रोगों तथा अस्वस्थता को निमंत्रण

January 1949

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रकृति के विरुद्ध आचरण -

ज्ञान के इस उन्नत युग में भी कुछ व्यक्ति ऐसी मूर्खताएँ करते हैं कि शरीर के भीतर मल और विष एकत्रित हो जाते हैं। ऐसा मालूम होता है मानो वे कह रहे हो- “हे रोग, हे अस्वस्थता। तुम आओ, मेरे शरीर में वास करो, मैं तुम्हें निमंत्रण देता हूँ। तुम्हारे लिए शरीर में उपयुक्त वातावरण उपस्थित करता हूँ। न्योता देकर तुम्हें बुलाता हूँ। तुम आओ तो मैं तुम्हारी सेवा करूंगा।”

शरीर के प्रति हमारा अत्याचार -

यदि हम अपने आहार-विहार में सजग रहें तो कोई कारण नहीं कि हम अल्पकाल में ही मृत्यु के ग्रास बनें। किन्तु हम शरीर जैसी सूक्ष्म मशीन की बहुत कम परवाह करते हैं। हम यह नहीं समझते कि यह कितनी बेशकीमती है, कितनी मूल्यवान है। यदि इसका एक भी पुर्जा बेकार हो जाय, तो असंख्य धन खर्च करने पर भी वैसा पुर्जा इसमें फिट नहीं किया जा सकता। आपका दाँत टूट जाता है, आप दन्त-चिकित्सक से दूसरा दाँत लगवाते हैं। वह एक खूबसूरत दाँत लगा देता है किन्तु एक हफ्ते बाद ही वह बुरा लगने लगता है, टूट जाता है या वैसा अच्छी तरह कार्य नहीं करता, जैसा प्राकृतिक दाँत करता था। जब दाँत जैसे साधारण पुर्जे की यह बात है तो नेत्र, हृदय, फेफड़े या अन्य सूक्ष्म अवयवों की तो बात ही कुछ और है। इन्हें तो एकबार बेकार होने पर मानवीय बाजार में खरीदा भी नहीं जा सकता। स्मरण रखिये, आपका शरीर एक अमूल्य खजाना है, यह एक से एक कीमती पुर्जों से बना है, इसमें ऐसी-2 विचित्रताएँ भरी हैं कि एक बार नष्ट होने पर उन्हें पुनः नहीं बनाया जा सकता।

शरीर के प्रति हमारे अत्याचार असंख्य हैं। नेत्र सूर्य की प्राकृतिक रोशनी में कार्य करने के लिए विनिर्मित हैं किन्तु हम दिन में तो सोते हैं, रात में विद्युत की तेज रोशनी में पढ़ते हैं, सिनेमा देखते हैं। समय से पूर्व ही उन्हें बेकार कर देते हैं। दाँतों से ऐसे अभक्ष्य पदार्थ खाते हैं, कभी अति गर्म, कभी अति शीतल चीजें चबा-चबा कर उन्हें बेकार बना डालते हैं। पेट की बात ही न पूछिये। मिर्च, मसाले, बासी पूरी, कचौड़ी, मिठाई, खटाई, मद्य, माँस, चाय, काफी न जाने कितने पदार्थ भक्षण कर हम अग्निमाँद्यता के शिकार होते हैं, तम्बाकू खाना, पान, बीड़ी, भाँग, चरस तेलयुक्त, गरिष्ठ पदार्थ पेट में भरकर असमय ही उसकी पाचन शक्तियाँ क्षीण कर देते हैं। मादक-द्रव्य तो प्रत्यक्ष विष हैं। कौन नहीं जानता कि चाय, काफी, कोको, चरस, शराब, चंडू, गाँजा, भाँग बुरी हैं? शोक! महाशोक जानते बूझते हम अपने पेट को बेकार करते हैं।

