विघटन नहीं संगठन करो।

November 1947

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मुसलिम लीग ने जिस जातीय विद्वेष एवं घृणा का बेलगाम प्रचार किया उसने हमारे शान्तिप्रिय देश में अशाँति की आग लगा दी। सीधी कार्यवाही के पीछे उनकी जो योजना थी उसका परिचय जगह-जगह हो रही बर्बरता और तलाशियों में प्राप्त हो रही घातक सामग्री से सहज ही पता चल जाता है। अब भी पाकिस्तान के लीगी लीडर बराबर जिस प्रकार का विष वमन कर रहे हैं, उसकी प्रतिक्रिया भारत की प्रजा में हो रही है।

जनता लीगियों की अनीति मूलक नीति का अन्त देखना चाहती है। उसके मन में इसके लिए उद्वेग आवेश और अधैर्य का बाहुल्य है। इस आवेश का उचित दिशा में निष्कासन न होने से वह गलत मार्ग में फूट पड़ता है और उससे अवाँछनीय परिणाम उत्पन्न होते हैं। सरकार यदि पाकिस्तान लीडरों को सही रास्ते पर लाने के लिए कोई जोरदार कदम उठाती तो जनता का आवेश उसके सहयोग के रूप में लग सकता था। पर परिस्थितियों की विषमता के कारण एवं हमारी सरकार वैसा नहीं कर पा रही है। ऐसी दशा में लोक शान्ति के लिए यही मार्ग रह जाता है कि इस जन-उद्वेग को ऐसे रचनात्मक कार्यों में लगाया जाय, जिससे आज नहीं तो कल इन अनीतियों के बन्द होने में सहायता मिले।

यदि इस प्रकार का कोई कार्यक्रम भी जनता के सामने न आया तो अधैर्य का अनुचित मार्ग से होकर फूटने को रोकना कठिन हो जायगा इसलिए आज की परिस्थिति में केवल शान्त रहो-शान्त रहो कहने की बजाय जातीय संगठन, सुधार एवं सामाजिक पुनर्निर्माण के कार्य में लग जाना चाहिए।

जिनके हृदयों में लीगी गुण्डागीरी के प्रति क्षोभ भर गया है, उन्हें सोचना है कि अवाँछनीय प्रतिशोध लेने से उद्देश्य की पूर्ति न होगी। प्रतिशोध का चक्र ऐसा है जिसे यदि तोड़ा न जाय तो उसका अन्त दोनों पक्षों के सर्वनाश के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता। घृणा से घृणा की और द्वेष से द्वेष की उत्पत्ति होती है। थोड़े से लीगियों ने घृणा फैलाई उसकी प्रतिक्रिया सारे देश में हो रही है, यदि इधर से भी वही हुआ तो वातावरण इतना दूषित हो जायगा कि सार्वजनिक शान्ति ही खतरे में पड़ जायगी। दूसरे जिस चर्चिल मंडली ने लीगियों को शिखंडी बनाकर उगती हुई भारत की प्रचंड राष्ट्रीय शक्ति को तहस-नहस कर डालने का आयोजन किया है उनके वे मनोरथ पूरे हो जायेंगे। शिखंडी अपनी शैतानी के बदले में कुछ प्रलोभन पा सकते हैं पर हमें तो दुहरा घाटा रहेगा।

