हिन्दू संस्कृति महान है।

November 1947

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एक बात विशेष रूप से ध्यान रखने की है कि हिन्दू धर्म कोई सम्प्रदाय, फिरका मजहब या मत मतान्तर नहीं है। यह एक महाविज्ञान है जिसका उद्देश्य मानव प्राणी को संस्कृति के उच्च शिखर तक पहुँचाना है। इस धर्म में अनेकों मत-मतान्तर हैं। सम्प्रदाय हैं विचार स्वातंत्र्य की पर्याप्त सुविधा दी गई है, छोटी-बड़ी अनेकों विचारधाराएं उपधारायें प्रचलित हैं, इस प्रकार का बहुमुखी कोई सम्प्रदाय संसार भर में नहीं हैं यह सम्प्रदाय की परिभाषा से नहीं आता। इसे राष्ट्र धर्म कहा जा सकता है पर असल में यह मानवधर्म है, विश्वधर्म है। इसकी हर एक प्रक्रिया मानव मात्र को दैवी तत्वों से परिपूर्ण बनाने के लिए है।

आत्मा को पवित्र, सशक्त, समृद्ध, और परमार्थी बनाने के लिए अध्यात्मवाद के पारंगत आचार्यों से हिन्दू दर्शन का निर्माण किया है यह धर्म उच्च भूमिका तक पहुँची हुई आत्माओं की अन्तः प्रेरणा से निकला है। इसी को ईश्वरकृत वेद ज्ञान कहते हैं। इस ज्ञान को प्राप्त करके हर नागरिक मनुष्यता को गौरवान्वित करने वाले आदर्शों से परिपूर्ण जीवन, समाज के सामने उपस्थित करे इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ऐसा विधान बनाया गया था कि प्रत्येक हिन्दू की आत्मा इस ईश्वरीय ज्ञान से ओत-प्रोत हो जाय। आज हमारा धर्म-मंदिरों में, पुस्तकों में, पंडितों की उक्तियों में बन्द है, आज उसे कुछ विशेषों व्यक्तियों के द्वारा, विशेष अवसरों पर प्रयोग होने की वस्तु समझा जाता है पर तब वह हर व्यक्ति की दैनिक जीवन की आवश्यकता थी।

सन्ध्यावन्दन, गायत्री जप और अग्निहोत्र यह नित्यकर्म थे। शिखा और यज्ञोपवीत यह धर्म के दो अर्थपूर्ण प्रतीक हर समय धारण रहते थे। प्रतिमास त्यौहार, उत्सव, व्रत, पूजन आदि का क्रम चलता रहता था, समय-समय पर विशिष्ठ यज्ञ होते थे, जीवन के हर चौराहे पर आगे का सही मार्ग दिखाने के लिए संस्कार होते हैं। जन्म से मृत्यु पर्यन्त 16 चौराहे जीवन में आते हैं उनमें कही गलत दिशा में न भटक जाय, इसलिए विशेष आयोजन के साथ उसे धार्मिक शिक्षण दिया जाता था, यही 16 संस्कार कहलाते थे। इस व्यवस्थाक्रम के अंतर्गत अनेकों नियम, उपनियम होते थे उनका पालन करने से मनुष्य के मन पर धर्म की सुदृढ़ छाप बैठती थी और उसके द्वारा उसका चरित्र उच्च कोटि का बनाना था। उसी निर्माण के द्वारा, हरिश्चन्द्र, शिव, दधीचि, मोरध्वज, कर्ण, अर्जुन, भीष्म, हनुमान, ध्रुव, प्रहलाद, कपिल, कणाद, व्यास, वशिष्ठ पैदा होते थे और सीता-सावित्री, मदालसा, अनुसूया, मैत्रेयी जैसी देवियाँ घर-घर देखी जाती थीं।

आज उस प्रणाली की बड़ी दुर्दशा हो रही है जिसके द्वारा मानव प्राणी सच्चे अर्थों में हिन्दू बनता था, धर्म के संस्कारों को हृदय में धारण करता था। सोलह संस्कारों पर दृष्टि डालिए। गर्भाधान इन्द्रिय सुख के लिए नहीं, सुसंतति प्राप्त करने के लिए धार्मिक विधि से किया जाता था। बालक के गर्भ में आने पर सीमन्त, पुंसवन इसलिए होते थे कि भावी माता और गर्भस्थित बालक के हृदय में सुसंस्कार जमें, जन्म लेने पर जात कर्म, नामकरण होते थे, उसमें जिन गुणों का आरोपण करना होता था वैसा उसका नाम रखा जाता था, माता-पिता को बालक के प्रति उनके कर्तव्यों का बोध कराया जाता था, अन्न प्राशन, चूड़ाकर्म में बालक की भोजन व्यवस्था, और, वस्त्र एवं लालन-पालन के नियम में संबंध में माता-पिता को सतर्क किया जाता था। इतने संस्कारों तक बालक अबोध रहता था तो भी वेद मंत्रों की शक्ति से आत्मविद्या परायण पुरोहित उनके अन्तःकरण के गुप्त भाग में उच्च भावनाओं की स्थापना करते थे। इसके बाद गुरुकुल प्रवेश, वेदारंभ, यज्ञोपवीत होता था। इस संस्कार के साथ उसे द्विजत्व की शिक्षा, दीक्षा दी जाती थी, उद्देश्यमय जीवन में पदार्पण कराया जाता था। विद्याध्ययन के उपरान्त समावर्तन होता था, साँसारिक क्षेत्र में प्रवेश करने के सम्पूर्ण कर्त्तव्यों की जानकारी कराई जाती थी। विवाह होता था, धर्म को साक्षी देकर दो शरीर एक प्राण बनते थे, लोलुपता के लिए नहीं उद्देश्यमय जीवन बनाने के लिए। गृहस्थ पालन के उपरान्त वानप्रस्थ लेकर संयम साधना की जाती थी, संन्यास लेकर लोक कल्याण के लिए अपने ज्ञान पुष्ट जीवन को समर्पित किया जाता था। अंत्येष्टि के साथ जीवात्मा को सद्भावना युक्त बधाई ही जाती थी। इस प्रकार षोडश संस्कार युक्त हिन्दू जीवन वस्तुतः एक साधन व्यवस्था थी जिसके आधार पर वह आत्मा को परमात्मा, लघु को महान् बनाया जाता था।