मनोविकारों का जाल -

मन तथा मस्तिष्क के प्रति हमारे अत्याचार इससे भी अधिक बढ़े हुए हैं। राजसी और तामसिक आहार से वैसे ही विचार उत्पन्न होंगे। तामसी आहार से मन चंचल, कामी, क्रोधी, लालची और पापी बन जाता है। चाहे हम कितनी भी साधना या एकाग्रता का अभ्यास करें, किन्तु तामसी आहार से स्वयं रोग, शोक, दुःख दैन्य वेग से बढ़ते हैं और मनुष्य का पुरुषार्थ घटता है, सौभाग्य दूर भागता है, सामर्थ्य न्यून होती है। राजसी और तामसिक पदार्थों (माँस, अत्यन्त उष्ण, कड़वा, तीक्ष्ण, गरिष्ठ, लहसुन, प्याज, अंडा, मछली, अत्यन्त तले हुए भोजन, रसहीन गला हुआ, बासी, मिठाइयों से मनुष्य प्रत्यक्ष राक्षस बन जाता है। फिर यदि इन अप्राकृतिक चीजों को खाकर कोई मनुष्य काम, क्रोध, ईर्ष्या, प्रतिहिंसा के वशीभूत हो कुकर्म कर डाले तो क्या आश्चर्य?

मनोविकारों की उत्तेजना से दाहक तत्व बढ़ते हैं। मनोविकारों के द्वन्द्व से हमारी मानसिक वृत्तियाँ शारीरिक वृत्तियों से संश्लिष्ट होकर रोगों की अनेकरूपता उत्पन्न करती है। मनोविकार हमारे रक्त में अनेक प्रकार के रासायनिक परिवर्तन किया करते हैं। जैसे, यदि हम काम वासना से विक्षुब्ध हो उठते हैं, तो रक्त में एक प्रकार की गर्मी आ जाती है, रोम-रोम तरंगित हो उठता है। यदि वासना का ताँडव अधिक रहे तो गर्मी, सूजाक, गुप्तांगों के अनेक रोग, स्वप्नदोष, बहुमूत्र और पेशाब के अनेक गुप्त रोग उत्पन्न होते हैं। क्रोध की अधिकता से रक्त में कुछ ऐसे विष उत्पन्न होते हैं जिनसे उद्वेग बढ़ता है, त्वचा का रंग काला हो जाता है, अंग फड़कने लगते हैं, शान्ति, स्थिरता और बुद्धि भंग हो जाती है। मूलरूप में क्रोध भी हमारे अनेक शारीरिक रोगों का कारण बन जाता है।

मानसिक तनाव -

हमेशा किसी मनोविकार के वशीभूत रहने से अनावश्यक संघर्ष मन में चलता है। भय, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, प्रतिहिंसा, लोभ, वासना- पर नियंत्रण न होने से मनुष्य उत्तेजित रहता है। इच्छाओं की विभिन्नताओं के अनुसार मनोविकारों की अनेकरूपता का विकास होता है। प्रत्येक मनोविकार अपनी जटिलता उत्पन्न कर शारीरिक विकार का कारण बनता है। अप्राकृतिक अनहोनी कल्पनाएँ, पुरानी दुःखद स्मृतियाँ, दलित वासनाएँ दाहक तत्वों की अभिवृद्धि किया करती हैं। अपने आप पर किए गये इन अत्याचारों के हमें स्वयं ही जिम्मेदार हैं। हम स्वयं रोगों को निमंत्रण देकर बुलाते हैं।

रोगों के प्रधान कारण -

“प्रकृति की पुकार पर जो लोग ध्यान नहीं देते, उन्हें भाँति-भाँति के रोग और दुःख घेर लेते हैं, परन्तु प्राकृतिक जीवन व्यतीत करने वाले जंगल के प्राणी रोगमुक्त रहते हैं और मनुष्य के दुर्गुणों और पापाचारों से बचे रहते हैं।”

-टिंर्टनटुनेचर

प्रकृति की अवज्ञा करने का परिणाम (या दण्ड) रोग है। यह अवज्ञा हम भाँति-भाँति से करते हैं। एक स्वस्थ मनुष्य जब अपने प्रति अत्याचार करता है, तभी वह व्याधिग्रस्त होता है। साधारण गलतियों के लिए प्रकृति हमें मामूली सी सजा (सिर दर्द, जुकाम, पेट दर्द इत्यादि) देकर छोड़ देती है किन्तु अनवरत नियमोल्लंघन का परिणाम बड़े-बड़े जटिल रोग उत्पन्न करता है। प्रकृति के नियम तो अटल हैं, अपने नियमों के अनुसार वह इस शरीर पत्र को चलाया करती है। यदि उसके मार्ग में हम बाधा उपस्थित न करें, उसे अपना कार्य चलाने दें, तो हम दीर्घ जीवन का सुख लूट सकते हैं।

