता है। हिस्टीरिया और मिर्गी में भी यह लाभदायक है। प्राकृतिक चिकित्सा सम्बन्धी अन्य उपचारों के साथ यह स्नान क्षय में भी लाभदायक है। बाँझपन, गर्भपात, डिप्थीरिया जैसे भयानक रोगों में भी उत्तम है। नासूर, भगन्दर, कारबन्कल आदि में भाप स्नान के बाद इसे देना चाहिए।

वाष्प स्नान- लूईकूने ने भाप के स्नान पर भी जोर दिया है। इसके लिए साधारण बेंत की कुर्सी से कार्य हो सकता है। कुर्सी के नीचे सम्हाल कर खौलते हुए जल का पात्र रखना चाहिए। रोगी का सम्पूर्ण शरीर कम्बल से इस प्रकार ढ़क देना चाहिए कि भाप बाहर न निकलने पावे। इसमें धुँआ न जाने पावे अतः स्टोव या कोपले की आग का उपयोग अच्छा है।

एडोल्फ जुस्ट का प्राकृतिक टब स्नान- इसका प्रयोग स्नायु दौर्बल्य, वायु विकार, दूषित जिगर, चक्कर आना, नेत्रों की बीमारियाँ, पुरुषों के जननेन्द्रिय सम्बन्धी रोगों में किया जाता है।

टब की लम्बाई 4 फीट चौड़ाई 18 इंच और गहराई 9 इंच होनी चाहिए। 4 से 6 इंच गहरा पानी 70 से 72 डिग्री को तापमान का टब में डाला जाता है। रोगी टब में टाँग फैलावे हुए घुटनों को पानी के ऊपर एक दूसरे से पृथक करके बैठ जाता है। अपने हाथों से जल में डूबे हुए सीवन और अण्डकोषों को 5 मिनट तक धोता और मलता है। फिर पानी को हथेलियों से पेडू पर जोर से फेंकता है और साथ-साथ ही मलना शुरू करता है। 5 मिनट पश्चात् जल से निकल कर पानी को उठाकर अपने शरीर पर रोगी डाल लेता है। शरीर को हाथ से मलकर सुखाता है। प्राण शक्ति की वृद्धि के लिए इसका उपयोग उत्तम माना गया है।

जल की पट्टी का प्रयोग -

जल की पट्टी नाना प्रकार की हो सकती है। आवश्यकतानुसार सम्पूर्ण शरीर पर पानी की पट्टी बाँधी जा सकती है तथा किसी अंग विशेष पर भी इसका उपयोग हो सकता है। पट्टी में गर्म तथा ठंडे दोनों ही प्रकार के जल का उपयोग हो सकता है। यदि चाकू या अन्य नुकीली वस्तु से शरीर का अंग कट जाये तो ठंडे पानी की पट्टी ही सर्वोत्तम है। उदर के विकारों के लिए गर्म पट्टी पेडू पर बाँधनी चाहिए। गले के दर्द में गर्म जल बोतल में भरकर सेंकना बहुत उत्तम है। स्थानिक रोग मिटाने के लिए गर्म पानी की पट्टी का प्रयोग ही सर्वोत्तम है।

स्वर्गीय डॉ. बड़थ्वाल ने इस विषय में लिखा है- “स्थानिक दर्द मिटाने के लिए कई पर्त वाली फलालेन की पट्टी लेनी चाहिए। उसके खूब गर्म जल से भिगो निचोड़ कर उसकी पट्टी बाँधनी चाहिए। फिर, उसके ऊपर उसी प्रकार ऊनी वस्त्र बाँध लेना चाहिए जिस प्रकार ठंडी पट्टी में। गर्म पट्टी के बाद हमेशा फिर ठंडी पट्टी बाँधनी चाहिए, अन्यथा लाभ के बदले हानि होगी। निमोनिया में इस प्रकार एकान्तर से कई बार गर्म और ठंडी पट्टी का प्रयोग करना चाहिए। गर्म पट्टी का प्रयोग सब प्रकार की वेदना मिटाने के लिए किया जा सकता है, किन्तु जलोदर में भूलकर भी गर्म पट्टी का प्रयोग नहीं करना चाहिए।”

तरेरा - जब ज्वर अधिक हो, तो ठंडी पट्टी के प्रयोग से ज्वर कम हो जाता है। दूर तक टहलने के पश्चात् उखते हुए पावों को जल से धो डालने से थकावट दूर होती है। ठंडे स्नान बड़े बलवर्द्धक एवं दीर्घजीवन देने वाले होते हैं। स्नान में जब जल कुछ दूरी से डाला जाता है तो उसे तरेरा कहते है। तरेरा केवल शीतल जल का ही उत्तम है। यदि ऊपर भागों में रोग हो तो कमर से ऊपर तरेरा लेना चाहिए। निचले भागों के लिए कमर से नीचे तरेरा लीजिए। नेत्र कान इत्यादि के शूल से मुक्ति के लिए सिर पर ठंडे पानी का तरेरा उत्तम है। शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों पर भी आवश्यकतानुसार किसी जल चिकित्सा के विशेषज्ञ से पूछकर तरेरा का प्रयोग किया जा सकता है।

जल के इन असंख्य उपयोगों को देखकर मृगवेद में उचित ही निर्देश किया गया है।

“हे जल! तुम्हीं स्वास्थ्य के कारण हैं, अतः हमें ऐसा बल दो कि सत्य को जान पावें।”


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