हिन्दू धर्म का प्रसार कीजिए।

November 1947

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वेद के दो अंग है (1) ज्ञान (2) विज्ञान। ज्ञान-आत्म ज्ञान को कहते हैं जिसके द्वारा मनुष्य के अंतर्जगत का, विवेक का, दृष्टिकोण का निर्माण होता है। उसी के आधार पर उसकी इच्छा, आकाँक्षा, रुचि, एवं क्रिया का विकास होता है। विज्ञान-लौकिक एवं भौतिक जानकारी को कहते हैं, जिससे लोक जीवन को सुविधा पूर्वक जिया जा सके। भाषा लिपि, साहित्य, गणित, संगीत, रसायन, शिल्प आदि अनेकों शिक्षाएं विज्ञान के अंतर्गत आती हैं। इन ज्ञान और विज्ञान दोनों के द्वारा मनुष्य का व्यक्तित्व विकसित होता है।

विज्ञान से शरीर यात्रा के सुसंचालन में सुविधा होती है, पर ज्ञान के द्वारा अंतर्जगत् की आधारशिला रखी जाती है, इस शिला पर ही मनुष्य की महानता और प्रयत्नशीलता निर्भर रहती है, जिसके बिना विज्ञान को भी भली प्रकार ग्रहण नहीं किया जा सकता। इसलिए विज्ञान से ज्ञान का दर्जा बहुत ऊंचा है। विज्ञान के शिक्षक जगह-जगह मौजूद हैं, नीच कोटि के लोगों द्वारा भी सिखाया और सीखा जा सकता है। पर ज्ञान का स्थान ऊंचा हैं, उसे ऊंची आत्माएं सिखाती हैं और मस्तिष्क से नहीं हृदय द्वारा उसे सीखा जाता है। यही धर्म शिक्षा है।

वैदिक ज्ञान एक अमृत है, जो वस्तु जितनी ही उपयोगी एवं आवश्यक है उसे अभावग्रस्तों के लिए उपलब्ध करना उतना ही बड़ा पुण्य गिना जाता है। इसीलिए ब्रह्मदान को, ज्ञान दान को सबसे बड़ा दान कहा गया है। इसकी तुलना में अन्न, वस्त्र, गौ आदि के भौतिक दान बहुत हलके हैं,। हिन्दू दर्शन का ज्ञान, मनुष्य के लिए एक आध्यात्मिक अखण्ड ज्योति है। जिसके द्वारा पाप, ताप और अज्ञान के चंगुल में फंसा हुआ प्राणी, सत्य की ओर प्रकाश की ओर उन्मुख होता है। और भ्रम एवं अधर्म जन्य दारुण दुखों से बचकर स्वर्गीय शान्ति का लाभ करता है इस ज्ञान रूपी अमृत का अधिक से अधिक विस्तार करना, इसकी छाया में अधिक से अधिक लोगों को आश्रय दिलाना ऊंचे दर्जे का पुण्य परमार्थ है। हिन्दू जाति सदा सामूहिक रूप से इस पुण्य को अर्जित करने के लिए-विशेष रूप से प्रयत्नशील रही है।

भगवान बुद्ध के शिष्यों ने एशिया भर में भारतीय संस्कृति का वितरण किया था, वे लोग सुदूर देशों में गये थे और वहाँ बुद्ध के अहिंसा धर्म में विविध जातियों को दीक्षित किया था। आज भी भारत से बाहर पूर्वी एशिया के एक विशाल क्षेत्र में बौद्ध धर्म का अवशेष मौजूद है इससे पूर्व काल में तो सदा ही यहाँ के प्रचारक संसार भर के सुदूर प्रदेश में धर्म प्रचार के लिए जाते थे, यहाँ की प्रजा को वेद के ज्ञानामृत से तृप्त करते थे, उस जनता के विशेष आग्रह से वहाँ की राज्य व्यवस्था चलाने का भार भी वे निस्वार्थ भाव से अपने ऊपर उठा लेते थे यही आर्य साम्राज्य था। इसी विधि से भारत के राजा चक्रवर्ती कहे जाते थे। उस समय आज के जैसे शोषक साम्राज्यवाद की गंध भी न थी। राम ने सोने की लंका विजय करके उसमें से एक लोहे की कील भी अयोध्या लाने का प्रयत्न नहीं किया।

