मेरी व्यक्तिगत राय है कि यदि रोगी के रोग का निदान ठीक तरह से हो जाए तो उसकी जड़ काटने के लिए औषधि की उतनी आवश्यकता नहीं रह जाती, जितनी कि प्राकृतिक नियमों के पालन की। हमारे अनेक रोगी इसी कारण अच्छे नहीं हो पाते कि हमें उनके रोगों का विधिवत ज्ञान ही नहीं होता। यदि हम रोग का ठीक-ठीक पता लगा लें, तो समझें कि आधा कार्य हो गया।
एक अंग्रेज महाशय अपनी दशा का वर्णन करते हुए कहते हैं। “नौ वर्ष की अवस्था में मुझे मुख से श्वास लेने की आदत पड़ गई। गला दुखने लगा। लोगों ने कहा कि टान्सिल के लिए आपरेशन कराना होगा तभी यह ठीक हो सकेगा। कुछ मास पश्चात स्वयं ठीक हो गया और मालूम हुआ कि वह सर्दी के कारण हो गया था।”
“मेरे पेट में कुछ दिन तक दर्द रहा। दो-तीन बड़े-बड़े डॉक्टरों से मिला, परन्तु वे बड़े चक्कर में फँसे और कहने लगे कि अपेन्डिसाइटिस हो गया है। आपरेशन होगा। बिना चीर फाड़ किए जान-बचाना कठिन है। मैंने थोड़ा-थोड़ा टहलना प्रारंभ किया। जल तथा शाक तरकारी, टमाटर का प्रयोग बढ़ाया। दो मास में पेट का दर्द जाता रहा।”
“मेरे फेफड़ों में कुछ खराबी थी। साँस लेने में पीड़ा होने लगी। वैद्य ने बताया कि तपेदिक का डर है अतः मुझे कोई श्रमपूर्ण कार्य नहीं करना चाहिए। दौड़ना, कसरत, व्यायाम आदि हानिकर हैं। केवल पेय पदार्थ गिजा के रूप में लेना चाहिए। मैं बराबर दवायें लेता रहा किन्तु “मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की।” तो निराश हो चला था, परन्तु सौभाग्य से एक दिन प्राकृतिक चिकित्सा के एक पत्र में सुन्दर लेख देख लिया, जिसमें प्राकृतिक चिकित्सा के लाभ बताए गए थे। मुझे उसे कार्यांवित करने की सूझ गई और मैंने औषधियाँ खाना बन्द कर दिया। पहले मैंने भोजन सुधारा- शाक, फल आदि का प्रयोग आरंभ कर दिया। माँस खाना बन्द कर दिया। व्यायाम तो मैं कर ही नहीं सकता था, टहलना प्रारंभ कर दिया। मालिश शुरू की। धीरे-धीरे लाभ हुआ। आरोग्यशास्त्र का अध्ययन करने से मुझे कुछ ऐसे व्यायाम ज्ञात हुए जिनको मैं कुर्सी पर बैठकर या लेट कर सकता था। मैंने आरोग्यशास्त्र का क्रमशः अभ्यास शुरू किया। मेरा तपेदिक चला गया। आरोग्यशास्त्र ने मुझे बताया कि मेरा रोग सिर्फ आलस्य, भ्रम और सन्देह था।”
उपरोक्त वृत्तांत से स्पष्ट है कि हमारे चिकित्सक प्रायः अटकल से ही काम लेते हैं। वे मस्तिष्क पर जोर डालना नहीं चाहते। उनके पास अनेक मरीज हैं, फिर हर एक का इतिहास क्यों कर सुनें। यदि हम चाहें तो स्वयं चिकित्सक बन सकते हैं। अपने विषय में जितनी अच्छी तरह हम समझ सकते हैं, दूसरा चिकित्सक नहीं।
“सर्व परवशं सर्वमात्मवशं सुखम्” अर्थात् आत्मवशता सुख है, परवशता दुःख। अतः प्रकृति के उपचार सीख कर हम में से प्रत्येक अपना चिकित्सक स्वयं बन सकता है। अतः इस शास्त्र के सिद्धान्तों का स्वयं ज्ञान प्राप्त कीजिये और प्रकृति के उपचार सीख कर उनका प्रयोग दैनिक जीवन में कीजिए।