प्रकृति से मनुष्य जितना दूर गया, जितना उसका संपर्क छूटा, उतनी ही बीमारियाँ बढ़ी हैं। संसार ने पश्चिमी सभ्यता का दुष्परिणाम भुगत लिया है? भारतीय ऋषि मुनि सदैव प्राकृतिक माता के संपर्क में रहने का उपदेश देते रहे हैं। इस सभ्यता ने हमें सबसे अधिक सुख और दीर्घ जीवन-दान दिया है। आदिम युग में जब वह प्रकृति की गोद में खेलता-कूदता आखेट करता उसने सबसे अधिक आनंद किया। जब वह “सभ्यता” के दायरे में बंधा तो उसका प्रकृति से सम्बन्ध टूटने लगा। उन्नति के नाम पर वह धीरे-2 प्रकृति से दूर हटता गया। फलतः आज वह नाना प्रकार की व्याधियों का शिकार है।

प्राकृतिक जीवन से दूर हटने का क्या कारण है? यह है-हमारा आजकल का सभ्यतापूर्ण मिथ्या आहार-विहार से हमारे शरीर में विष रुक जाते हैं। दूषित मल पहले पेट के भीतर छेदों के पास एकत्रित होते हैं, फिर वहीं से भिन्न-भिन्न अंगों में जाकर अपना कुत्सित प्रभाव दिखाते हैं। आइये, विस्तार से हम आहार-विहार पर विचार करें।

मिथ्या आहार -

हममें से अधिकाँश व्यक्ति अपने अपने दाँतों से कब्र खोदते हैं। अपने भोजन को ऐसा अप्राकृतिक बना लेते हैं। कि पेट में एक पंसारी की दुकान बन सकती है। हम भोजन क्षुधा निवारण के लिए नहीं, स्वाद के लिए नाना प्रकार की मिठाइयाँ, अचार, स्वादिष्ट चूरन, तले हुए पदार्थ, अभक्ष पदार्थों का भी उपयोग प्रारंभ कर दिया है। हमारे सामने छप्पन प्रकार के भोजनों से भरा हुआ थाल आता है और हम भूख न होने पर भी केवल जिह्वा के स्वाद से प्रेरित होकर ठूँस-ठूँस कर खाते हैं। बनावटी रसों तथा स्वादों के प्रयोग सभ्य जगत में चल रहें हैं। इनके मोह में पड़कर मनुष्य प्राकृतिक रसों तथा स्वाद को विस्मृत करता जा रहा है। बड़े शहरों में हलवाइयों, मिठाई वालों, आचार मुरब्बे वालों ने नए-नए मिश्रणों से भिन्न-भिन्न वस्तुएँ तैयार की हैं। चाय, बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, सुपारी, के बड़े-बड़े कारखाने और सजी धजी हुई दुकानें वृहत् संख्या में दृष्टिगोचर होती हैं। फल और तरकारियों को भी इस प्रकार बनाया जाता है और इतने मसाले खटाई इत्यादि भर दी जाती हैं कि उनका मूल स्वाद विकृत हो जाता है। खाते समय वह ज्ञात ही नहीं होता की कौन सी सब्जी हम खा रहें हैं। उनके विटामिन तो प्रायः बिल्कुल ही नष्ट हो जाते हैं।

शक्कर का प्रयोग बढ़ रहा है। भिन्न-भिन्न प्रकार की चिकनाई, माँस का व्यवहार समझदार व्यक्तियों में अधिक होने लगा है। माँसाहारियों में सुखाया हुआ माँस प्रयोग में खाने के लिए एक से एक अच्छी चीज विद्यमान है, वहाँ आज माँस व्यवहार देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे मनुष्य जागकर पुनः सोने की चेष्टा कर रहा है।

पेय पदार्थ में अप्राकृतिक तत्व घुस पड़े हैं। स्वच्छ निर्मल जल को छोड़कर हम सोडा लेमन, चाय, कॉफी, भाँति-2 की शराब, चटनी, इत्यादि का उपयोग कर रहे हैं। मादक द्रव्यों के व्यवहार से हम रोगों के शिकार बन रहें हैं। मादक द्रव्य रक्त में अनेक विष, हानिकारक अन्न उत्पन्न करते हैं। हमारी दवाइयाँ कई बार इतनी लाभ नहीं करती, जितना उलटकर हानि पहुँचा देती हैं। आजकल की दवाइयाँ रोग को दबाती हैं, उसे जड़मूल से विनष्ट नहीं करती। लोग समझने लगे हैं कि दवाई ली और रोग गया। ठूंस-2 कर आवश्यकता से अधिक खाया और फिर मुट्ठी भर चूरन खा लिया, काम हो गया। यह बड़ी ही प्रमादात्मक बातें हैं। तरल पदार्थों की आवश्यकता की पूर्ति चाय, शराब और सोडा पीकर करने वाले व्यक्ति यह नहीं जानते की चाय और कहवे के रूप में वे “टैनिक एसिड” और “कैफीन” विष पी रहे हैं। शराब और सोडे में शक्कर की अधिक मात्रा लेकर वे डायबिटीज के मरीज बन रहे हैं।

