आत्म हत्या मत कीजिए।

January 1949

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आयु क्षीण क्यों होती है।

आधुनिक युग में मरने वाले व्यक्तियों की संख्या निरन्तर वृद्धि पर है। कम होते-होते मनुष्य अल्पायु होता जा रहा है। भारत के व्यक्तियों की औसत आयु 30 वर्ष, जापान की 40, रूस 45, फ्राँस की 57, कनाडा 60, अमेरिका 62, नार्वे 63, न्यूजीलैंड की 67 हैं। आज का जीवन इतना अप्राकृतिक हो चला है कि उससे आयु क्षीण होती जा रही है। जीवन तो अक्षय है, उसका उत्तरोत्तर विकास हो सकता है किन्तु हम स्वयं अपनी गलतियों और मूर्खताओं से जीवन रज्जु को काट देते हैं।

अल्पायु का प्रधान कारण है समय से “पूर्व अपनी शक्तियों का अपव्यय करना।” शक्तियाँ यदि उसी अनुपात में बढ़ती रहें, जिस अनुपात में व्यय होती हैं तब तो स्वास्थ्य बना रह सकता है, किन्तु यदि उन्हें फिजूल खर्च किया जाय, तो कब तक जीवन रह सकता है? शक्तियों का अपव्यय हम अनेक विधियों से करते हैं। कैसे खेद का विषय है कि लोग जानते तक नहीं कि वे शक्तियों का अपव्यय कर रहे हैं और वे लगातार मूर्खता भरे अंधकार में अपना सर्वनाश किया करते हैं। जीवन शक्ति का अपव्यय मुख्यतः निम्न प्रकार से होता है-

(1) वीर्यपात की अधिकता- अनियमित विहार से आयु क्षीण होना निश्चय है। वीर्य ही शक्ति है, जीवन धन है। एक बार व्यय हो जाने पर उसे बाजार में खरीदा नहीं जा सकता। सम्पूर्ण शरीर जब पूरी तरह कार्य करता है तब 40 ग्राम आहार से एक बूँद रक्त और 40 बूँद रक्त से एक बूँद वीर्य तैयार होता है। वैज्ञानिकों का मत है कि दो तोला वीर्य के लिए एक सेर रक्त और एक सेर रक्त के लिए एक मन आहार की आवश्यकता है। आज हम जो भोजन करते हैं, उसका वीर्य बनने में पूरा एक महीना लग जाता है। अब विचारिए कि इस बहुमूल्य जीवन तत्व का अपव्यय भला कैसे पूरा हो सकता है? इसी के आधीन मनुष्य की सम्पूर्ण शारीरिक और मानसिक शक्तियाँ, बल, बुद्धि, आयु रहती है। व्यभिचारी पुरुष क्षणिक सुख के लाभ में आकर वीर्य नाश नाना विधियों से कर डालते हैं। यह एक प्रकार की आत्म हत्या ही समझिए।

(2) नशेबाजी- संसार में जितने मादक द्रव्य हैं, उनका शरीर पर बड़ा घातक प्रभाव पड़ता है। हम चाहते हैं कि कभी-कभी दवाई के रूप में भी इनका उपयोग होता है किन्तु आजकल तो धड़ाधड़ मादक द्रव्यों का प्रचार बढ़ रहा है। मनुष्य बुद्धि शून्य होकर राक्षस बना दीखता है।

शराब को लीजिए। बुरी समझते हुए भी अनेक व्यक्तियों ने इसे अपना लिया है। संसार के डॉक्टर आज इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि शराब का विष, चाय, न्यूमोनिया, विषम ज्वर, हैजा, लू और पेट, जिगर, गुर्दा, हृदय, रक्तवाहनियां, स्नायु विकार तथा मस्तिष्क के कई रोगों का जनक है। शराब का उपयोग साधारण श्रमजीवी उत्तेजना के लिए करते हैं। उन्हें मालूम नहीं कि यह शरीर परमेश्वर का मंदिर है। इसमें परमेश्वर विराजते हैं। प्रकृति ने शरीर ही में ऐसी ऐसी गुप्त शक्तियाँ भरी हैं कि उन्हें शराब जैसी उत्तेजक वस्तु की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए। शराब खोरी विनाश है। श्री बैजनाथ महोदय ने लिखा है “शराब कार्य शक्ति को घटाती है, रोजी छूट जाती है, मनुष्य बाल बच्चों का पोषण नहीं कर पाता, गृह सौक्य का नाश हो जाता है। मानव जाति के सर्वनाश के लिए ही शराब की उत्पत्ति हुई है और व्यभिचार में गाढ़ी मित्रता है। जहाँ-जहाँ शराब है, वहाँ-वहाँ व्यभिचार भी जरूर होता है। शराब पीते ही नीति अनीति की भावना तथा आत्म संयम धूल में मिल जाता है और स्त्री पुरुष ऐसी-ऐसी कुचेष्टाएँ करने लगते हैं जो अच्छी हालत में वे स्वप्न में भी न करते।”