आवणी विद्या का ब्राह्मणत्व का महोत्सव था। दशहरा अस्त्र-शस्त्रों का, पौरुष, पराक्रम का क्षत्रियत्व का समारोह था। दीपावली सफाई का, अर्थ व्यवस्था का, वैश्यत्व का त्यौहार था, होली को छोटे-बड़े का विचार छोड़कर सब लोग सात्विक मनोरंजन, वाद्य गायन के साथ बसंतोत्सव मनाते थे। बहिन-भाई के संबंधों में सजीवता लाने के लिए राखी की, भैयादूज की प्रथाएं पूरी की जाती थी, गणेश चतुर्थी (करवाचौथ) को पति की मंगलकामना के लिए पत्नियाँ उपवास रखती थीं। गुरु पूर्णिमा को शिष्यों द्वारा गुरु का पूजन होता था, ऋषि पंचमी को माता-पिता की पूजा होती थी। इस प्रकार अनेकों व्रत उत्सव थे, जिन्हें सुयोग पुरोहितों की अध्यक्षता में समारोह पूर्वक मनाया जाता था, वे अपने यजमानों का तत्संबंधी कर्त्तव्यों का सुविस्तृत ज्ञान कराते थे, उनकी भूलें सुधारते थे और आगे के लिए पथ-प्रदर्शन करते थे।

इसके लिए अनुष्ठान, पूजन, प्रतिष्ठा, कथा यज्ञ आदि के नानाविधि कर्मकांडों द्वारा निस्पृह एवं सुयोग्य आचार्यों द्वारा यजमानों के हृदय पर महान आर्यत्व का तत्व और गौरव अंकित किया जाता था। उस ढांचे में ढल कर ऐसे महा-मानव सामने आते थे जिनके चरणों की धूलि मस्तक पर चढ़ने के लिए सारी दुनिया तैयार रहती थी, जिनके आदर्शों और आदेशों का मान करने वालों की संख्या आज भी सबसे अधिक है हिन्दू और बौद्ध दोनों ही भारतीय ऋषियों के अनुयायी हैं, उन दोनों की सम्मिलित संख्या इतनी बड़ी है जिसकी बराबरी में संसार का और कोई धर्म आज भी नहीं ठहर सकता।

आज वे वैदिक प्रणालियाँ और परम्पराएं किसी प्रकार जीवित तो हैं पर निःस्वत हो गई हैं, चिन्ह पूजा शेष रह गई। सोलह संस्कारों में नामकरण, विवाह और अंत्येष्टि की लकीर पिटी जाती है। त्योहारों को स्वादिष्ट भोजन बनाने का एक अवसर माना जाता है। अब इन संस्कारों और त्यौहारों को इस प्रकार नहीं मनाया जाता, जिससे इनके पीछे छिपे हुए प्राणप्रद इतिहासों, उद्देश्यों और प्रेरणाओं से लोग लाभ उठावें। न जनता में वह श्रद्धा हो कि इन साँस्कृतिक भण्डारों को खोल कर उसमें से अपनी प्राचीन रत्न राशि को तलाश करे, न पुरोहितों में इतनी विद्वत्ता, मेधा, धर्म भावना, निस्पृहता है कि वे इस ऋषि संचित अमृत को छिड़क कर मूर्च्छित हिन्दू धर्म को महान मानवता को पुनः जागृत करें। इस दुर्भाग्यपूर्ण विवशता को देखकर हमारे पूर्वजों की आत्माएं आठ-आठ आँसू रोती होंगी। जिस ज्ञान के बल पर उन्होंने चक्रवर्ती शासन और जगद्गुरु का पद प्राप्त किया था उस ज्ञान की ऐसी दुर्दशा उनकी संतानों द्वारा, उन्हीं की पुण्य भूमि में होगी, ऐसा उन्होंने कभी स्वप्न में भी विचार न किया होगा।

- सूचना -

अखण्ड ज्योति हिन्दू धर्म महानताओं, विशेषताओं, प्रथाओं, परम्पराओं, व्रतों, उत्सवों, त्यौहारों, संस्कारों के संबंध में सुविस्तृत ज्ञान कराने वाले लेख आगामी जनवरी से देना आरंभ करेगी। छोटे-छोटे ट्रैक्टों द्वारा भी उन महान रहस्यों को घर-घर पहुँचाने की एक विशाल योजना के साथ प्रयत्न किया जायगा।


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