हमारा शरीर 16 तत्वों का बना है। इसमें कैल्शियम, लोहा, पोटैशियम एवं फास्फोरस इत्यादि लवण भी हैं। ये सभी लवण भोजन द्वारा शरीर को हमेशा प्राप्त होते रहने चाहिए। वास्तव में लवण तरकारियों और फलों में-जो विटामिनों की खान हैं-पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हैं किन्तु हम उन्हें बहुत पकाकर नष्ट कर देते हैं। ये सभी तत्व उचित मात्रा में हमें नहीं मिल पाते।

अधिक भोजन -

एक बहुत बड़ी गलती अधिक भोजन की है। आवश्यकता से अधिक भोजन करना पेट के साथ प्रत्यक्ष अत्याचार है। प्रातःकाल हम दूध और मिठाइयाँ, दोपहर में ठूँस-2 कर भोजन, शाम को फिर नाश्ता और रात को भोजन खाते हैं। सोते समय दूध पीते हैं, बीच में बार-2 छोटी मोटी चीजें जैसे- फल, चाय के प्याले, सिगरेट, चाट पकौड़ी, सोडा, रेवड़ी, मिठाई न जाने कितना अधिक खा डालते हैं। नब्बे प्रतिशत बीमारियाँ अधिक भोजन खाने से होती हैं। “एक चौथाई भोजन से मनुष्य का पोषण होता है और तीन चौथाई से डाक्टरों की डाक्टरी चला करती है।” हमारी पाचन शक्ति के ऊपर इतना बोझ पड़ जाता है कि अजीर्ण, मन्दाग्नि, उल्टी, दस्त, ग्रहणी, बुखार आदि हमें आ घेरते हैं। आवश्यकता से अधिक खाना शारीरिक दृष्टि से तो यह इसलिए निंद्य है कि शरीर के अन्दर कूड़ा करकट, गन्दगी का बोझ बढ़ता है, पाचन पर जोर पड़ता है और मल-निष्कासन अवयवों पर व्यर्थ का बोझ लदता है। शरीर में विष एकत्रित होकर रोग उत्पन्न होते हैं और आर्थिक दृष्टि से इसलिए बुरा है कि मनुष्य को बहुत अधिक व्यय करना पड़ता है।

अप्राकृतिक विहार -

“विहार” का अभिप्राय है, हमारा रहन-सहन। टहलना, घूमना, फिरना, बैठना, रतिक्रीड़ा। “विहार” का हमें विस्तृत अर्थ लेना चाहिए। आज के नगरों, तंग गलियों, गन्दी सड़कों, बिना रोशनदान और छोटी खिड़कियों वाले मकानों को देखिये। शरीर की प्रथम आवश्यकता है- शुद्ध स्वच्छ और निर्मल वायु। इन गन्दी गलियों में शुद्ध वायु भी मिलना एक वरदान है। आबादी अधिक होने से लोग सीलभरे अन्धेरे कमरों में रहते हैं। एक ही छोटे कमरे में इतने अधिक लोग भरे रहते हैं कि उन्हें अनेक प्रकार के छूत के रोग लग जाते हैं। व्यायाम के लिए स्थान नहीं मिलता। सोना, बैठना, भोजन पकाना, स्टोर तथा नाना वस्तुएँ रखना-सभी काम उसी में होते हैं। शुद्ध वायु और पर्याप्त प्रकाश न मिलना रोगों का प्रथम कारण है।

घरों के पश्चात् हम अधिक समय ऑफिसों, कलकारखानों, दफ्तरों और दुकानों पर व्यतीत करते हैं। बड़े अप्राकृतिक ढंग से बैठते हैं, रीढ़ की हड्डी झुकाये रहते हैं, फेफड़ों में पूरी हवा नहीं भरते, अधूरा श्वास लेते हैं। यथेष्ट मात्रा में जल नहीं पीते, आमाशय को सुखा डालते हैं। इन प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति यथासमय न करने के कारण हम रोग रूपी सजा पाते हैं।

