जीवन-गान

November 1947

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(श्री द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी एम. ए.)

मृत प्राणों में मधुरामृत की एक बूँद ढुलका रे

गायक, जीवन-गान सुना रे।

बहुत सुन चुका गान, थपकियाँ लगा सुलाने वाले

स्वप्नों के रंगीन जगत् की ओर बुलाने वाले

लगा समझने स्वप्न सत्य मैं, सत्य हुआ सपना रे। गायक जीवन गान सुना रे।

खिंचता गया उसी दुनिया की ओर सतत् बरबस मैं

कर न सका क्षण भर की भी मन को अपने वश मैं।

था सुषुप्ति का राज्य, जागरण का कब चिन्ह वहाँ रे गायक, जीवन-गान सुना रे।

युग-युग की काली रजनी का छाया गहन अंधेरा

जान सके कब प्राण किसे कहते हैं सरस सबेरा।

नक्षत्रों की नीरदता का भेद न मैं समझा रे। गायक, जीवन-गान सुना रे।

जग कहता अमरत्व प्राप्त कर झूल रहे ये भूले

मैं कहता निश्चेष्ट शाँति हैं मरण, विश्व मत भूले

मर कर मिली अमरता तो जीवन क्यों व्यर्थ मिला रे। गायक, जीवन-गान सुना रे।

जीवन है अमूल्य, उसका जग मोल नहीं कर पाया

विश्व-तराजू में रस उसकी तोल नहीं कर पाया।

कह देता धीमे से जीवन नश्वर है, सपना रे गायक, जीवन-गान सुना रे।

किन्तु भाव दुर्बलता सुचक्र हैं ओ जग ये तेरे,

सहन कर सका तू जीवन के ये संघर्ष-थपेड़े?

उसी परायज की परिभाषा जीवन है सपना रे गायक, जीवन-गाना सुना रे।

जीवन के समारंगण में होता वीरों का मेला रक्त ,

भरी झोली से जाता फाग यहाँ पर खेला।

ठहरा यहाँ वही जिसमें साहस-बल शक्ति - प्रभा रे। गायक, जीवन-गान सुना रे

मौन समाधि लगाकर अब तक किसको स्वर्ग मिला है

भीख माँगने से सिंहासन देवों का न हिला हैं

स्थिरता-अकर्मण्यता केवल मरण, नहीं जीना रे। गायक, जीवन-गान सुना रे ।

चहल-पहल, हलचल, परिवर्तन क्षण-क्षण में, पल-पल में

होते रहे विश्व-सरिता की धारा के कल-कल में

मैं इनको ही जीवन का लक्षण कहता आया रे गायक, जीवन-गान सुना रे

तू इनका ही स्त्रोत बहा अपने स्वर की धारा में

जगा, वहाँ ले जा जग को पड़ा सुत कारा में

हर-घर जाग उठे, जागृति की मधुर भैरवी गा रे। गायक, जीवन-गान सुना रे।

*समाप्त*


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