अफीम और तम्बाकू बदन के रक्त को सुखा डालते हैं, मंदाग्नि उत्पन्न करते हैं। अफीम से बालक तक निःसत्व हो जाते हैं। श्रीयुक्त पैहम लिखते हैं नियमित रूप से अफीम का प्रयोग करने वाले व्यक्ति को नीचे लिखी बीमारियाँ हो जाती हैं- कब्ज, रक्त की कमी, मंदाग्नि, हृदय, फेफड़े और गुर्दों के रोग, स्नायुजन्य कमजोरी, फुर्तीलेपन का अभाव, आलस्य, निद्रालुता, चित्त भ्रम, नैतिक भावना की कमी, काम का भार आ पड़ने पर चीं बोल देना, नैतिक अविश्वास और अंत में मृत्यु।

तम्बाकू भी कम शैतान नहीं है। महात्मा गाँधी ने लिखा है- “मैं सदा इस टेव को जंगली, हानिकारक और गंदी मानता आया हूँ। अब तक मैं यह न समझ पाया कि सिगरेट पीने का इतना जबरदस्त शौक दुनिया को क्यों है?” तम्बाकू से क्षय होना अवश्यम्भावी है। क्षय फेफड़ों का रोग है। दूषित वायु जब पुनः-पुनः अन्दर जायेगी तो निश्चय ही यह रोग हो जायेगा। इसके अतिरिक्त हृदय रोग, उदर रोग, नेत्र, नपुँसकता, पागलपन इत्यादि रोग भी तम्बाकू के सेवन से उत्पन्न होते हैं। डॉ. रगलेस्टर के अनुसार “तम्बाकू से पाचन-यंत्रों की शुद्ध रक्त उत्पन्न करने की शक्ति कम होकर सब प्रकार के अजीर्ण, सम्बन्धी रोग उत्पन्न हो जाते हैं।” पंडित ठाकेरदत्त शर्मा के अनुसार अजीर्ण, कास, फेफड़ों के तमाम रोग, त्वचा रोग, निद्रानाश, दुःस्वप्न, चक्कर, नेत्ररोग, हृदय और मस्तिष्क की निर्बलता और उन्माद तम्बाकू से होने वाले सामान्य रोग हैं।

भाँग, गाँजा, चरस- ये सब प्रत्यक्ष विष हैं। चाय और काफी में कैफीन, टैफीन, टैनिन इत्यादि विष मिले हुए होते हैं। चाय में थीन नामक जहर होता है। चाय और काफी पीने से दाँतों की जड़े कमजोर हो जाती हैं। स्नायुओं को क्षणिक उत्तेजना तो मिलती है, किन्तु शक्ति या रक्त नहीं बढ़ने पाता।

स्मरण रखिये, मादक पदार्थ विषैले हैं। आपकी आयु, बल, बुद्धि, उत्साह और नैतिकता का ह्रास करने वाले हैं। इनका पान जहर का पान है। खतरों से भरा है, आत्महत्या के बराबर है। आप जानते बूझते क्यों विषपान कर रहे हैं?