प्राचीन इतिहास के पन्ने-पन्ने पर हमें यह प्रमाण भरे मिलते हैं कि ऋषियों ने सदा हिन्दू संस्कृति में हिन्दू दर्शन में संसार भर की प्रजा को दीक्षित करने का प्रयत्न जारी रखा। अन्य मतावलंबियों के सामने महान वैदिक आदर्शों को रखकर वे सिद्ध कर देते थे कि इन सिद्धान्तों की महत्ता कितनी ऊंची है। इस प्रकार जिधर भी वे निकलते थे, अन्य मत-मतान्तरों को त्याग कर लोग वेद धर्म को स्वीकार कर लेते थे। सुदूर अमेरिका तक में एक समय भारतीय संस्कृति का प्राधान्य था वहाँ अब भी पुरातत्व विभाग को ऐसे अवशेष मिलते हैं जिनसे प्रतीत होता है कि एक समय अमेरिका में हिन्दू धर्म था। ईरान, तुर्की, पर्शिया, अफगानिस्तान, अरब, मिश्र आदि देशों में तो डेढ़ हजार वर्ष पूर्व तक हिन्दू धर्म का प्राधान्य था। असंस्कृतों को संस्कृत बनाने के लिए संसार पर अमर ज्ञान की वर्षा करने के लिए विश्व को आर्य-श्रेष्ठ-बनाने के लिए हमारे ऋषियों ने भागीरथ प्रयत्न किया था और उस महान सभ्यता से संसार भर के निवासियों को दीक्षित किया था

दुर्भाग्य ने हमारी इस स्वर्ण शृंखला को टूक-2 कर डाला। विनाश काले विपरीत बुद्धि को हमने चरितार्थ किया, इस ज्ञानदान के द्वार को हमने मजबूती से बन्द कर दिया। इस कल्पवृक्ष की छाया में भूले भटकों को अक्षय देने के धर्मलाभ से विमुख होकर जरा-जरा से कारणों पर उन लोगों को भी बहिष्कृत करना आरंभ कर दिया जो इसकी छाया में शान्ति लाभ कर रहे थे। दुर्भाग्य ने हिन्दू जाति के मस्तिष्क में यह भाव उत्पन्न कर दिये कि मरकर फिर हिन्दू घर में जन्म लेने के सिवाय अन्य किसी उपाय से कोई व्यक्ति हिन्दू धर्म में प्रवेश नहीं कर सकता। कोई आदमी हिन्दू सिद्धान्तों पर चाहे कितनी ही भाव श्रद्धा रखे, उन्हीं आदर्शों में अपना जीवन बिताना चाहें पर उसको हिन्दू समाज में नहीं लिया जा सकता। मनुष्य समाज-जीवी प्राणी है। उसे जिस समाज में रहकर जीवन व्यतीत करना पड़ता है उसी के विचारों को भी वह अपनाता है। धर्म का विस्तार करना तो दूर उलटे प्रवेश करने के इच्छुकों के लिए द्वार बन्द कर दिए गए।

दूसरी ओर जरा-जरा से कारणों, पर बहिष्कार का जोर बढ़ा। मुसलमानी शासकों में क्लाँत जिन स्त्री पुरुषों का धर्म भ्रष्ट कर दिया था धोखे से कोई अखाद्य खिला दिया था, प्रलोभन में वड़कालिया था, वे लोग मुद्दतों तक क्रन्दन करते रहे कि हमें कठोर प्रायश्चित्त कराके क्षमा कर दिया जाय पर अनुदारता ने उन क्रन्दन करने वालों को निष्ठुरता पूर्वक लातों से ठुकराया। सैकड़ों वर्षों तक वे इसी प्रतीक्षा में रहे, कुछ तो अब तक है। उनके यहाँ पर दो रिवाज मुसलमानी और शेष प्रथाएं हिन्दू की बरती जाती हैं उन्होंने सदा प्रार्थनाएं की कि हमें अपना लिख जाय पर उत्तर निराशाजनक ही मिला।

प्रसिद्ध है कि अकबर ने हिन्दुओं से प्रार्थना की कि मुझे हिन्दु बना लिया जाय। बीरबल इसका उत्तर देने के लिए गधे को गंगा स्नान कराने लगे। बादशाह ने पूछा-यह क्या कर रहे हो? उत्तर मिला- गधे को नया बना रहा हूँ अकबर ने हैरत से कहा यह ना मुमकिन है उत्तर में बीरबल ने भी कहा मुसलमान का हिन्दू होना नामुमकिन है। आज हमारे देश में एक करोड़ मुसलमान हैं, इतनी संख्या कहाँ से आई? आक्रमणकारी के रूप में तो सात हजार मुसलमान आये थे, यह इतनी बड़ी संख्या उन बहिष्कृत हिन्दुओं की है जिनको जरा सी बात पर लात मारकर हमने आने समाज से बाहर कर दिया है और उनके लाख प्रार्थना करने पर भी छाती पर निष्ठुरता का पत्थर रख लिया है। क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्यम्भावी है। पक्के कुएं में मुँह करके जो शब्द उच्चारण किए जाते हैं वे ही प्रतिध्वनि बन कर वापिस गूँजते हैं तिरस्कार के प्रति ध्वनि घृणा में उत्पन्न होती है हम देखते हैं कि बहिष्कृतों की घृणा, प्रतिहिंसा, बदले की भावना, आज नग्न नृत्य कर रही है कहकर बरसा रही है, ऐसे हत्याकाण्ड उपस्थित कर रही है जिसकी भयंकरता देखकर अवाक् रह जाना पड़ रहा है।