टहलने और घूमने फिरने का हमें बहुत कम अवसर प्राप्त होता है। जब से साइकिल का प्रयोग प्रारंभ हुआ तब से तो यह समझिये हमने अपने पाँवों में स्वयं कुल्हाड़ी मार ली। मनुष्य का निर्माण एक भागने छोड़ने अन्य पशुओं का आखेट करने वाले शिकारी के रूप में हुआ। जंगलों, प्रकृति के अंचल में बहने वाली सरिताओं के तटों अमराइयों, वृक्ष और लताओं के मध्य रहकर उसने उस युग में सबसे उत्तम स्वास्थ्य और आयु प्राप्त की। आज हम एक ही स्थान पर बैठे रहकर अपनी तोंद फुला रहे हैं। पैरों को अशक्त बनाकर पंगु से बने हुए हैं। स्वच्छ हवा छोड़कर पूरा-2 दिन दुकानों और कारखानों में व्यतीत कर देते हैं।

किसी धन-सम्पन्न परिवार के स्त्री-पुरुषों के मोटे-मोटे शरीर को देखकर जो व्यक्ति स्वास्थ्य का अनुमान करते हैं, वे स्वास्थ्य और शक्ति को पहचानने में बड़ी भूल करते हैं। धनी व्यक्तियों के भारी भरकम शरीर स्वास्थ्य के परिचायक नहीं हैं। वे तो सदा अपच, कब्ज, खट्टी डकारों तथा बादी के शिकार रहते हैं। ये प्रकृति से बहुत दूर जा पड़े हैं। धन का मद उनके और प्रकृति के मध्य में एक दीवार है। स्वास्थ्य और शक्ति का धन के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।

जब से मनुष्य ने शारीरिक श्रम कम किया, जब से मशीनों का युग आया, तब से उसका शरीर आराम तलब, कमजोर और दुर्बल सा हो गया है। मौसम की तनिक सी भी प्रतिकूलता को वह बरदाश्त नहीं कर पाता। साइकिल, मोटर, इत्यादि ने हमारे पाँव अशक्त किये। शारीरिक श्रम क्रमशः कम होता गया। शरीर विज्ञान का यह नियम है कि जिस हिस्से या अवयव से कार्य अधिक लिया जावेगा वह मजबूत बनता जायेगा, किन्तु जिसे निठल्ला और बिना काम छोड़ दिया जावेगा, वह निर्बल होता जावेगा। धनी पुरुष तो शारीरिक श्रम करते ही नहीं। अतः वे सबसे अधिक गिरे हुए स्वास्थ्य के शिकार होते हैं।

विषय वासना की अतृप्ति और आधिक्य आज जितना है, उतनी कभी नहीं रही है। समाज में गुप्त रोग, बहुमूत्र, स्वप्नदोष, सूजाक, गर्मी उपदंश, इन्द्रिय निर्बलता इत्यादि बड़ी मात्रा में फैले हुए हैं। कामोत्तेजक घृणित साहित्य की बिक्री बढ़ रही है। तज्जनित अनाचार, कामोपभोग की इच्छा तृप्ति के नाना साधन, गुप्त व्यभिचार, भ्रष्टता, यौन रोग बढ़ती पर हैं। गन्दे उत्तेजक उपन्यास कहानियाँ पढ़ने से और गन्दे सिनेमा के फिल्म देखने से युवक-युवतियों की कामवासनाएँ अल्पवयस में ही उत्तेजित हो उठती हैं। वे कामोपभोग के लिए बुरी तरह लालायित रहते हैं। युद्ध कालीन व्यभिचार ने समाज में मनमाना दुराचार, गुप्तरोग, अपराधों की संख्या बढ़ाई है। जो विवाहित हैं, वे पत्नि व्यभिचार कर रहे हैं।

श्री बैजनाथ महोदय इस विषय में लिखते हैं-”लोग समझते हैं कि विवाह जीवन का द्वार है। उसके द्वारा मनुष्य अपने जीवनोपवन में घुसे और मनमाना विषय-विलास लूटें। पति-पत्नि के बीच भला भोग की कोई सीमा क्यों हो? वहाँ तो सब कुछ न्याय है-नहीं वहाँ तो एक दूसरे की वासना की तृप्ति के लिए अपना शरीर अर्पण कर देना प्रत्येक व्यक्ति का धर्म है- ऐसे नर पशुओं को अपनी पत्नि की बीमारी और गर्भावस्था का भी ख्याल नहीं रहता। वे तो विकार के कारण पागल और अन्धे रहते हैं। संसार में विकार तृप्ति के अतिरिक्त उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता।”