(3) व्यभिचार- यह पाप वह भयंकर राक्षस है जो देखते-2 मनुष्य के पतन का कारण बनता है। आज का बहुत सा साहित्य हमारी भोली जनता को मृत्यु के मुँह में धकेल रहा है। व्यभिचार वह सामाजिक बुराई है, जो प्रत्येक राष्ट्र के लिए हानिकारक है। स्त्री पुरुषों के जीवन सत्व को नष्ट करने के अनेक नए तरीके निकाल लिए हैं, जिन्हें कहना और चर्चा करना भी पाप है। स्मरण रखिये, आप व्यभिचार कर जगत की आँखों से बच सकते हैं किन्तु प्रकृति बड़ी कठोर है। व्यभिचार का दंड उसके दरबार में गर्मी, सूजाक, स्वप्नदोष, नपुँसकता, नामर्दी इत्यादि मूत्र रोगों के रूप में मिलता है। घर का गंदा कामोत्तेजक वातावरण, सिनेमा, दुश्चरित्र व्यक्ति, अश्लील चित्र पुस्तकें इत्यादि से बड़े सावधान रहें। इनमें लिप्त होकर आत्महत्या न कर बैठें।

(4) चटोरापन- कुछ लोग चाट पकौड़ी, तरबतर मिठाइयाँ, बाजारू मसालेदार पकवान, दालसेब इत्यादि आवश्यकता से अधिक खाते हैं। भूख न होने पर भी वे पेट को इन जायकेदार वस्तुओं से भर डालते हैं। आवश्यकता से अधिक केवल स्वाद के लिए खाना अपनी कब्र दाँतों से खोदना है। बड़े शहरों में रहने वाले फैशनेबल व्यक्तियों की चटोरेपन की आदत बड़ी भारी कमजोरी है। अतः अनियमित आहार विहार न कर बैठें। बड़ी सोच समझ कर चलें।

(5) मानसिक दुर्बलताएँ- मृत्यु को पास लाने में मानसिक उद्वेग, क्लेश, दुःख, निराशा, कुढ़न, अहितकर चिंतन इत्यादि विकारों का बड़ा हाथ है। ये शत्रु दीखते नहीं, किन्तु अन्दर ही अन्दर शरीर को जर्जर कर देते हैं।

प्रकृति नहीं चाहती कि हम इन विकारों के वशीभूत होकर जीवन का क्षय कर दें। प्रकृति ने हमें पूर्ण निरोग, आनन्द और प्रसन्नता में रहने वाला प्राणी बनाया है। अनाकाँक्षित विकार सब मानसिक शक्ति के आधीन है। मानसिक शक्ति द्वारा यदि श्रद्धापूर्वक आत्मविश्वास धारण किया जाय तो ये विकार सुगमता पूर्वक दूर किये जा सकते हैं।

प्रकृति बड़ी दयालु एवं चतुर है। वह प्रत्येक मनुष्य को अपनी कमजोरियाँ सुधारने का अवसर प्रदान करती है। जब हम उत्साह, आनन्द, आशा, प्रेम, सत्य की बात सोचते हैं तो हृदय में नवजीवन का संचार होने लगता है, नसों में नया जोश, नवीन उत्साह आता है किन्तु जब हम अवाँछित मनोविकारों में फँसते हैं तो हमारी कार्य शक्तियाँ पंगु हो जाती हैं। यह इसीलिए कि फिक्र क्लेश, दुःख, कुढ़न, क्रोध के विचार अप्राकृतिक हैं। वे मनुष्य के लिए नहीं हैं। उन्हीं में लिप्त रहना प्रकृति से दूर जाना है।

प्रो. जेम्स साहब कहते हैं कि “यदि तुम दिन भर चिंतित अवस्था में बैठे रहोगे और बोलते समय बड़ी दुःखभरी आवाज में बोलोगे तो इसका तुम्हारे शरीर पर बड़ा बुरा प्रभाव होगा। डॉ. जार्ज विलियन कहते हैं कि “चिंता शरीर के अन्दर ऐसे अदृश्य घाव करती है जिसका प्रभाव दिमाग के कुछ जीवकोष्ठों (ष्टद्गद्यद्यह्य) पर पड़ता है। धीरे-धीरे वह असर नसों में फैलता है और बीमारियाँ पास आती हैं। दुर्विचार से ज्ञान तन्तु निर्बल होते हैं। जो मनुष्य अपने दुर्विचार उद्वेगों और विकारों का अनुयायी बनता है, वह मृत्यु को पास बुलाता है।

उपरोक्त सभी बातें- अपव्यय, वीर्यपात, नशेबाजी, पापकर्म, कुढ़न, निराशा, मृत्यु का भय, चटोरापन, अनियमित आहार-विहार आपके भीतरी शत्रु हैं। उन्हें अपनी आदत और स्वभाव में सम्मिलित कर आत्म-हत्या मत कीजिए।


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