यह वक्त विशेष बुद्धिमानी का परिचय देने का है। एक समय शंकरजी को कालकूट विष अपने कंठ में धारण करना पड़ा था। द्रौपदी का अपमान देखते हुए भी पाँडवों को चुप रहना पड़ा था। कभी-कभी ऐसे समय किसी जाति के सामने भी आते हैं। आज का वक्त ऐसा है। आज इसी में कल्याण है कि जनता अपने क्रोध को विवेक पूर्वक काबू में रखे और उसे ऐसे मार्ग में प्रयोजित करे जिससे हमारा जातीय भविष्य उज्ज्वल हो जाय। यह वक्त छोटी-छोटी बातों पर सरकार से उलझने का नहीं है। इसमें जनता अपने क्रोध को विवेक पूर्वक काबू में रखे और उसे ऐसे मार्ग में निप्रयोजित करे जिससे हमारा जातीय भविष्य उज्ज्वल हो जाय। यह वक्त छोटी-छोटी बातों पर सरकार से उलझने का भी नहीं हैं। इसमें शक्ति का अपव्यय होता हैं। इस समय तो हमें प्रजा को जागृत, संगठित और सुसंस्कृत बनाने की आवश्यकता है। जागृत प्रजा को प्रजातंत्र युग में सरकार से लड़ने की या माँगे रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती- क्योंकि उसकी चुनी हुए सरकार उसकी इच्छा की प्रतीक होती है और उसकी इच्छानुसार कार्य करती है। जागृत के उचित लोक मत के विरुद्ध जाने का कोई लोकतांत्रिक विधि से बनी हुई सरकार साहस नहीं कर सकती।

शक्ति सरकार के हाथ में नहीं, जनता के हाथ में होती है। इसलिए हमें सरकारों पर निर्भर रहने की अपेक्षा-जनता की ओर देखना चाहिए। किसी देश की मजबूती वहाँ की सरकार की मजबूती पर निर्भर रहती है। हमें प्रजा की शक्ति को जागृत करना है, उसी शक्ति की प्रेरणा से सरकारें कार्य किया करती हैं।

आवेश और रोष में मनुष्य बड़े-बड़े साहसिक कार्य कर डालता है, बड़े-बड़े नुकसान सह लेता है और बड़े-बड़े खतरे उठा लेता है। हममें से हर एक को अपने आप से पूछना चाहिए कि अनीति उन्मूलन का अभिलाषित परिणाम यदि प्राप्त होता हो तो उसके लिए हम कितना कष्ट उठा सकते हैं कितना त्याग कर सकते हैं। जितना अधिक से अधिक कर सकते हों- उसे निश्चित करें। इस निश्चित मात्रा की शक्ति को हम स्वजनों की सेवा के लिए अर्पित करें और आवेशजनक परिस्थितियाँ शान्त हो जाने पर भी उस शक्ति को निर्माण कार्यों में लगायें। तब एक ऐसी मजबूत चीज हमारे पास होगी जिसकी कल्पना मात्र से अत्याचारियों की घिग्घी बंध जायगी।

तात्कालिक अवीरता से काम न चलेगा। रोग पुराना है। धैर्य पूर्वक जोरदार चिकित्सा करने से दूर होगा। पिछले एक हजार वर्ष में हमने अनेकों बार एक से एक भयंकर उत्पीड़न सहे हैं। इस पीड़ा का बीमारी से संबंध है, जब एक बीमारी रहेगी तब तक पीड़ा भी पीछा न छोड़ेगी। अब हमें एक बार पूर्ण निश्चय के साथ यह प्रण कर लेना चाहिए कि आये दिन तरह-तरह के त्रास देने वाली इस बीमारी का अन्त ही करके छोड़ेंगे। (1) संगठन (2) विकृतियों का निवारण (3) सब प्रकार की शक्तियों का अभिवर्धन, इन तीन कार्यक्रमों को लेकर पूरी शक्ति के साथ लगा जाय तो कोई कारण नहीं कि स्वल्प काल में ही हम इतने शक्ति शाली न बन जायं कि आज जो खतरे हैं तथा निकट भविष्य में जिन आक्रमणों की आशंका हैं उनका कोई आधार ही शेष न रहे। आज हमारी शक्तियों को संगठनात्मक कार्यों में लगने की आवश्यकता है। इस दिशा में बढ़ाया हुआ हर एक कदम सच्चा ठोस प्रभावशाली और चिरस्थायी फल उपस्थित करेगा, उस फल से ही प्रतिशोध की अग्नि शान्त होगी। निर्बलों द्वारा लिये हुए प्रतिशोध तो उन्हीं के लिए घातक सिद्ध होते हैं।


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