इन प्रस्तावों पर विचार कीजिए।

November 1947

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नीचे बीस प्रस्ताव उपस्थित किये जा रहे हैं। प्रस्तावक का विचार है कि इनके अनुसार कार्य होने से जातीय जीवन की शक्ति बढ़ेगी। आप इन प्रस्तावों पर गंभीरता पूर्वक विचार कीजिए और इनमें से जितना अंश उपयोगी समझते हों उसे अपने निकटवर्ती क्षेत्र में प्रचलित करने का अपनी सामर्थ्य के अनुसार प्रयत्न कीजिए। ऐसे अन्य सुझावों का भी स्वागत किया जायगा।

(1) सनातनी, आर्यसमाजी, सिख, जैन, बौद्ध, आदि हिन्दू जाति के अभिन्न अंगों में आज जो पृथकता के भाव घर किये हुए हैं क्या यह उचित हैं? धार्मिक विचारों में भिन्नता रखते हुए भी इन सब की सामाजिक एकता आवश्यक है। आज पृथकता का नहीं एकता का युग है, एकता की शक्ति का अनुभव करके हम सब को एक सूत्र से दृढ़तापूर्वक बंधने का और पृथकता फैलाने वाले तत्वों को निरुत्साहित करना चाहिए।

(2) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, इन चारों वर्णों की पृथकता गुण, कर्म, स्वभाव के ऊपर आधारित है। इससे वंश परम्परा से प्राप्त अपने 2 कार्य में दक्षता प्राप्त होती है। समान विचारों कार्यों और स्वार्थों वाले लोगों का उत्तम संगठन एवं रक्त मिश्रण होता हैं। उस दृष्टि से वर्णों की पृथकता उचित है। परन्तु क्या नीच ऊंच का भाव रखना भी उचित है? कोई भी व्यवसाय जो ईमानदारी और लोकहित की दृष्टि से विवेकपूर्वक किया जाता है, प्रतिष्ठा प्राप्त करने योग्य हैं। सभी वर्ण समान हैं, सभी का महत्व समान है, सभी को सम्मान और समान नागरिकता प्राप्त करने का अधिकार है। ऊंच नीच, घृणा अहंकार और असमानता के भावों का अन्त होना चाहिए।

(3) पवित्रता, स्वच्छता, निरोगता संस्कार एवं मनुष्य शरीर की विद्युत शक्ति के आधार पर अस्पृश्यता अवलम्बित है। इन्हीं दृष्टियों से छूतछात का विचार रखना चाहिए। किसी वंश विशेष में जन्म लेने के कारण किसी को जीवन भर के लिए अछूत ठहरा देना उचित नहीं। जो गिरे हुए हैं उन्हें ऊंचा उठाना चाहिए।

(4) जातियों के अन्दर इतनी उपजातियाँ बंट गई हैं कि उनसे जातीय संगठन निर्बल होते हैं और रोटी-बेटी व्यवहार का क्षेत्र बहुत संकुचित होने से कठिनाइयाँ बढ़ती हैं? क्या यह उचित न होगा कि उपजातियाँ अपनी मूल जाति के अंतर्गत अपने व्यवहारों को विस्तृत करें?

(5) दान के अधिकारी और अनधिकारी लोगों की छाँट करने के लिए एक कसौटी नियत की जानी चाहिए। जो अनाधिकारी हैं उन्हें धर्म के नाम दान लेने और देने का निषेध होना चाहिए। कार्य, चरित्र, योग्यता और आवश्यकता के अनुरूप की, विवेक लोक हित के लिए व्यक्तियों अथवा संस्थाओं को दान दिया जाना चाहिए। अनधिकारियों को दान देने से उनकी संख्या बढ़ती है और अनैतिकता फैलती है।

(6) विवाह संस्कार में आज कल हमारे यहाँ अत्यधिक विकृति आ गई है। शेखी खोरी, झूठे बड़प्पन एवं ख्याति के झूठे प्रलोभनों के कारण धन का अहंकार पूर्ण अपव्यय किया जाता है। लड़कों वाले दहेज की बड़ी-बड़ी रकमें ऐंठने के लिए कन्या पक्ष को विवश करते हैं। यह कुरीतियाँ हटाकर विवाह को सात्विक धर्म संस्कार बनाना चाहिए ताकि धनाभाव के कारण योग्य कन्याएं पहुँचने की बाधा मिट जाय और कन्या का जन्म किसी को भार प्रतीत न हो।

(7) प्राचीन समय में सब कोई पूर्ण आयु प्राप्त करके मरते थे और सभी जन सम्पन्न होते थे, उस समय मृत भोजों का महत्व था, पर अब तो अधिकाँश लोग अल्पकालिक जीवन में ही अकालमृत्यु से मरते हैं, उनकी मृत्यु से न तो किसी को खुशी होती है और न अब जन साधारण की आर्थिक स्थिति उतनी अच्छी है जिसमें बहु व्यय के साथ मृतकोत्सव के भोज दे सकें। अतएव आवश्यक धार्मिक कर्मकाण्ड एवं मर्यादित भोज के अलावा बड़े-बड़े मृत भोजों को निरुत्साहित करना चाहिए।

(8) पीर, मुरीद, कब्रिस्तान, मियाँ असानी, भूत-पलीत आदि की अन्धविश्वास जन्म का मान्यताओं का अन्त होना चाहिए। हमारे यहाँ सच्चे देवताओं की क्या कमी है तो इस निम्न श्रेणी तक उतरा जाय?