जब हम निर्बल, निःसत्व और रक्तहीन नर कंकालों को देखते हैं तो हमें उन पर बड़ा तरस आता है। अल्पावस्था में विवाह अब इस उन्नत युग में भी हो रहे हैं। अप्राकृतिक रूप से काम वासना को भड़काने में सिनेमा और नाटक शृंगार, प्रधान कविताएँ, कामोत्तेजक उपन्यास, अश्लील साहित्य, घर का गन्दा वायुमंडल, कुसंगति, गालियाँ प्रमुख हैं। ऋतु शान्ति, गर्भादान इत्यादि हृदय के अन्तस्थल में छिपी विकाराग्नि को अप्राकृतिक रूप से कच्ची आयु में जागृत करते हैं।

प्रायः माता-पिता विषय वासना के वशीभूत हो इतने अंधे हो जाते हैं कि वे अपने बच्चों के सन्मुख ही नाना प्रकार की विकारजन्य कुचेष्टाएँ करते रहते हैं। अनजान में ही इस प्रकार वे दूषित कुसंस्कार बच्चों के कोमल अंतर्जगत पर डाल देते हैं।

निम्नवर्ग के लोग-नौकर सा या अन्य व्यक्ति बड़े आदमियों के बच्चों तक को कुसंगति में डाल देते हैं। निर्दोष बच्चों को पान, सिगरेट, रबड़ी, मलाई, भाँग, गाँजा, चरस इत्यादि अभक्ष्य पदार्थों की आदत डालकर पाप के गर्त में धकेलते हैं।

मिथ्या आहार तथा अप्राकृतिक विहार के कारण हम अंधे बने, प्रकृति के रहस्यों को भूलने लगे, प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करने लगे। प्रकृति-तत्व क्या है? वह किस प्रकार हमारे जीवन में महत्वपूर्ण कार्य करता है? प्रकृति किस प्रकार हमारे स्वास्थ्य की रक्षा किया करती है? ये सब बातें हमने भूला दीं। जो आराम का समय है, उस समय हम कार्य में जुट गये, काम के समय आराम करने लगे। पीने के लिए हम कृत्रिम चीजों का प्रयोग करने लगे, जीवन में व्यर्थ आडम्बर हमने मोल ले लिये। हमारे वस्त्र इतने अधिक हो गये कि शरीर पर स्वाभाविक रूप से हवा भी नहीं लग पाती, पाँवों में हमने मोजे जूते डाल दिये, परिश्रम हम छोड़ बैठे व्यर्थ के अनेक आडम्बरों में हम फँस गये। हमारे जीवन में भ्रम, चिन्ताएँ, अतृप्त वासनाएँ, दलित अनुभूतियाँ वृद्धि पर हैं। हमारे जीवन में प्रकृति से सम्बन्ध प्रायः टूट सा चला है। बड़े-बड़े शहरों में चलने वाले कल-कारखाने, मिल और फैक्ट्रियां हमारे जीवन में कृत्रिमता उत्पन्न कर रही हैं। हम रात-दिन रुपये की चिंता करते हैं, उठते बैठते, सोते-जागते, चलते-फिरते प्रत्येक घड़ी हमारे सामने अर्थ चिंता रहती है। हम यह नहीं जानते कि बहुत कम पैसे से हम स्वास्थ्य, शक्ति, दीर्घ जीवन, सौंदर्य, प्राप्त कर सकते हैं।

प्राकृतिक जीवन ही वास्तविक जीवन है। प्रकृति तत्व में सभी उत्तम पदार्थों का सम्मिश्रण है। यदि हम आधुनिक सभ्यता के महारोग से अपने आपको स्वाभाविकता, का अवलम्बन कर सकें तो जीवन का वास्तविक आनन्द उपलब्ध कर सकते हैं। हम प्रकृति के जितना ही निकट आयेंगे, जितनी सचाई के साथ प्राकृतिक नियमों का पालन करेंगे, उतने ही अंशों में स्वास्थ्य लाभ करेंगे


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118