कथा है कि दुर्वासा के क्रोध से एक राक्षस पैदा हुआ, वह आम्बरीय के ऊपर आक्रमण में विफल होकर उलटा दुर्वासा के पीछे दौड़ा दुर्वासा को भारी संकट का सामना करना पड़ा और मुश्किल से उनके प्राण बचे। आज भी ऐसी ही परिस्थिति है। अविवेक पूर्ण तिरस्कार और बहिष्कार की प्रतिक्रिया घृणा और शत्रुता के भाव लेकर उलट पड़ी है, उसकी आग से हम बुरी तरह झुलस रहे हैं। यदि समय रहते भूल को सुधार लिया गया होता तो इतने प्रचंड प्रतिरोध द्वारा, इतना बड़ा अनिष्ट होने की नौबत क्यों आती?

भूल चाहे किसी ने की हो, कितने ही लम्बे समय से की हो, पर उसे अन्ततः सुधारना ही पड़ेगा। न सुधारा जाय तो वह माँस में गढ़े हुए काँटे की तरह सदा दुख देती रहेगी। लोग प्यासों को पानी पिलाने के लिए प्याऊ लगवाते हैं, कुएं तालाब बनवाते हैं, थके हुए निराश्रित पथिकों के लिए धर्मशाला, बगीचे बनवाते है फिर क्या हमारे लिए यह उचित है कि अपनी संस्कृति और दर्शन का शीतल आश्रय लाभ करने से, आत्मिक थकान वाले पथिकों को वंचित रखें? जो लोग हिन्दू धर्म की शरण में आना चाहते हैं उन्हें प्रोत्साहन देव के स्थान पर यदि उनके मार्ग में बाधक बनते हैं तो यह उन महर्षियों के प्रति हमारी एक अक्षय अपराध होगा जिन्होंने मानव मात्र के लिए हिन्दू धर्म के महा विज्ञान की रचना की थी।

आज हम निद्रा त्याग कर जाग रहे हैं। हमारा कर्तव्य है कि हिन्दू धर्म के भण्डार में जो अमूल्य रत्न भरे पड़े हैं उन्हें संसार के सम्मुख उपस्थित करें, उनकी महत्ता को प्रकाश में लावें, और जो उसकी शरण में आना चाहें सहर्ष उनका स्वागत करें। नवागन्तुकों के साथ रोटी-बेटी का व्यवहार होना कोई अनिवार्य शर्त नहीं हैं। हिन्दुओं में अनेकों जातियाँ उपजातियाँ हैं उनका रोटी-बेटी व्यवहार उन्हीं लोगों के बीच सीमित दायरे में होता है। नवागन्तुकों की एक और जाति बन सकती है, जिसका रोटी-बेटी व्यवहार आपस में चलता रहे। शेष व्यवहार सब लोगों का उनके साथ वैसा ही हो जैसा हिन्दू मात्र के साथ होना उचित है। इस प्रकार रोटी-बेटी व्यवहार शर्तों को कड़ी न करने से ऐच्छिक बात रहने देने दूसरे कट्टर पंथी लोगों का भी सहयोग प्राप्त हो सकता है। आज हमारे लाखों करोड़ों भाई पुनः अपनी पैतृक संस्कृति में वापिस लौटने के लिए तड़प रहे हैं। उनको सहानुभूति सूचक उत्तर देना ही हमारा कर्तव्य है। मथुरा से सटे हुए पड़ौसी प्रदेशों (अलवर और भरतपुर) में बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों ने अपना प्यारा हिन्दू धर्म पुनः ग्रहण किया है। इस प्रकार उन्हें प्रोत्साहन और पथ-प्रदर्शन प्राप्त हो तो बड़े पैमाने पर यह प्रगति देश भर में हो सकती है। अखण्ड ज्योति केवल विचार द्वारा ही नहीं कार्यों द्वारा भी निकट प्रदेशों में नहीं सुदूर प्रान्तों में भी यह प्रयत्न विस्तरित करेगी। आइए आप भी इन प्रयत्नों में हाथ बंटाइए।


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