(9) इतने छोटे बालकों के विवाह न हों जिससे ब्रह्मचर्य में बाधा हो, कन्याओं विक्रय और वृद्ध विवाह न हों। विधुर एवं विधवाओं के समाने ब्रह्मचर्य से रहने का आदर्श हो, पर यदि वे उसे पालन करने में अपने को असमर्थ समझते हों तो उन पर न हो बलात् प्रतिबन्ध लगाया जाय और न बहिष्कार किया जाय।

(10) सामाजिक अपराधों के लिए-प्रायश्चित, अर्थ दंड या अन्य कोई कितना कठोर दंड दे दिया जाय पर जाति बहिष्कार न किया जाय। जातिच्युत कर देने से व्यक्ति के पतन का मार्ग खुलता है। अपमान के कारण उसके मन में ढीठता और प्रतिहिंसा के भाव जाग पड़ते हैं। आज के करोड़ों मुसलमान हमारे जातिच्युत भाई ही हैं।

(11) हमारे धर्म में प्रवेश के सबके लिए द्वार खुले रहें। सच्चे हृदय से, अपनी निष्ठा की सच्चाई का प्रमाण देकर जो कोई हिन्दू धर्म दीक्षित होना चाहे उसका स्वागत होना चाहिए।

(12) तीर्थस्थान, धर्मस्थान, देव मंदिर, साधु संस्था, ब्राह्मण समाज आदि धर्म प्रतीकों की कार्य प्रणाली एवं व्यवस्था इस प्रकार कर दी जावे कि वे व्यक्ति गत स्वार्थी की प्रति करने के साधन न रह कर हिन्दू संस्कृति के प्रेरणा केन्द्र बन जावे।

(13) गौ पालन, गौ रक्षण और गौ वर्धन के लिए ठोस कदम उठाये जायें।

(14) जातीय महत्ता वैज्ञानिकता संस्कृति इतिहास प्रथा, परम्परा, आदर्श-सिद्धान्त उनके प्रतिफल एवं तत्संबंधी समस्याओं को समझाने की शिक्षा की एक व्यापक योजना बनाई जाय। जिसमें पढ़े-लिखे और बिना पढ़े सभी समान रूप से लाभ उठा सकें। बिना पढ़े लोगों की कथा, उपदेश, भजन, गायन चित्र आदि के द्वारा साँस्कृतिक समस्याओं से परिचित कराया जा सकता है और शिक्षितों को पत्र पत्रिका ट्रैक्ट, पर्चे पुस्तक आदि द्वारा बताया जा सकता है। तात्पर्य यह कि प्रत्येक हिन्दू को अपने धर्म सिद्धान्तों की प्रारंभिक जानकारी से अवश्य परिचित होना चाहिए।

(15) व्यायामशालाएं, पाठशालाएं, उद्योगशालाएं तेजी से बढ़नी चाहिए। अस्त्र-शस्त्र, व्यापार, शिल्प, रसायन, कृषि, चिकित्सा विज्ञान आदि की उन्नति में विद्वानों का मस्तिष्क, धनियों का धन, जानकारों का कौशल पूरी तरह लगना चाहिए जिसमें जातीय शक्ति और समृद्धि में भारी वृद्धि हो।

(16) जातीय भाषा, वेश, भूषा, भाव, सभ्यता और शिष्टाचार का व्यवहार और आदर बढ़ना चाहिए अपनत्व को सदा प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

(17) त्यौहार और संस्कारों के अवसर पर सामूहिक उत्सव मनाये जायं और उनमें छिपे हुए रहस्यों और संदेशों पर विद्वानों द्वारा विवेचना किया जाय।

(18) किन्हीं हर्ष, शोक के अवसरों एवं छोटे-बड़े उत्सवों पर एक दूसरे के यहाँ सम्मिलित होने का प्रचलन बढ़ाना चाहिए। वर्तमान समय की आर्थिक दशा को देखते हुए प्रीतिभोजों में पूर्ण आहार की प्रथा के स्थान पर अल्प आहार एवं जलपान, की प्रथा चलानी चाहिए, जिससे स्वल्प व्यय में अधिक मित्रों को आमंत्रित किया जा सके।

(19) संस्कृत भाषा और वेद शास्त्रों के पठन-पाठन को बढ़ाया जाय।

(20) एकता, सदाचार, प्रेम, उदारता भ्रातृभाव, सेवा सहृदयता, पवित्रता, कर्तव्य परायणता, लोक सेवा, धार्मिकता, देशभक्ति समय, सत्यनिष्ठा, न्यायशीलता, निर्भीकता, साहस दुष्टता का विरोध आस्तिकता आदि सद्गुणों को प्रत्येक व्यक्ति में कूट-कूट कर भरना चाहिए ताकि सच्चे हिन्दुत्व का असली रूप प्रकट हो।


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